Friday, May 17, 2019

तत्तापानी में पहाड़ों की मेजबानी का लुत्फ

पहाड़ों का सौंदर्य, बर्फ से ढकी उसकी वादी, दरख्तों व घरों पर ठहरे सफेद बर्फ के फाहों को देखकर और उसके खामोश संगीत को सुनकर मन करता है हम यहीं बस जायें. अगर आपको भी पहाड़ों से प्यार हो और उसकी खूबसूरती अपनी ओर खींचती हो, तो हिमाचल घूमने जा सकते हैं. हम ले चलते हैं आपको तत्तापानी के एक छोटे से सफर पर, जहां कुदरत की एक नायाब मिसाल मौजूद है.  

कुदरत ने इस जमीन पर ऐसी-ऐसी नायाब चीजें पैदा की हैं, जिन्हें देखकर दिल और दिमाग सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या सचमुच हम जमीन पर ही हैं. स्वर्ग की संज्ञा से नवाजा जानेवाला कश्मीर इसकी बेहतरीन मिसाल है. फूल-पौधे और बेशुमार जीवों के साथ पहाड़, नदियां, झील-झरने और जंगल की खूबसूरती हमारे अंतरमन तक को मोह लेती है. इस बार के पर्यटन में हम बात करेंगे पहाड़ों की, जिनकी ऊंचाई देखकर एक तरफ धैर्य पैदा होता है, तो दूसरी तरफ इतना ऊंचा उठने का, ताकि लोग हम पर गर्व कर सकें. पहाड़ों का प्रदेश हिमाचल प्रदेश में शिमला, कुल्लू-मनाली, मंडी, कुफरी, किन्नौर, धर्मशाला, कसौली, वीर जैसी जगहों पर कुदरत ने अपनी खासियतें छोड़ रखी है. सर्दी के दिनों में पहाड़ों पर जब आसमान से बर्फ के फुहारे पड़ते हैं, तो लगता है कुदरत हमारा स्वागत कर रही है. 

तत्तापानी में गर्म जलस्रोत 
पिछले दिनों मकर संक्रांति के मौके पर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला घूमने का मौका मिला था.
Hot Spring Resort- Tattapani
राजधानी शिमला से तकरीबन पचास किलोमीटर दूर मंडी जिले में पहाड़ों की कोख में सतलज नदी के किनारे बसी एक छोटी सी जगह है- तत्तापानी. यहां गर्म जलस्रोत और जलकुंड पाये जाते हैं, इसलिए इसे तत्तापानी कहा जाता है. पंजाबी भाषा में तत्ता का अर्थ गर्म होता है. पहाड़ों के सबसे निचले सिरे में जहां पानी बहुत ठंडा होता है, वहां कहीं-कहीं जमीन से अपने आप गर्म पानी निकलता रहता है. इन जलस्रोतों के पाये जाने से तत्तापानी न सिर्फ अपने धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह जगह वहां होनेवाले कई अद्भुत खेलों के लिए भी मशहूर है. इन जलस्रोतों से हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी गंध आती है. इन जलकुंडों के अपने होने का बहुत महत्व है कि हम कुदरत की गोद में ठंड के आलम में भी गर्म पानी से नहा सकते हैं. 

धर्म और खेल स्थल 
कुदरत जहां कहीं भी हमें चमत्कृत करती है, धर्म वहां फौरन अपना डेरा-डंडा डाल देता है. इसीलिए तत्तापानी के कुदरती जलस्रोतों को भी धार्मिक नजरिये से देखा जाता है. तकरीबन एक किलोमीटर में फैले तत्तापानी में हर साल पूर्णिमा को शानदार मेला लगता है और यहां के जलस्रोतों में नहाकर लोग कई बीमारियों से मुक्ति होने की कामना रखते हैं. राफ्टिंग जैसे खेलों का यहां सालाना आयोजन होता है. मकर संक्रांति के दिन हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर तत्तापानी में त्योहार मनाने आये थे और 'हॉट स्प्रिंग रिजॉर्ट' में ठहरे थे, जहां मैं ठहरा था. मुख्यमंत्री ने तत्तापानी के मशहूर नरसिंह मंदिर और शनि देव मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की और यहां लगे मेले का लुत्फ उठाया. जनता को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि तत्तापानी को पानी के खेलों के लिए एक बड़ा डेस्टिनेशन प्लेस बनाया जायेगा. 

हॉट स्प्रिंग रिजॉर्ट 
शिमला आइएसबीटी से बस या फिर कार से डेढ़-दो घंटे का सफर पूरा करके पहाड़ों की तलहटी में सर्पमार्ग बना रही सतलज के किनारे तत्तापानी पहुंचना होता है. वैसे तो वहां ठहरने के लिए कई छोटे-बड़े होटल हैं, लेकिन हॉट स्प्रिंग रिजॉर्ट में ठहरने का अपना एक राजसी आनंद है. यह रिजॉर्ट सिर्फ ठहरकर पहाड़ी रात का लुत्फ उठाने के लिए ही नहीं है, बल्कि यहां बोटिंग, फिशिंग, कैंपिंग और ट्रेकिंग-राफ्टिंग की भी पूरी व्यवस्था है. इस रिजॉर्ट की व्यवस्था में सबसे खास बात यह है कि यहां हॉट स्प्रिंग हेल्थ केयर सेंटर में आयुर्वेद, नेचुरोपैथी और योग के जरिये पंचकर्म उपचार की भी व्यवस्था है, जो एक से बढ़कर एक असाध्य रोगों को दूर करने में कारगर है. रिजॉर्ट में लोग ठहरकर सांध्य योग करते हैं और मिनरल से भरपूर हॉट स्प्रिंग बाथ में बने कुदरती जलकुंड में नहाते हैं. कहते हैं कि इस जलकुंड के सल्फर वाटर में नहाने से त्वचा संबंधी कई असाध्य रोग दूर हो जाते हैं. अभ्यंगम मसाज, सर्वांग स्वेदन स्टीम बाथ, शिरोधारा, नेत्र तर्पन, नस्यम, सुखनिद्रा, रिजुवेनेशन थेरेपी, बॉडी इम्युनाइजेशन, स्लिमिंग, ब्यूटी केयर, स्पाइन एंड नेक केयर, मनोशांति, नेवल सीटिंग और स्पा आदि से कुदरत की गोद में बिठाकर आयुर्वेदिक इलाज किया जाना अद्भुत एहसास लगता है. 

