Friday, November 19, 2010

हम भारत के लोग तो हम हैं! – वसीम अकरम




दुनिया का कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र को भौगोलिक रूप से गुलाम बनाना नहीं चाहता, क्योंकि हर एक राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय कानून, मानवाधिकार और राष्ट्राधिकार के तहत अधिकार की बात करते हैं, जिससे जवाबदेही तय होती है। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है, वो ये कि आर्थिक रूप से गुलाम बना दो। पिछले दो सौ सालों की गुलामी के बाद भारत 63 सालों से आज़ाद है, लेकिन इन 63 सालों में आज भी वो मानसिक गुलामी लोगों के मन में है जो देश के प्रधानमंत्री के उस बयान के रूप में कभीकभार बाहर आ जाती है, जब ब्रिटेन यात्रा के दौरान मनमोहन सिंह ब्रिटेन की तारीफ करते हुए ये कहते हैं कि, 'ब्रिटिश हुकूमत ने भारत को बहुत कुछ दिया है।’ ये 'बहुत कुछ’ दो साल की गुलामी पर भारी पड़ जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा को लेकर जो हो हल्ला मचा रहा, वह भी हमारी उसी विरासत की देन है जहां गुलाम मानसिकता की ेर सारी परतें तहबद्ध हैं. दरअसल हम भारतीयों की आदत में मांगने की फितरत शुमार है. हम अपने फैसले खुद नहीं लेते. पता नहीं क्यों दूसरों पर निर्भर रहने की हमारी आदत जाती ही नहीं.
मिसाल के तौर पर, ओबामा के आने के पहले की भारतीय राजनीति और जनमानस की तस्वीरों पर गौर करें तो इस आदत की इबारत बिल्कुल साफ समझ में आ जायेगी. ''यूनियन कार्बाइड, डाउ केमिकल के खिलाफ कार्रवाई करें ओबामा. 26/11 के दोषियों को सज़ा दिलायें ओबामा। संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सीट दिलायें ओबामा. इरान पर ठोस कार्रवाई करें ओबामा. कश्मीर मसले पर मध्यस्थता करें ओबामा. पाकिस्तान में आतंकवाद पर रोक लगायें ओबामा. पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करे ओबामा. वर्ल्ड तिब्बत कांग्रेस की मांगचीन पर अंकुश लगायें ओबामा. संसद पर हमले के आरोपी को फांसी दिलायें ओबामा. सिख समुदाय की मांग 1984 के सिख दंगों के आरोपियों को न्याय के दायरे में लायें ओबामा.’’ ये हमारी मांगने की आदतों की ऐसी तस्वीरें हैं जिसे देखसमझकर आसानी से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम अपने राष्ट्र को समर्पित अपनी जिम्मेदारियों के प्रति कितने वफादार हैं.
हाल ही में हुए भारतअमेरिका के सामरिक समझौते के मद्देनजर भरत को कोई ऐसा फायदा नहीं होने वाला जिससे कि भारत की गरीबी के आंकड़ों में कुछ कमी आ जाये. यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है जो इस बात की गवाही देता है कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों के लिए वादों को तोड़ना उनकी पुरानी फितरत रही है और ओबामा ने ही इसे ही सिद्ध किया है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किसी तरह का गठजोड़ या समझौता हमेशा बरकरार नहीं रह सकता. ओबामा की नाकामयाबी की एक लम्बी फेहरिस्त है. मसलन, ओबामा चाहे होते तो अपने 27 फरवरी 2009 के उस बयान ''अमेरिका 31 अगस्त 2010 तक इराक से अपने सारे सैनिक वापस बुला लेगा’’ पर कायम रह सकते थे, मगर नहीं रह सके. जो देश ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करता हो और ग्लोबल वार्मिंग के लिए विकासशील राष्ट्रों को जिम्मेदार ठहराता हो, उसके इस रवैये से समझना चाहिए कि वो सिर्फ अपना हित देखता है. ओबामा अफगान में भी विफल रहे क्योंकि आज भी वहां अमेरिकी सेना की जमातें गश्त कर रही हैं, जबकि राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने कहा था कि वो 16 महीनों के भीतर अपने सारे सैनिकों को वापस बुला लेंगे.
ओबामा के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बनने की बुनियाद को देखें तो अंदाजा लगाया जा रहा था कि अब अमेरिका में कालेगोरे का भेद खत्म होने वाला है. अमेरिका में 14 प्रतिशत के करीब अश्वेत हैं. ओबामा ने इन अश्वेतों के लिए कुछ भी नहीं किया जिससे कि गैलाप की एक ताजा रिपार्ट के मुताबिक ओबामा की स्वीकार्यता का आंकड़ा 2008 के 31 प्रतिशत के मुकाबले 13 प्रतिशत रह गयी है. इस गिरावट का कारण पैंथर्स पार्टी से जुड़े एक अश्वेत पत्रकार मुमिआ अबु जमाल का जेल में होना है जिन्हें फिलाडेल्फिया में एक गोरे पुलिस अधिकारी डेनियल फक्नर की हत्या के झूठे केस में फांसी की सज़ा सुनायी जा चुकी है. मुमिआ को अमेरिका में बेज़ुबानों की ज़बान का दर्जा प्राप्त है. हालांकि, जनदबाव के कारण ये फांसी अभी तक नहीं हो सकी है. अहम बात ये है कि अमेरिका जिस आर्थिक मंदी से जूझ रहा है, वहां बेरोजगारी ब़ रही है, इसके लिए ओबामा कोई जरूरी कदम तक नहीं उठा पाये. अब अगर वो ये कहें कि वो दुनिया को आर्थिक मंदी से मुक्त करना चाहते हैं तो ये बहुत ही हास्यास्पद लगता है. लेकिन इसके बावजूद भी हम तो हम हैं. विशुद्ध भारतीय! जिसके बारे में बहुत पहले साहित्य पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद ने कहा था कि ''हम भारतीय रेलगाड़ी के डब्बे हैं जिन्हें कोई इंजन खींचता है’’.
बुश हो या ओबामा अमेरिकी नीतियां हमेशा अमेरिकी हितों के रूप में कार्य करती हैं. यही कारण है कि अमेरिका के लिए दूसरे राष्ट्रों से सामरिक, आर्थिक समझौतों की ये नीतियां सिर्फ उन्हीं के लिए तर्क संगत लगती हैं. ऐसे में भारत अमेरिका के लिए एक बाजार है, जहां वो अपनी सौदागरी करना चाहता है, न कि साझेदारी. साझेदारी शब्द का प्रयोग तो कूटनीतिक है जिसे अमेरिका शाब्दिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता चला आ रहा है. आज भारत ये मानता है कि अमेरिका से हमारे रिश्ते इस सौदेबाजी से मजबूत होंगे, तो शायद गलत होगा, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संबंध अपनेअपने देशों के हितों पर निर्भर करता है. अमेरिका अपना हित साधने के लिए ही भारत, पाकिस्तान और अमेरिका के मजबूत रिश्तों की दुहाई देता है, क्योंकि वो जानता है कि जिस तरह से चीन की ताकत ब़ढ रही है, उसके मद्देनजर पाकिस्तान ऐसा देश है जहां से वो अपनी सैनिक गतिविधियों को अंजाम दे सकता है. यही कारण है कि ओबामा ने भारत यात्रा के दौरान पाकिस्तान के कामयाब राष्ट्र बनने की बात भारत के हित में की.

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