Thursday, January 5, 2012

मेरी तहज़ीब मेरी पहचान


        इस दुनिया के चाहे जिस हिस्से में चले जाएँ, सुकून हमें अपने घर में ही मिलता है. दुनिया की सारी खुशियाँ एक तरफ और हमारे घर की थोड़ी सी खुशी एक तरफ. हम नौकरी के सिलसिले में घर से बाहर होते हैं, यह किसी और मुल्क में होते हैं, हमारा दिल--दिमाग घर में लगा रहता है. उस घर से हमारी संस्कृति, परंपरा और धर्म की सभी बुनियादी चीजें जुड़ी होती हैं, जो कदम-दर-कदम जिंदगी के हमारे साथ होती हैं. ये चीजें हमारी परवरिश के साथ धीरे-धीरे जिंदगी में शामिल होती हैं और यही हमारी पहचान भी बनती हैं. इसी पहचान का नाम संस्कृति है. जब हम अपना घर छोड़ किसी और जगह पर जाते हैं तो यह संस्कृति हमारे साथ हो लेती है. ऐसे में, घर से दूर होते हुए हम महसूस करते हैं कि कुछ चीजें हैं जो हमें हमारे घर की ओर खींच रही हैं. हमसे वापस लौट आने के लिए गुज़ारिश कर रही हैं.
         इस्लामी हदीस बुखारी शरीफ में पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने फरमाया, 'जिसने मुंह मोड़ा अपने बाप-दादा से, उसने कुफ्र किया और काफिर का काम किया.' आदमी अपना मजहब तो बदल सकता है, लेकिन अपनी तहजीब, अपने पूर्वज, अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं को नहीं बदल सकता. मिसाल के तौर पर आजादी से पहले बहुत से हिंदुस्तानियों को अंग्रेजों ने काम का छलावा देकर यूरोपीय देशों में भेजा और वहां उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया. वे वहां जाकर वापस न आने के लिए मजबूर हो गये, लेकिन उन्होंने अपनी संस्कृति, परंपरा और धर्म को नहीं छोड़ा. आज भी यूरोप के कई हिस्सों में भारतीय संस्कृति की झलक देखी जा सकती है. भारतीय हिंदू परंपरा के तहत होने वाले उत्सवों में भारतीय गीतों के साथ बैले डांस का फ्यूज़न सनातन संस्कृति के जिंदा रहने की बेहतरीन मिसाल है. त्रिनिदाद के चटनी सोसा संगीतकार और गायक रिक्की जय के पूर्वज भारतीय थे. रिक्की जय भारतीय शादियों में महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले गीतों को वेस्टर्न म्यूजिक के साथ मिक्स कर पश्चिमी बाजार में कई एल्बम ला चुके हैं. वे कहते हैं कि मैं भले ही त्रिनिदाद में पैदा हुआ हूं, लेकिन मेरे पूर्वज भारतीय थे, इसलिए मैं भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपने गीत-संगीत के जरिये जिंदा रखना चाहता हूं. यह ऐसी मिसाल है जिससे यह समझा जा सकता है कि इंसान भले ही सात समंदर पार जाकर रहने लगे, लेकिन वह अपनी जड़ों को कभी नहीं छोड़ता. यही वजह है कि बहुत से भारतीयों ने विदेश में बसने के बाद भी वहां की संस्कृति को अपनी संस्कृति में मिला लिया है. यह सिर्फ भारतीय संस्कृति की जड़ों के गहरी होने की बात नहीं है, बल्कि दुनिया की सभी संस्कृति के मानने वालों की बात है.
          हिंदुस्तान के मशहूर इस्लामी विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान अपने एक दीनी तकरीर के सिलसिले में एक बार पाकिस्तान गये. तकरीर के बाद रात के खाने का इंतजाम एक घर की छत पर किया गया था. उस वक्त आसमान में निकले चौदहवीं के चांद को देखकर मौलाना वहीदुद्दीन ने फरमाया, 'यह चांद यहाँ जितना खूबसूरत दिखता है, हिंदुस्तान में भी उतना ही खूबसूरत दिखता होगा.' जाहिर है चांद की खूबसूरती किसी मुल्क के ऐतबार से नहीं बदलती. ठीक ऐसी ही होती है हमारी तहजीब यानि संस्कृति. हम चाहे जहां रहें हमारे दिलों के नाजुक एहसासों में हमारी तहजीब उस चांद की तरह ही चमकती रहती है. यही वजह है कि हिंदुस्तान का कोई शख्स जब अमेरिका नौकरी के लिए जाता है तो घर से निकलते वक्त महफूज़ सफ़र के लिए नारियल फोड़ता है और अपनी मां के हाथों से दही खाकर ही निकलता है. जब वह अमेरिका में नौकरी कर रहा होता है तो उसे मां के हाथों से खाई हुई दही की याद आती है और मां के हाथों के मस को महसूस कर उसकी आंखें नम हो जाती हैं. अगर संस्कृति की जडें गहरी नहीं होतीं तो शायद कुछ ही पलों में वह अपने काम में लग जाता और इसी तरह जीते हुए कुछ ही दिनों बाद एक दिन सबकुछ भूलकर वहीं रच-बस जाता.
           मशहूर साहित्यकार महीप सिंह किसी मुल्क के सफ़र पर थे. कार्यक्रम के दौरान वहां के एक बुजुर्ग ने जब यह सुना कि महीप सिंह उनके वतन भारत से आये हैं तो वह बुजुर्ग उनसे लिपट के फूट-फूट कर रोने लगा. वह बुजुर्ग बनारस का रहने वाला था. उसका धर्म महीप सिंह के धर्म से बिलकुल अलग था, लेकिन उसकी संस्कृति भारतीय संस्कृति थी. इसलिए जब उसने एक भारतीय को देखा तो उससे लिपटकर रोने लगा. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी शायद यही महसूस किया होगा तभी तो उन्होंने आखिरी ख्वाहिश रखी थी कि उनकी अस्थियों को इलाहबाद के संगम में विसर्जित किया जाये. दुनिया के लगभग सभी मुल्कों में हिंदुस्तान के लोग रहते हैं, लेकिन वे अपने पारंपरिक त्योहारों में शामिल होने के लिए परदेस छोड़ देस लौट आते हैं. यही होता है वतन की मिट्टी की खुशबू का आकर्षण. ऐसा कौन है जो इस आकर्षण से बच पाया है?

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