बेहतरीन मेजबानी
पहाड़ों के बीच बने हॉट स्प्रिंग रिजॉर्ट की मेजबानी बहुत शानदार है. वहां कोई इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि पाताल से जरा सा ऊपर पहाड़ों की तलहटी में सतलज नदी के किनारे कोई फाइव स्टार होटल जैसी व्यवस्था दे सकता है. सैर-सपाटे के ऐतबार से यह रिजॉर्ट अपने आप में एक डेस्टिनेशन है. इस रिजॉर्ट के प्रेमलाल रैना और उनके सहयोगी युवराज त्यागी से बात करने का भी एक अलग एहसास है. कहीं भी घूमने जाने के साथ वहां के जायके का भी अपना एक महत्व होता ही है. इस ऐतबार से हॉट स्प्रिंग रिजॉर्ट के ऑर्गेनिक रेस्टोरेंट के हिमाचली खाने का स्वाद तो शायद ही हम भूल पायें. सर्दियां चल रही हैं, पहाड़ों की मेजबानी का लुत्फ लेना हो, तो तत्तापानी आप जरूर जायें.

Monday, May 13, 2019

कितना ज़रूरी है समाज में एक फ्रॉड का होना

हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष राजेंद्र यादव ने एक दफा कहा था कि आनेवाला वक्त कहनियों का वक्त होगा. यह बात एक हद तक सच है. लेकिन यह बात भी सच है कि पिछले सत्तर सालों से मंटो की कहानियों की मांग और पढ़ने की ललक लगातार बनी ही रही है. उस दौर के कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, अहमद नदीम क़ासमी, इस्मत चुग़ताई और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे बेहतरीन लेखकों के होने के बावजूद सआदत हसन मंटो अकेला नज़र आते हैं, जिनकी कहानियां उर्दू ही नहीं, हिंदी के साथ ही कई भारतीय भाषाओं में छपती रही हैं. मकबूलियत के ऐतबार से देखें तो मंटो आज रूसी कथाकार और नाटककार चेखव, अमेरिकी लेखक ओ हेनरी और महान फ्रांसीसी कथाकार मोपासां जैसे विश्वविख्यात कहानीकारों की कतार में खड़े नज़र आते हैं और पूरे दक्षिण एशिया में फैज़ अहमद फैज़ के साथ ही मंटो भी सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं. मंटो की मकबूलियत यूं नहीं थी, उनकी कहानियां सीने में किसी नश्तर की तरह उतर जाती थीं और आज भी ऐसे ही उतर जाती हैं. मंटो कहते थे कि उन्होंने कहानियां नहीं लिखीं, बल्कि कहानियों ने उन्हें लिखा है.
Manto and his wife Safia
       मंटो का दौर कहानियां लिखने के लिहाज से एक अच्छा दौर था. सामाजिक विभीषिकाएं जब मानसिक संवेदनाओं को झिंझोड़ देती हैं, हर तरफ इंसानियत जब कत्लो-गारत हो रही होती है, तब उससे महसूस हुए दर्द को कागज पर उकेरना पड़ता है. जब देश में बंटवारे का माहौल बन रहा था, तब मंटो की आंखें बंटवारे के बाद होनेवाली विभीषिका को देख रही थीं. यही था मंटो का होना और यह मंटोइयत ही मंटो को अपने दौर से कहीं बहुत साल आगे की विभीषिका को देख पाने वाला कहानीकार बनाती है. मंटो ने भांप लिया था कि बंटवारा सिर्फ देशों का ही नहीं होगा, बल्कि इंसानी एहसास-ओ-जज्बात का भी बंटवारा होगा, जिस पर दंगे-फसादात, खून-खराबे और औरतों पर जुल्म जैसी जघन्यता को अंजाम दिया जाएगा. अपने ज़माने से सौ साल आगे चलने वाला लेखक थे मंटो और उनकी कहानियां इस बात की पूरी तरह तस्दीक भी करती हैं. 
       मंटो नहीं चाहते थे कि दंगों के बाद कोई यह कहे कि हज़ारों हिंदू मारे गए या हज़ारों मुसलमान मारे गए. हज़ारों इंसानों का मारा जाना, वह भी हज़ारों लोगों का बेवजह मारा जाना मंटो के लिए एक बड़ी त्रासदी है. इस सोच के ऐतबार से देखें, तो मंटो अपने वक्त से कहीं बहुत आधुनिक थे. बतौर कहानीकार मंटो ने सच और कल्पना के बीच की खाई को अपनी रचनात्मक विलक्षणता से भर दिया है और वहां इंसान की पाश्विकता की हदें रख दी हैं, जिसे देख-पढ़कर हम मानवीय मूल्यों का पैमाना तैयार कर सकते हैं. ज़ाहिर है, एक उम्दा रचनाकार बिंबों की तलाश नहीं करता, बल्कि जड़ों की तलाश करता है. मंटो की कहानियों की जड़ में वह नंगा समाज था, जिसके कपड़े उतारने की मंटो ने कभी कोई ज़हमत ही नहीं की.  
       मंटो की कहानियों में सबसे ज्यादा बंटवारे की कहानियां हैं. उस वक्त देश के बंटवारे की बात थी और आज देश के भीतर लोगों के दिलों में खाई पैदा की जा रही है. मौजूदा माहौल बंटवारे की फिज़ा से कहीं ज्यादा खतरनाक है और इसीलिए आज मंटो की प्रासंगिकता ज्यादा है. उनकी कहानियां समाज की सड़ी-गली और बेहद गंदी व्यवस्था में मौजूद जिल्लतों की कहानियां हैं, जिनमें इंसानियत को तलाशने की जद्दोजहद है. आज जिस तरह से देश में फासीज्म ने अपना रुख अख्तियार किया है, धार्मिक उन्माद ने अपना फन फैलाया है, सांप्रदायिक रंजिशें राज करने की नीति बन गयी हैं, बलात्कार के वीडियो वाइरल हो रहे हैं, ऐसे में मंटो का पुनर्पाठ ज़रूरी हो जाता है. आज समकालीन साहित्यकारों, लेखकों और कहानीकारों में न तो लेखन की ऐसी क्षमता है और न हिम्मत ही है. और जिन कुछ लेखकों की जुबान से विरोध के स्वर उठ भी रहे हैं, सत्ता उन्हें किसी न किसी तरह कुचल दे रही है. 
