Tuesday, February 28, 2017

उर्दू की एक नयी तहरीक है जश्न-ए-रेख़्ता

उर्दू और फारसी के उस्ताद शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने ख़ुदा-ए-सुख़न मीर के बारे में एक दफा कहा था- ‘‘रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं ग़ालिब, कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था.’’ यह तो मीर की शायरी और उनके अदबी मेयार की तारीफ़ थी. लेकिन, गुज़िश्ता वक्तों में उर्दू पढ़ने-लिखने के कम होते जिस ज़ौक के दौर से हम दो-चार हुए हैं और शायद अब भी हो रहे हैं, उस ऐतबार से हम यह कह सकते हैं कि आज उर्दू अदब की हिफ़ाज़त और उसे फ़रोग देने वाले रेख़्ता फाउंडेशन (rekhta.org) के बानी (फाउंडर) और सरबराह जनाब संजीव सराफ अपने मेयार में ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ के उस्ताद हैं. खुद संजीव सराफ की ज़ुबान में- ‘‘उर्दू शायरी से मेरी मुहब्बत का एक हसीन-ओ-तरीन नज़राना है रेख़्ता.’’ इस बयान से ज़ाहिर है, एक गैर-उर्दू तरबियत से वास्ता रखने वाले संजीव सराफ की उर्दू से मुहब्बत ही है, जिसके चलते उन्होंने साल 2013 में ‘‘ऑनलाइन रेख़्ता’’ की नींव रखी. सचमुच, मुहब्बत की ज़बान से किसी को ऐसी ही मुहब्बत हो सकती है कि जिससे एक तहरीक पैदा हो, ताकि आने वाली पीढ़ियां यह न कह सकें कि उन्हें अदबी रहनुमाई नहीं मिली. 
रेख़्ता फाउंडेशन के बैनर तले शुरू हुए जश्न-ए-रेख़्ता प्रोग्राम का यह तीसरा साल था जब दिल्ली के इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स में 17 से 19 फरवरी तक चले उर्दू के इस जश्न में उर्दू अदब की कई नामचीन हस्तियां और सिनेमाई दुनिया की कुछ शख्सियतें शामिल हुईं और उनने लोगों में उर्दू के शौक-व-ज़ौक को बढ़ाने की अपनी-अपनी पुरअसर कोशिशें कीं. इस जश्न में मुशायरा हो या क़व्वाली, शायरी की तहज़ीब हो या शाम-ए-ग़ज़ल, अदबी बहसें हो या दास्तानगोई, बैतबाजी हो या थिएटर प्ले, इन तमाम प्रोग्रामों में लोगों की बढ़-चढ़कर शिरकत इस बात की तस्दीक कर रही थी कि ऐसी तहरीकों की आज कितनी ज़रूरत है. लोगों की इस शिरकत के बाद भी चंद बुक स्टॉलों की तरफ उनका भागना और यह पूछना कि उर्दू सिखाने वाली कोई आसान सी किताब हो तो दीजिए, यह जश्न-ए-रेख़्ता की कामयाबी की तरफ एक इशारा है. 
हिंदुस्तान में उर्दू शे’र-ओ-शायरी और अदब की रवायत का सिलसिला तकरीबन चार सदियों से मुसलसल जारी है. इन चार सदियों के दौरान इस रवायत को तरक्की देने के लिए बहुत सी तहरीकें हमारे सामने आयीं और उर्दू के बहुत से अदीबों-शायरों ने इसे बढ़ाने-फैलाने की अपनी ईमानदार कोशिशें भी कीं. उन्हीं कोशिशों में अब एक नाम रेख़्ता फउंडेशन का भी जुड़ गया है और सच्चे मायनों में यह कहा जा सकता है कि अब जश्न-ए-रेख़्ता भी उर्दू ज़बान की एक नयी तहरीक का नाम है. इसका मकसद वही है, जो गुज़िश्ता चार सदियों के दौरान तमाम तहरीकों का रहा कि किस तरह से उर्दू ज़बान को और इसकी अदबी रवायत को दूर-दूर तक फैलायी जा सके. हालांकि, हर तहरीक