Saturday, October 22, 2011

एक नज़्म ‘शब’


न तो इकरार की ‘शब’ है न तो इनकार की ‘शब’ है।
वल्लाह ‘शब’ है या कि इश्क-ए-बेकरार की ‘शब’ है।।

     तुम्हारे शहर से तो बच के अब जाना नहीं मुमकिन।
     ये खंजरों का दिन और ये तलवार की ‘शब’ है।।

घनेरी जुल्फ में रोशन रुख-ए-महताब की चमक।
नूर की बूंद है या कि गुल-ए-रुखसार की ‘शब’ है।।

     निगाह-ए-नाज पे पल्कों का झिंगुर गीत गाता है।
     के जैसे छुट्टियों की सुरमयी बुधवार की ‘शब’ है।।

छुपी शीशे के परदे में कयामतखेज सी आंखें।
उठे तो इश्क की सुबह, झुके तो प्यार की ‘शब’ है।।

     मैं शहर में उसके एक दहकते दिन की तरह हूं।
     और वो खयाल में मेरे एक आबशार की ‘शब’ है।।

ये चांदनी का बदन और उसपे शोखी-ए-खुश्बू।
मचल रही है गोया बादे-नौ-बहार की ‘शब’ है।।

     यूं इश्क की रुसवाइयों का मुन्तजिर होकर।
     मैं तन्हा ही बहुत खुश हूं कि इंतजार की ‘शब’ है।।

ये लब हैं या कि ‘अकरम’ की गजल के एक-दो मिसरे।
ये लरजिश है या आहट सी कोई इजहार की ‘शब’ है।।

2 comments:

  1. Behtarin bhavavibyakti aap ke is soch ke liye aap ko dheron danyabad pata hai aap ke alawa itni sunder rachna ki umeed bemani hogi bhai aaj se pehle bhi manta tha aap best hai aaj bhi manta hoon aur aage bhi manooga..................

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