       11 मई, 1912 को पंजाब के समराला में जन्मे सआदत हसन मंटो का उर्दू कहानियों में आज भी कोई सानी नहीं है. वह एक जीवट रचनाकार थे. मंटो के बगैर उर्दू कहानी पर कोई बात करना बेमानी है. यह बात अलग है कि मंटो ने दो बार फेल होकर इंटरमीडिएट का इम्तहान थर्ड डिवीजन से पास किया था और मजे की बात यह कि उसमें भी उर्दू के पेपर में नाकाम रहे थे. मंटो ने पहली कहानी 'तमाशा' नाम से लिखी थी, लेकिन वह किसी और नाम से छपी थी. ज़ाहिर है, उन्हें इस बात का अंदाज़ा था कि उस पर विवाद होगा. खुद को फ्रॉड कहने वाले मंटो शब्दों के पीछे ऐसे भागते थे, जैसे कोई तितली पकड़ने भागता हो. नाकाबिले-बरदाश्त ज़माने से वह इतना नाराज़ थे कि वह बात-बात पर नाराज़ हो जाते थे. उनकी नाराज़गी कागज पर उतरती थी, तो समाज नंगा हो जाता था. उनकी कहानियों को पढ़कर यही लगता है कि धर्म-जाति के उन्माद में लिपटे हमारे जैसे संकीर्ण समाज में मंटो जैसे फ्रॉड का होना आज कितना मायने रखता है.
        मंटो हमेशा अपनी कहानियों में या तो एक किरदार बनकर नज़र आते हैं, या फिर दूर से खड़ा कोई गवाह बनकर. वह चाहे 'टोबाटेक सिंह' हो या फिर 'मोज़ेल' या कोई अन्य कहानी. 'ठंडा गोश्त', 'काली सलवार', 'बू', 'ब्लाउज', 'खोल दो' और 'धुआं' जैसी कहानियों ने तो समाज को झिंझोड़कर रख दिया और मंटो पर अश्लील होने के इल्ज़ाम बढ़ने लगे. समय-समय पर इन कहानियों पर पाबंदियों की मांग भी उठी और उन्हें अदालत तक में घसीटा गया. मंटो छह बार अदालत गए, तीन बार आज़ादी से पहले और तीन बार पाकिस्तान बनने के बाद, लेकिन कोई भी मामला साबित नहीं हो सका. 'ठंडा गोश्त', 'काली सलवार' और 'बू', ये मंटो की तीन ऐसी कहानियां हैं, जिन पर पाबंदियां भी लगीं. इन पाबंदियों से उनकी कहानियां और भी दूर-दूर तक पहुंची. मंटो पर लगे आरोपों और पाबंदियों पर मंटो की रिश्तेदार और इतिहासकार आयशा जलाल कहती हैं-  मंटो के लिखे हुए अल्फाज़ इतिहास में दर्ज होने की कुव्वत रखते हैं.  
        मंटो पर बेशुमार इल्ज़ाम हैं. अश्लील कहानियां लिखने से लेकर बंटवारे का विरोध करते हुए भी भारत से पाकिस्तान चले जाने तक. मंटो उर्दू अदब के अकेले अफसानानिगार होंगे, जिनकी शोहरत को लेकर उनकी बदनामी को वजह बताया गया. यह सही बात नहीं है. उनकी कहानियों में सच्चाई इतनी कड़वी होती है कि इंसानी किरदार नंगे नज़र आते हैं. ज़ाहिर है, एक नंगा समाज ही मंटो पर अश्लील लिखने का आरोप लगा सकता है. आज के समाज में अगर मंटो होते तो गौरी लंकेश या कुलबुर्गी की तरह मार दिए जाते. तो क्‍या हमारा वर्तमान एक त्रासद से भरे समय के बोझ तले दबा हुआ नहीं है? 
      जहां तक उनके पाकिस्तान चले जाने की बात है, तो यह आरोप लगाने से पहले उस वक्त के हालात को देखना चाहिए. बंटवारे के बाद सांप्रदायिकता की आग चारों तरफ फैली हुई थी, जिसका शिकार खुद मंटो जैसे लेखक को भी होना था, हुआ भी. मंटो के परिवार की आर्थिक तंगी बढ़ती जा रही थी. लोग एक-दूसरे की मदद करना तक पसंद नहीं कर रहे थे. तो एक दिन उनकी बीवी ने कहा- 'जो लोग आपके हाथ से एक गिलास पानी नहीं पी सकते, वे आपको रोटी कैसे दे सकते हैं? आपको आपका बुनियादी हक कैसे दे सकते हैं?' यह सांप्रदायिकता का दंश ही था, जिसका मंटो पर असर हुआ और वे दुखी मन से हिंदुस्तान को अपने दिल में लेकर पाकिस्तान चले गए और लाहौर में बस गए. उनके पाकिस्तान जाने के बाद एक पाकिस्तानी नक्काद (आलोचक) हसन असगरी ने पूरी कोशिश की कि मंटो जैसे अवामी लेखक को पाकिस्तानी बना दिया जाए. इसी का नतीजा था कि लोग मंटो पर पाकिस्तानी होने के आरोप लगाने लगे.  
        18 जनवरी, 1955 को उर्दू का महान कहानीकार सआदत हसन इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन हमेशा के लिए मंटो को छोड़ गए, जिसे न तब किसी से डर था, न अब किसी से डर है. महज 42 साल की छोटी सी जिंदगी में मंटो ने 300 से ज्यादा कहानियां लिखीं. इसके अलावा भी मंटो ने रेडियो और फिल्मों के लिए लिखा और अनगिनत लेख भी लिखे. लेकिन, यह सोचकर बेहद हैरत होती है कि इतना लिख्खाड़ आदमी कभी कोई नॉवेल नहीं लिखा. खैर, अपनी कहानियों में मंटो आज भी ज़िंदा है और अब फिर कोई मंटो नहीं पैदा होगा. 