की कामयाबी का अपना-अपना पैमाना होता है और यहां जश्न-ए-रेख़्ता की कामयाबी को किस पैमाने में डाला जाए, यह अभी तय होना बाकी है. लेकिन, इतना ज़रूर है कि आज हम जिस दौर में रह रहे हैं, जब कई बेहतरीन ज़बानें दम तोड़ चुकी हैं, कई अब भी दम तोड़ रही हैं और कुछ हद तक उर्दू के बारे में भी यही कहा जाता रहा है कि अब कम लोग ही उर्दू पढ़ते-लिखते-बोलते हैं, ऐसे में रेख़्ता फाउंडेशन की यह कोशिश और इस कोशिश के साथ चलने वाले लोगों को देखकर यही लगता है कि रेख़्ता न सिर्फ एक गैर-मामूली काम कर रहा है बल्कि उर्दू को एक नए मुकाम पर पहुंचाने की कोशिश में है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की ज़ुबान मीठी हो सके.
हम उस दौर के भी गवाह रहे हैं जब उर्दू को या तो मदरसों की चौहद्दी में बांध दिया गया था या फिर महज़ एक मज़हब की ज़बान कहकर इससे दूरी बनाने की कोशिशें भी हुईं. मामला रोज़गार का था, इसलिए उर्दू की तरक्की पसंद तहरीकें ठहर सी गयी थीं. उर्दू जैसी दिल में उतर जाने वाली ज़बान के साथ अगर ऐसा मसला है, तो फिर यह फिक्र करने वाली बात है कि बाक़ी कमज़ोर ज़बानों का क्या होगा. इस ऐतबार से हम मश्कूर हैं उन तमाम ग़ज़ल गायकों और हिंदी सिनेमा के उर्दू ज़बान वालों के, जिन्होंने हमारे दिलों में उर्दू के ज़ौक और मुहब्बत को ज़िंदा रखा. और अब हमें मश्कूर होना होगा रेख़्ता का भी, जिसने उर्दू के ज़ौक को और बढ़ा दिया है. 
उर्दू अदब में शे’र-ओ-शायरी को ही ज़्यादा मक़बूलियत हासिल है. ज़ाहिर है, इसे तरक्की देने के लिए सिर्फ शे’र लिखना-छपाना या फिर सुनना-सुनाना ही काफी नहीं है, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि शे’र लिखने-समझने के तौर-तरीके क्या हैं, इसका लोगों को इल्म हो. इसका ज़िम्मा भी रेख़्ता ने ही उठाया है और अपनी वेबसाइट के ज़रिए हर लफ़्ज़ के मानी, नुक्ता और इजाफत का सही-सही इस्तेमाल के साथ ही उर्दू का पूरा ग्रामर पेश करके उर्दू समझने-बोलने के लिए एक नया स्कूल खोला है. आप भी इस स्कूल का स्टूडेंट बनकर अपनी ज़िंदगी को अदब-ओ-आदाब से रोशन कर सकते हैं.
‘रेख़्ता: बाब-ए-सुखन’ पर उर्दू के एक हज़ार मक़बूल शायरों (ग़ालिब से लेकर अब तक) की तकरीबन दस हज़ार ग़ज़लें मौजूद हैं. रेख़्ता की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह उर्दू शायरी का सबसे बड़ा ऑनलाइन खज़ाना है. संजीव का मकसद रेख़्ता के ज़रिये लोगों तक सिर्फ उर्दू शायरी पहुंचाना ही नहीं है, बल्कि देवनागरी, उर्दू और अंगरेजी, तीनों ज़बानों में उर्दू शायरी को मक़बूल बनाना है, जिससे गैर-उर्दूदां लोग भी बड़ी आसानी से उर्दू ज़बान की शहद जैसी तासीर को समझ सकें. क़ाबिल-ए-गौर बात यह भी है कि पाकिस्तान की कौमी ज़बान उर्दू होते हुए भी वहां उर्दू शायरी को लेकर रेख़्ता जैसी वेबसाइट मौजूद नहीं है.
(नोट: यह लेख 'यथावत' पत्रिका के 1 से 15 मार्च, 2017 अंक में शाया हुआ है।)
http://www.yathavat.com/

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