Friday, January 15, 2016

एक कवि के ‘मैं’ का ‘तुम’ हो जाना

   
स्त्री अस्मिता को लेकर भारत में शुरू हुए स्त्रीवादी आंदोलनों और महिला अधिकारों की
बहसों की शुरुआत के बाद से स्त्रीवादी कविता में उसके सरोकारों की भी बात होने लगी। हालांकि, उसके पहले भी स्त्रीवादी कविताएं लिखी जाती थीं, लेकिन तब उसमें स्त्री अधिकारों और सरोकारों की बातें कम होती थीं, स्त्री सौंदर्य और स्त्री प्रेम की बातें ज्यादा होती थीं। सामाजिक स्तर पर स्त्री अस्मिता के संघर्ष ने स्त्रीवादी लेखन की धार को और तेज किया, जिसके रास्ते से होकर खुद सामाजिक चेतना भी और मुखर हुई। यही वजह है कि समाज और राजनीति पर बात कहने के लिए अशोक कुमार पाण्डेय ने भी स्त्री संवेदनाओं का ही सहारा लिया और नाॅस्टेल्जिया में पहुंचकर कहने पर मजबूर हुए कि ‘मां कमजोर नहीं थी, बनायी गयी थी, मां की कमजोरी हम सबकी सुविधा थी।’ एक अरसा पहले तक एक स्त्री परिवार को चलाने और उसे संस्कारित करने के लिए जानी जाती थी, लेकिन अब मौजूदा स्त्रीवादिता का तकाजा उस पर अफसोस करता है कि काश बीते पैंतीस सालों से घर के सबसे उपेक्षित कोने में मथढक्की साड़ी के नीचे मां की डिग्रियों का पुलिंदा दबा न पड़ा होता, तो शायद मंजर ही कुछ और होता। मां रोटियों पर हस्ताक्षर करने के बजाय काॅलेज के रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर रही होतीं और पिता बिल्कुल भी न रोकते। मगर एक मां सिर्फ मां होती तो शायद वह सब कुछ कर जाती, लेकिन वह एक स्त्री है, जिसकी प्राथमिकता में उसका परिवार हो जाता है। आखिर इस प्राथमिकता का भान सिर्फ उसे ही क्यों है? किसने कहा कि वह अपनी प्राथमिकता तय कर ले? जाहिर है, एक स्त्री ने खुद तय नहीं किया होगा, बल्कि पुरुष सत्तात्मक सामाजिक-राजनीतिक संरचना के चलते वह ऐसा करने के लिए मजबूर हुई होगी। कवि ने स्त्री की इस मजबूरी को बखूबी पहचाना और उसके जीवनपर्यंत चलने वाले संघर्षों की हर उस संवेदना को अपनी कविता में पिरो कर उसे संबल दिया है। आउटलुक का लिंक यहां देखें-  http://www.outlookhindi.com/art-and-culture/review/book-review-by-vasim-akram-5912
शब्दारंभ प्रकाशन से प्रकाशित युवा कवि और लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की स्त्रीवादी कविताओं का यह ताजा संग्रह ‘प्रतीक्षा का रंग सांवला’ अशोक को कविता का नवल पुरुष बनाता है। ‘सिंदूर बनकर तुम्हारे सिर पर, सवार नहीं होना चाहता हूं, न डस लेना चाहता हूं, तुम्हारे कदमों की उड़ान को..., यह कवि का ऐसा एहसास से भरा बयान है, जो स्त्री अस्मिता के संघर्षों में उसका साथी बनता है और ऐसा विश्वास दिलाता है कि वह रिश्तों को बंधन की तरह नहीं, बल्कि स्वच्छंदता के रूप में स्वीकार करता है। पुरुष सत्तात्मक हमारे समाज की यह विडम्बना है कि उसके पास ऐसा घर है जिसमें स्त्रियों के लिए बंधनों की चार दीवारें तो होती हैं, पर उनमें उन्मुक्तता की एक अदद खिड़की तक नहीं होती। उन दीवारों में खिड़कियां बनाती अशोक की कविताओं में स्त्री जीवन का हर वह पहलू विद्यमान है, जो अस्मिताओं और आंदोलनों की बुनियाद है। 