Wednesday, October 3, 2018

स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए सिनेमा का शानदार दौर

अपनी फिल्म ‘उन्माद’ को लेकर एक्टर और फिल्मकार शाहिद कबीर इन दिनों चर्चा में हैं. दिल्ली के जामिया से सिनेमा में मास्टर डिग्री हासिल करनेवाले सहारनपुर के शाहिद कबीर लंबे समय से थियेटर करते आ रहे हैं और ‘इप्टा’ से जुड़े रहे हैं. बतौर निर्देशक ‘उन्माद’ उनकी पहली फिल्म है. थियेटर और सिनेमा के फर्क के साथ मौजूदा दौर की तकनीक और सिनेमाई स्वतंत्रता को भारतीय सिनेमा के लिए बेहतर माननेवाले शाहिद से मैंने लंबी बातचीत की... यह बातचीत प्रभात खबर में छपी है, जिसका लिंक इस पोस्ट के नीचे है। 


बतौर निर्देशक पहली फिल्म के रूप में एक संवेदनशील विषय पर ही ‘उन्माद’ क्यों?
Shahid Kabeer
हम जिस माहौल में जी रहे होते हैं, उसमें अगर आप कुछ ज्यादा संवेदनशील इंसान हैं, तो आपको संवेदनशील विषय ही पसंद आयेगा. मौजूदा माहौल को मैं जिस नजदीकी से देख रहा हूं, उसका परिणाम है ‘उन्माद’. जहां तक पहली फिल्म के रूप में ‘उन्माद’ ही क्यों का सवाल है, तो यह थियेटर से मेरा जुड़ाव का परिणाम कह सकते हैं. मैं एक लंबे अरसे से थियेटर करता रहा हूं. थियेटर में नाटकों के विषय बहुत संवेदनशीलता और गहराई लिये हुए होते हैं, क्योंकि थियेटर करनेवाले एक सीमित दर्शक के बीच अपनी प्रस्तुतियां देते हैं. ये दर्शक भी संवेदनशील होते हैं, इसलिए इसमें बेवजह का मनोरंजन नहीं रखा जा सकता. हां अगर रखा जाता है, तो उसमें भी सटायर का पुट ज्यादा होता है.
‘उन्माद’ को थियेटर प्रस्तुति दी जा सकती थी, बजाय सिनेमा के, क्योंकि यह थियेटर मटीरियल ज्यादा है. वहीं सिनेमा ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन (एंटरटेनमेंट) को लेकर चलता है.
हां, लेकिन मेरे ख्याल में इसका दूसरा पक्ष भी है. जाहिर है, थियेटर की पहुंच छोटी है और सिनेमा की पहुंच बड़ी है. अपना ख्याल ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए सिनेमा ही अच्छा माध्यम हो सकता है, बजाय थियेटर के. इसलिए मैंने ‘उन्माद’ को सिनेमा की शक्ल दी, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इस संवेदनशील विषय का संदेश पहुंच सके. जहां तक सिनेमा में मनाेरंजन का होना जरूरी है, यह बात सही है, लेकिन यह भी सही है कि सिनेमा ने बहुत से गंभीर विषयों को ज्यादातर लोगों तक पहुंचाया है. इसलिए मैंने माध्यम के रूप में फिल्म का रास्ता चुना, क्योंकि ज्यादातर लोग फिल्में ही देखते हैं. हालांकि, सिनेमा की अपनी जो प्रतिबद्धताएं होती हैं, उसे हमने ‘उन्माद’ में पूरा किया है, मसलन ‘उन्माद’ के जरिये हमने मीनिंगफुल एंटरटेनमेंट पेश किया है.
‘उन्माद’ का संदेश क्या है? मुझे लगता है कि यह एक राजनीतिक फिल्म है. क्या ऐसा है? 
भारत एक खूबसूरत लोकतंत्र है. यहां किसी गुनहगार को सजा देने के लिए बेहतर कानूनी प्रावधान हैं. उसके खिलाफ एफआई हो, फिर केस चले, फिर सारी सुनवाई के बाद सबूतों के आधार पर अदालत से फैसला आये. लेकिन, पिछले कुछ साल को देखें, तो यही नजर आया है कि अब जनता ही सड़क पर किसी को सजा देने लगी है. जनता का इस तरह हिंसक हाेना हमारे लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि इससे देश की प्रगति रुकती है. उन्माद का संदेश यही है कि हमें कानून अपने हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं है, सजा देने का काम अदालत का है. अब इस संदेश को बड़े पैमाने पर ले जाने के लिए फिल्म ही जरिया हो सकता है. जहां तक इसके राजनीतिक फिल्म होने का सवाल है, तो यह दर्शकों पर निर्भर करता है कि वे इसे किस नजरिये से देखते हैं.
थियेटर से फिल्म में आने में कैसी और कितनी मुश्किलें आयीं? 
ज्यादा मुश्किलें नहीं आयीं, क्योंकि सिनेमा के बारे में जामिया से मैंने पढ़ाई की है. मैं इन बारीकियों को जानता हूं कि थियेटर और सिनेमा के बीच क्या फर्क है.
मैंने यह सवाल इसलिए पूछा, क्योंकि आपकी फिल्म में थियेटर की झलक ज्यादा नजर आती है. क्या इससे बचने की कोई कोशिश हुई?
जिस तरह का विषय है, उसको इसी तरीके से फिल्म में ढाला जा सकता था, इसलिए ऐसा लग रहा है आपको. बचने की कोशिश का भी कोई सवाल नहीं था. दरअसल, हमारा पूरा सिनेमा ही पारसी थियेटर से आया है. इसलिए वास्तविक विषयों पर फिल्में थियेट्रिकल लगने लगती हैं.
यहां वास्तविक विषयों पर फिल्में बनती रही हैं, लेकिन उनका ट्रिटमेंट ज्यादातर सिनेमेटिक ही रहा है, क्योंकि एंटरटेनमेंट की दरकार जो होती है.
हां बात सही है, लेकिन हर निर्देशक का अपना एक तरीका होता है कि वह अपनी फिल्म को किस तरह से बनाये. मेरी कोशिश यह है कि मेरी फिल्म देखकर लोग यह कहें कि मैं तो फलां से प्रभावित लगता हूं. इसलिए मेरा प्रयोग कुछ अलहदा हो सकता है और भविष्य में भी अपनी सारी फिल्मों के साथ ऐसा करते रहने की कोशिश करूंगा. पहली बात तो यह कि मैं नहीं चाहता कि मुझ पर किसी की छाप नजर आये, और दूसरी बात यह है कि कहानी की जरूरत क्या है, इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर ही काम करना है.
अक्सर पहली बनाने से पहले फिल्मकार सोचता है कि उसकी पहली फिल्म सफल हो, क्योंकि एक तरफ पैसा मायने रखता है, तो दूसरी तरफ फिल्मकार का भविष्य क्या होगा, यह भी देखना होता है. क्या यह सब था आपके जेहन में? 
मेरे जेहन में सिर्फ एक ही चीज थी कि शुरुआत बिजनस के उद्देश्य से नहीं करनी है, बल्कि फिल्म का संदेश ज्यादातर लोगों तक पहुंचे, यह सोचा था. हालांकि, मुझे पता नहीं था कि यह सब कैसे होगा, लेकिन बनने की प्रक्रिया के दौरान सब होता गया. जहां तक पहली फिल्म सफल हो, इसका सवाल है, तो मैं समझता हूं कि भारत में अब सिनेमा का मूड बदल रहा है. बड़ी-बड़ी फिल्में भी असफल हो रही हैं, लेकिन वहीं कुछ छोटी फिल्में शानदार सफलता हासिल कर रही हैं. अब नये फिल्मकारों के पास ढेरों मौके हैं कि वे हर तरह के विषयों पर फिल्में बनायें और दर्शकों को ज्यादा दे सकें. ‘उन्माद’ जैसी फिल्मों को कॉरपोरेट सपोर्ट नहीं मिल पाता है, लेकिन मुझे मिला, क्योंकि मुझे उम्मीद थी कि हमने अच्छा काम किया है, तो सभी पसंद करेंगे.
पहली फिल्म के बाद फिल्मकार के रूप में आपकी जो पहचान बनी है, उसमें आगे क्या-क्या शामिल करना है?
हर तरह की फिल्में बनाने का इरादा है. वह कॉमेडी भी हो सकती है और इश्क-प्यार-मुहब्बत भी. लीक से हटकर भी हो सकती है और मुख्यधारा की फिल्म भी. लेकिन, इन सबमें एक केंद्रीय भाव रखने की कोशिश होगी कि मीनिंगफुल फिल्म हो, न कि माइंडनेस फिल्म.
मौजूदा दौर में किस फिल्मकार ने आपको ज्यादा प्रभावित किया है? 
वैसे तो सभी नये फिल्मकार अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन लीक से हटकर काम करनेवालों में मुझे अनुराग कश्यप बहुत पसंद हैं. सबसे अच्छी बात यह है कि एक स्वतंत्र फिल्मकार के लिए यह बहुत शानदार दौर है. नयी तकनीकों ने छोटी-छोटी कोशिशों से बनी शानदार फिल्मों काे बहुत दूर तक पहुंचा दिया है, जो पहले संभव नहीं हो पाता था. सिनेमाई स्वतंत्रता का दायरा तेजी से बढ़ रहा है. सिनेमा का यह नया और स्वतंत्र दौर जरूर बाॅलीवुड के सफर में एक नया आयाम स्थापित करेगा, मुझे इसकी पूरी उम्मीद है.

