Saturday, November 20, 2010

खाप सरपंच

कानून और संविधान को
ठेंगे पर रखकर
फैसला सुनाते हो तुम
मानो किसी की जिंदगी 
तुम्हारे ही हाथ में हो जैसे।

नये हो तुम
मगर तुम्हारे लिबास
बर्बर परंपराओं के 
रूढ़ धागों से बने हैं,
तुम इन्हें नहीं उतारते
कहीं तुम आदमी न बन जाओ
तुम इन्हें नहीं फेंकते
कहीं तुम आधुनिक न हो जाओ
वो इसलिए कि फिर
पुरातनपंथी और रुढ़ियों की
बंजर हो रही तुम्हारी दुकान
कौन चलायेगा तुम्हारे बाद।

सगोत्र विवाह की सज़ा के नाम पर
उस लड़की के साथ
सामूहिक बलात्कार करते हो तुम
और ये भूल जाते हो
कि वो तुम्हारे ही गांव की
तुम्हारे ही गोत्र की 
तुम्हारी ही बहन है।

यह कैसी ठेकेदारी है
परंपरा की और धर्म की 
जहां किसी ग़लती की सज़ा 
सामूहिक बलात्कार के बाद 
सरे आम मौत है।

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