इस संग्रह की ज्यादातर कविताओं में ग्राम्य जीवन की प्रतीक्षारत नाॅस्टेल्जिया है, जिसका रंग जाहिर है सांवला ही होना चाहिए और है भी। यह कवि के ग्रामीण आग्रहों का अपना रचा-बसा संसार है, जिसमें वह बांस की डलिया को प्लास्टिक की प्लेटों और रस-भूजा को चाय-नमकीन में बदलते देखता है। हमारे शहरी जीवन की भागदौड़ भरी जिंदगी इतनी तेजी से बदल रही है कि उसे थामना मुश्किल होता जा रहा है। लेकिन स्मृतियां इतनी शक्तिशाली होती हैं कि वे उन्हें थामे रखती हैं, और हम शहर में फ्लैट की बाॅल्कनी में बैठे-बैठे ही अपने गांव के खेत में हो रही बारिश का आनंद लेने लगते हैं। 
ऐसा लगता है कि कवि अनवरत एक तलाश में है। पारिवारिक उलझनों के बीच स्त्री प्रेम में पगी उस संवेदना के वजूद की तलाश, जो कविता रचती है। जहां तलाश खत्म हुई, कविता मर गयी, कवि मर गया। प्रेम कभी पूरा नहीं होता, और जब पूरा होता है, आमदी मर जाता है। किसी चीज का पूरा होना उसका खत्म होना है, जैसे जिंदगी का पूरा होना मौत को पा लेना है। इस तलाश में कवि खुद के वजूद को कहीं खो देता है, या यूं कहें कि उसके ‘मैं’ का ‘तुम’ हो जाता है- ‘तुम्हारी तरह होना चाहता हूं मैं, तुम्हारी भाषा में तुमसे बात करना चाहता हूं, तुम्हारी तरह स्पर्श करना चाहता हूं तुम्हें, तुम होकर पढ़ना चाहता हूं सारी किताबें, तुम्हें महसूसना चाहता हूं तुम्हारी तरह...’ खुद का वजूद खत्म कर तुम हो जाना बड़ा कठिन है इस दौर में। इस तरह तो पुरुष सत्ता की अट्टालिकाएं भरभरा कर गिर जायेंगी, लेकिन यह काम स्त्रीवादी कविताएं ही कर सकती हैं। स्त्री केंद्रित कविता का वाहक कवि ही कर सकता है। अशोक कुमार पाण्डेय कर सकते हैं।
अशोक की कुछ कविताएं कहीं-कहीं अपने पद्यामत्मकता से भटक कर गद्यात्मकता की ओर चली जाती हैं। ऐसा लगता है कि कवि के ख्याल अपनी पुख्तगी को पाने के लिए भागे चले जाते हैं। छोटी-छोटी बहर की जगह बड़े वाक्यों जैसी शैली में उभार लेती ये कविताएं कवि की संवेदनाओं को एक बड़ा फलक मुहैया कराती हैं। ‘पंखुड़ियां नोचकर गुलाब को कली में बदलती उस लड़की की आंखों में कोई कली नहीं थी, नुची हुई पंखुड़ियों की खामोशी थी... उसे प्रेम का नहीं प्रेमियों का इंतजार है जिनके लिए उसने नोची हैं दिन भर पंखुड़ियां...’ 
जिसने राह पूरी कर ली, जिसे मंजिल मिल गयी, उसका सफर तो खत्म हुआ। उसे फिर कहीं जाने की जरूरत नहीं। जीवन खत्म। संवेदना खत्म। कविता खत्म। लेकिन वहीं, अगर ‘जिन्हें जीवन की राहें पता हों ठीक-ठीक, उन्हें प्रेम की कोई राह पता नहीं होती...’ प्रेम के इस पता न होने की तलाश है, जो कवि में जिंदा है और वह आगे बढ़ने की कोशिश में बार-बार पीछे लौट आता है। लौटना तो पड़ेगा ही। जीने के लिए और, और भी प्रेम करने के लिए। 

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