http://epaper.prabhatkhabar.com/1837297/Surbhi/Surbhi#page/4/2

https://www.prabhatkhabar.com/news/bollywood/shahid-kabir-will-be-debut-with-unmaad-in-bollywood/1211128.html

Friday, June 15, 2018

ईद-उल-फित्र की अहमियत

मजहब-ए-इस्लाम में सिर्फ दो त्योहारों का ही ज़िक्र मिलता है- ईद-उल-फित्र और ईद-उल-अज़हा। इसके अलावा सालभर में बाकी जो दूसरे त्योहार मुसलमान मनाते हैं, वे सब अलग-अलग मुल्कों में उनकी अपनी-अपनी तहज़ीब और संस्कृतियों का हिस्साभर होते हैं।
       चांद के हिसाब से चलने वाले हिज्री कैलेंडर के नौवें महीने ’’रमज़ान’’ के पूरे होने के बाद दसवें महीने ’’शव्वाल’’ की पहली तारीख को ईद-उल-फित्र का त्योहार मनाया जाता है। और इसके ठीक सत्तर दिन बाद ईद-उल-अज़हा का त्योहार आता है। ईद का दिन एक प्रकार से शुक्राने का दिन है कि अल्लाह ने महीने भर के रोज़ों के बाद अपने बंदों पर यह करम फरमाया है कि वे सभी इकट्ठा होकर अल्लाह का शुक्र अदा कर सकें और यह अहद कर सकें कि जिस तरह से पूरे महीने वे तमाम बुराइयों से दूर रहे, उसी तरह से उनकी बाकी ज़िंदगी भी अल्लाह की रहमत के साये में गुज़रे और बरकतों की बेशुमार बारिश हो।
       हिज्री कैलेंडर के बारे में इस्लाम के दूसरे खलीफा हज़रत उमर इब्न अल-खत्ताब ने पहली दफा सन 638 में बताया था। हालांकि, हिज्री कैलेंडर की शुरुआत उससे तकरीबन डेढ़ दशक पहले 622 में ही हो चुकी थी। इसे इस्लामी कैलेंडर भी कहा जाता है। हिज्री कैलेंडर का पहला महीना ’मुहर्रम’ है और आखिरी महीना ’जिलहिजा’ है। 16 जुलाई, 622 को हिज्री कैलेंडर के पहले साल के पहले महीने मुहर्रम की पहली तारीख थी। यहीं से हिज्री कैलेंडर यानी इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है। हिज्री कैलेंडर के दिन-महीने-साल सभी चांद की चाल के हिसाब से तय होते हैं। इसमें हर महीने में 29.53 दिन होते हैं और इस ऐतबार से एक साल में कुल 354.36 दिन होते हैं। यही वजह है कि अंग्रेजी साल (जनवरी से दिसंबर) के मुकाबले हिज्री कैलेंडर का साल तकरीबन दस-ग्यारह दिन छोटा होता है।
       ईद के माने होते हैं- खुशी। एक महीने रमज़ान के रोज़े रखने के बाद अल्लाह ने रोज़ेदारों के लिए यह इंतज़ाम किया है कि पूरे एक महीने तक दिन में हर तरह के ज़ायके और पानी से महरूम बंदों को खुशी का एक तोहफा मिले, ताकि वे आपस में प्यार-मुहब्बत के साथ खुशियां मना सकें। ईद का त्योहार इस्लामी ज़िंदगी के दो अलग-अलग पहलुओं को हमारे सामने रखता है, जिसे हम सभी को समझना चाहिए। इस्लाम के मुताबिक, हमारी ज़िंदगी की दो मियाद (कालचक्र) है। पहली मियाद, हमारे पैदा होने से लेकर मौत तक की हमारी ज़िंदगी है, और दूसरी मियाद, मौत के बाद की हमारी दूसरी ज़िंदगी है, जिसे आखिरत यानी हमेशा-हमेश की ज़िंदगी कहते हैं। अगर हम अपनी पहली ज़िंदगी में अल्लाह के बताए रास्ते पर चलते हैं, तो दूसरी ज़िंदगी में हमें उसका इनाम मिलेगा। इस्लाम की यही सीख रमज़ान और ईद में देखने को मिलती है। रमज़ान का महीना हमारी पहली ज़िंदगी की तरह है, जिसमें भूख और प्यास की शिद्दत लिये जद्दो-जहद के साथ जीना है, तो वहीं ईद हमारी दूसरी ज़िंदगी के शक्ल में एक इनाम है। यानी तस्दीक के साथ ईद एक अलामत है कि अल्लाह के बताए रास्ते पर चलने का इनाम खुशियों से भरा होता है।
       एक रवायत में आता है कि शव्वाल महीने का चांद (जिसे ईद का चांद भी कहते हैं) देखकर इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने कहा- ’’ऐ अल्लाह! इस चांद को अमन का चांद बना दे।’’ इसका माना यह हुआ कि ईद अमन की अलामत है, शांति की पहचान है और हमारे जम्हूरी समाज में इसकी बड़ी ही अहमियत है। इस्लामी तारीख में यह दर्ज है कि हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने सन 624 में हुए जंग-ए-बदर के बाद पहली दफा ईद मनायी थी और तब से ही ईद मनाने की यह इस्लामी रवायत आज तक कायम है। जंग के बाद अरबी समाज में शांति और सामुदायिक सौहार्द के लिए ही ईद-मिलन की बुनियाद पड़ी। ईद-मिलन जैसी शब्दावली से यह बात समझी जा सकती है कि समाज में भाईचारा बढ़ाने के लिए ईद का बड़ा ही अहम किरदार है, जहां दुश्मन को माफ करके उससे गले मिलने तक के वाकये नज़र आते हैं। दरअसल, ईद के दिन दुश्मन भी जब एक-दूसरे से हमकलाम होकर एक-दूसरे को मुबारकबाद और तोहफे देते हैं, तो इससे एक भाईचारे से भरा राबता यानी संवाद कायम होता है और यही संवाद हमारे समाज में शांति और सौहार्द का नेतृत्व करता है।
       ज़ाहिर है, रोज़े पूरे होने के बाद ईद का दिन आता है। रमज़ान और ईद ये दोनों इस्लाम की दो खासियतों की तरफ इशारा करते हैं। एक रवायत में आता है कि हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने कहा था- ’’रोज़ों का महीना सब्र का महीना है।’’ यानी इस सब्र का मीठा फल ईद है। ज़ाहिर है, रमज़ान जैसे सब्र का फल तो ईद की खुशी ही हो सकती है। यानी एक तरफ खाने-पीने से मुंह मोड़कर सब्र रखते हुए अल्लाह की इबादत में दिन गुज़ारना ही रमज़ान का मकसद है, तो वहीं दूसरी तरफ ईद की शक्ल में अल्लाह की तरफ से मिलने वाला एक नायाब तोहफा है। कुरान में अल्लाह फरमाता है- ’’ऐ फरिश्तों! तुम इस बात की गवाही देना कि मैंने यह तय किया है कि आखिरत में रोज़ेदारों के लिए जन्नत ही ठिकाना होगा।’’ इसलिए सभी मुसलमान रमज़ान के रोज़े रखकर अल्लाह से अपनी मुहब्बत का इज़हार करते हैं और रमज़ान के तीन अशरों (रहमत, मगफ़िरत और निजात) में खूब दुआएं करते हैं कि अल्लाह उनके सारे गुनाहों को माफ़ फ़रमाए। तमाम गुनाहों की माफ़ी के साथ रमज़ान का महीना दुआ की मक़बूलियत का भी महीना है।
       ईद के दिन सुबह में नये-नये कपड़े पहनकर मुसलमान कोई मीठी चीज़ खाकर ईद की दो रक़ात नमाज़ अदा करने के लिए घर से ईदगाह की तरफ जाते हैं। ईद की नमाज़ से पहले हर मुसलमान मर्द और औरत पर यह फर्ज़ है कि वे सदका-फितरा अदा करें और ग़रीबों को दें, ताकि ग़रीब और ज़रूरतमंद लोग भी सबके साथ ईद की खुशियां मना सकें। यानी ईद वह त्योहार है, जो समाज में हर इंसान के बराबर होने की तस्दीक करता है, ताकि कोई किसी को ऊंच-नीच न समझे और एक साथ ईद की खुशी में शामिल होकर अल्लाह की रहमत का हक़दार बने।
       ईद की नमाज़ ‘‘दोगाना’’ के बाद यह दुआ की जाती है कि समाज में मानवता का बोलबाला बढ़े, शांति, सौहार्द और आध्यात्मिकता का विकास हो और सबकी ज़िंदगी में हमेशा ईद जैसी खुशी शामिल रहे। ईद की नमाज़ के बाद सभी एक-दूसरे को बधाइयां देते हैं, अपने घर दावत पे बुलाते हैं, दूसरे के घर भी जाते हैं, अच्छी-अच्छी चीज़ें खिलाते हैं और दुआएं करते हैं कि हम सभी पर अल्लाह की रहमत बरकरार रहे।
       सामान्यतः ईद-उल-फित्र को मीठी ईद भी कहा जाता है, जिसमें सबसे ज़्यादा एहतमाम सेवइयों का होता है। हालांकि, इस्लामी नज़रिये से सेवई या ईद के दिन का खान-पान वगैरह इस्लाम का हिस्सा नहीं है, लेकिन हां, यह समाज, संस्कृति और जगहों की अपनी तहज़ीब का हिस्सा है। जब हम किसी को मीठी चीज़ खिलाते हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हम खुशी और प्यार बांटते हैं। ईद का मतलब भी यही है कि समाज में ज़्यादा से ज़्यादा खुशी, प्यार और सौहार्द को बढ़ावा दिया जाए। आप सब भी ईद की खुशियों को मिल-जुलकर एक-दूसरे के साथ मुहब्बत से मनाएं, ताकि मुल्क में अमन का माहौल बने और समाज में सौहार्द को बढ़ावा मिले।
ईद मुबारक!

Tuesday, February 28, 2017

उर्दू की एक नयी तहरीक है जश्न-ए-रेख़्ता

उर्दू और फारसी के उस्ताद शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने ख़ुदा-ए-सुख़न मीर के बारे में एक दफा कहा था- ‘‘रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं ग़ालिब, कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था.’’ यह तो मीर की शायरी और उनके अदबी मेयार की तारीफ़ थी. लेकिन, गुज़िश्ता वक्तों में उर्दू पढ़ने-लिखने के कम होते जिस ज़ौक के दौर से हम दो-चार हुए हैं और शायद अब भी हो रहे हैं, उस ऐतबार से हम यह कह सकते हैं कि आज उर्दू अदब की हिफ़ाज़त और उसे फ़रोग देने वाले रेख़्ता फाउंडेशन (rekhta.org) के बानी (फाउंडर) और सरबराह जनाब संजीव सराफ अपने मेयार में ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ के उस्ताद हैं. खुद संजीव सराफ की ज़ुबान में- ‘‘उर्दू शायरी से मेरी मुहब्बत का एक हसीन-ओ-तरीन नज़राना है रेख़्ता.’’ इस बयान से ज़ाहिर है, एक गैर-उर्दू तरबियत से वास्ता रखने वाले संजीव सराफ की उर्दू से मुहब्बत ही है, जिसके चलते उन्होंने साल 2013 में ‘‘ऑनलाइन रेख़्ता’’ की नींव रखी. सचमुच, मुहब्बत की ज़बान से किसी को ऐसी ही मुहब्बत हो सकती है कि जिससे एक तहरीक पैदा हो, ताकि आने वाली पीढ़ियां यह न कह सकें कि उन्हें अदबी रहनुमाई नहीं मिली. 
रेख़्ता फाउंडेशन के बैनर तले शुरू हुए जश्न-ए-रेख़्ता प्रोग्राम का यह तीसरा साल था जब दिल्ली के इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स में 17 से 19 फरवरी तक चले उर्दू के इस जश्न में उर्दू अदब की कई नामचीन हस्तियां और सिनेमाई दुनिया की कुछ शख्सियतें शामिल हुईं और उनने लोगों में उर्दू के शौक-व-ज़ौक को बढ़ाने की अपनी-अपनी पुरअसर कोशिशें कीं. इस जश्न में मुशायरा हो या क़व्वाली, शायरी की तहज़ीब हो या शाम-ए-ग़ज़ल, अदबी बहसें हो या दास्तानगोई, बैतबाजी हो या थिएटर प्ले, इन तमाम प्रोग्रामों में लोगों की बढ़-चढ़कर शिरकत इस बात की तस्दीक कर रही थी कि ऐसी तहरीकों की आज कितनी ज़रूरत है. लोगों की इस शिरकत के बाद भी चंद बुक स्टॉलों की तरफ उनका भागना और यह पूछना कि उर्दू सिखाने वाली कोई आसान सी किताब हो तो दीजिए, यह जश्न-ए-रेख़्ता की कामयाबी की तरफ एक इशारा है. 
हिंदुस्तान में उर्दू शे’र-ओ-शायरी और अदब की रवायत का सिलसिला तकरीबन चार सदियों से मुसलसल जारी है. इन चार सदियों के दौरान इस रवायत को तरक्की देने के लिए बहुत सी तहरीकें हमारे सामने आयीं और उर्दू के बहुत से अदीबों-शायरों ने इसे बढ़ाने-फैलाने की अपनी ईमानदार कोशिशें भी कीं. उन्हीं कोशिशों में अब एक नाम रेख़्ता फउंडेशन का भी जुड़ गया है और सच्चे मायनों में यह कहा जा सकता है कि अब जश्न-ए-रेख़्ता भी उर्दू ज़बान की एक नयी तहरीक का नाम है. इसका मकसद वही है, जो गुज़िश्ता चार सदियों के दौरान तमाम तहरीकों का रहा कि किस तरह से उर्दू ज़बान को और इसकी अदबी रवायत को दूर-दूर तक फैलायी जा सके. हालांकि, हर तहरीक की कामयाबी का अपना-अपना पैमाना होता है और यहां जश्न-ए-रेख़्ता की कामयाबी को किस पैमाने में डाला जाए, यह अभी तय होना बाकी है. लेकिन, इतना ज़रूर है कि आज हम जिस दौर में रह रहे हैं, जब कई बेहतरीन ज़बानें दम तोड़ चुकी हैं, कई अब भी दम तोड़ रही हैं और कुछ हद तक उर्दू के बारे में भी यही कहा जाता रहा है कि अब कम लोग ही उर्दू पढ़ते-लिखते-बोलते हैं, ऐसे में रेख़्ता फाउंडेशन की यह कोशिश और इस कोशिश के साथ चलने वाले लोगों को देखकर यही लगता है कि रेख़्ता न सिर्फ एक गैर-मामूली काम कर रहा है बल्कि उर्दू को एक नए मुकाम पर पहुंचाने की कोशिश में है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की ज़ुबान मीठी हो सके.
हम उस दौर के भी गवाह रहे हैं जब उर्दू को या तो मदरसों की चौहद्दी में बांध दिया गया था या फिर महज़ एक मज़हब की ज़बान कहकर इससे दूरी बनाने की कोशिशें भी हुईं. मामला रोज़गार का था, इसलिए उर्दू की तरक्की पसंद तहरीकें ठहर सी गयी थीं. उर्दू जैसी दिल में उतर जाने वाली ज़बान के साथ अगर ऐसा मसला है, तो फिर यह फिक्र करने वाली बात है कि बाक़ी कमज़ोर ज़बानों का क्या होगा. इस ऐतबार से हम मश्कूर हैं उन तमाम ग़ज़ल गायकों और हिंदी सिनेमा के उर्दू ज़बान वालों के, जिन्होंने हमारे दिलों में उर्दू के ज़ौक और मुहब्बत को ज़िंदा रखा. और अब हमें मश्कूर होना होगा रेख़्ता का भी, जिसने उर्दू के ज़ौक को और बढ़ा दिया है. 
उर्दू अदब में शे’र-ओ-शायरी को ही ज़्यादा मक़बूलियत हासिल है. ज़ाहिर है, इसे तरक्की देने के लिए सिर्फ शे’र लिखना-छपाना या फिर सुनना-सुनाना ही काफी नहीं है, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि शे’र लिखने-समझने के तौर-तरीके क्या हैं, इसका लोगों को इल्म हो. इसका ज़िम्मा भी रेख़्ता ने ही उठाया है और अपनी वेबसाइट के ज़रिए हर लफ़्ज़ के मानी, नुक्ता और इजाफत का सही-सही इस्तेमाल के साथ ही उर्दू का पूरा ग्रामर पेश करके उर्दू समझने-बोलने के लिए एक नया स्कूल खोला है. आप भी इस स्कूल का स्टूडेंट बनकर अपनी ज़िंदगी को अदब-ओ-आदाब से रोशन कर सकते हैं.
‘रेख़्ता: बाब-ए-सुखन’ पर उर्दू के एक हज़ार मक़बूल शायरों (ग़ालिब से लेकर अब तक) की तकरीबन दस हज़ार ग़ज़लें मौजूद हैं. रेख़्ता की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह उर्दू शायरी का सबसे बड़ा ऑनलाइन खज़ाना है. संजीव का मकसद रेख़्ता के ज़रिये लोगों तक सिर्फ उर्दू शायरी पहुंचाना ही नहीं है, बल्कि देवनागरी, उर्दू और अंगरेजी, तीनों ज़बानों में उर्दू शायरी को मक़बूल बनाना है, जिससे गैर-उर्दूदां लोग भी बड़ी आसानी से उर्दू ज़बान की शहद जैसी तासीर को समझ सकें. क़ाबिल-ए-गौर बात यह भी है कि पाकिस्तान की कौमी ज़बान उर्दू होते हुए भी वहां उर्दू शायरी को लेकर रेख़्ता जैसी वेबसाइट मौजूद नहीं है.
(नोट: यह लेख 'यथावत' पत्रिका के 1 से 15 मार्च, 2017 अंक में शाया हुआ है।)
http://www.yathavat.com/

Thursday, October 20, 2016

नाकाबिले-कुबूल तलाक-तलाक-तलाक

भारत में कुछ मसलों के जिन्न ऐसे हैं, जो अक्सर बोतल से बाहर निकल आते हैं या फिर हमारी राजनीति उन्हें बाहर उछाल दिया करती है. ऐसा ही एक जिन्न है तीन तलाक का, जो बीते एक साल से बोतल के बाहर आया हुआ है. बीते 7 अक्तूबर को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा देकर यह कहा है कि तीन तलाक मुसलिम महिलाओं के अधिकारों पर कुठाराघात करनेवाली व्यवस्था है, इसलिए इसे खत्म किया जाना चाहिए. मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है, लेकिन इसे लेकर कई मुसलिम संगठनों ने सरकार के इस कदम का विरोध किया है यह कहते हुए कि यह मजहबी मामलों में केंद्र सरकार की दखलअंदाजी है. भारत में इस्लामी कायदे-कानून की सबसे बड़ी संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है, जिसका मानना है कि सरकार मुसलमानों के मजहबी अधिकारों पर हमला कर रही है. गौरतलब है कि इस तीन तलाक की व्यवस्था को खत्म करने को लेकर भारत में समय-समय पर मुसलिम महिलाएं आवाज उठाती रही हैं, और मांग करती रही हैं कि तलाक की कोई संवैधानिक व्यवस्था बनायी जाये. इसी सिलसिले में भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज ने तीन तलाक के बाद मुसलिम औरतों की बदहाल जिंदगी को देखते हुए मुसलिम फैमिली लॉ का कोडिफिकेशन करने की मांग की है. एक नजर में यह बात अच्छी तो लगती है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है. 
           तीन तलाक के मसले को लेकर पर्सनल लॉ बोर्ड और बाकी मुसलिम संस्थाएं सुधार की बात तो करती हैं, लेकिन इसे पूरी तरह से खत्म करने पर विचार नहीं करतीं. एक बार में तीन तलाक कह कर बीवी को तलाक दे देना गलत ही नहीं, बल्कि कुरान और शरीयत के ऐतबार से भी गलत है. कुरान में साफ-साफ आता है कि तलाक बहुत ही खराब चीज है और यह तब तक नहीं होना चाहिए जब तक कि पति-पत्नी के बीच सुलह की कोई गुंजाईश बची रहे. एक बार में तीन तलाक कह कर रिश्ते खत्म कर देना, मेल या व्हॉट्सएप्प से तलाक दे देना, फोन करके या चिट्ठी लिख कर तलाक दे देना कत्तई इस्लामी तरीका नहीं है. कुरान में आता है कि तलाक तभी जायज हो सकता है, जब तलाक देते वक्त पति और पत्नी दोनों के घर वाले हों और दाेनों तरफ से सुलह-समझौते की सारी कोशिशें बेकार हो गयी हों. जाहिर है, जब निकाह के लिए दो गवाहों की जरूरत होती है, तो फिर तलाक कोई ऐसे ही तीन बार कह कर कैसे दे सकता है? कुरान में आता है कि तलाक तीन महीने में तीन बार रुक-रुक कर दिया जाये, क्योंकि हो सकता है कि इस बीच पहली बार तलाक देने के बाद भी पति-पत्नी में रंजिश खत्म हो जाये और वे दोनों तलाक पर राजी ही न हों. तलाक का यही सबसे अच्छा तरीका है, न कि एक बार में तीन तलाक कहकर रिश्ते खत्म करना. यही वजह है कि दुनिया के तकरीबन दो दर्जन मुसलिम देशों ने तीन तलाक की इस गंदी व्यवस्था को अपने यहां खत्म कर दिया है.

Friday, July 22, 2016

हाशिम अंसारी के बगैर अयोध्या

कृष्ण प्रताप सिंह
Mohammad Hashim Ansari
अंततः मोहम्मद हाशिम अंसारी को भी रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद का समाधान देखना मयस्सर नहीं हुआ। वैसे ही जैसे उनके मित्र परमहंस रामचंद्रदास को मयस्सर नहीं हुआ था। गत बुधवार को सुबह साढ़े पांच बजे हाशिम अयोध्या के पांजीटोला-कोटिया मुहल्ले के अपने घर में इसकी हसरत साथ लिये दुनिया को अलविदा कहने को मजबूर हुए तो पहले से ही उदास अयोध्या कुछ और उदास हो गयी। 
          बाकी देश के लिए वे भले ही बाबरीमस्जिद के मुद्दई भर रहे हों, अयोध्यावासियों के हरदिलअजीज हाशिम चाचा थे। सात मार्च, 1921 को पैदा हुए करीमबख्श के बेटे, जिनकी अयोध्या के श्रृंगारहाट में सिलाई की दुकान थी। तब पिता के साथ कपड़ों की सिलाई से जीविकोपार्जन की ‘कला’ सीखने वाले हाशिम को कतई मालूम नहीं था कि आगे चलकर उन्हें एक अंतहीन अदालती लड़ाई का हिस्सा होकर रह जाना पड़ेगा। रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के सिलसिले में उन्होंने 1954 में पहली बार कुर्की के आदेश व गिरफ्तारी का स्वाद चखा और पांच सौ रूपये का जुर्माना भुगता। 18 दिसम्बर, 1961 को वे सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से बाबरी मस्जिद के मुद्दई बने, तो उनका दृष्टिकोण एकदम साफ था-‘बना लो भारत को हिन्दू राष्ट्र और छीन लो मुसलमानों के सारे हक। लेकिन जब तक यह धर्मनिरपेक्ष संविधान है, हम नाइंसाफी से हार नहीं मानेंगे।’ 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर इमर्जेंसी लगायी तो भी उन्हें डीआईआर यानी भारत रक्षा कानून में गिरफ्तार कर बरेली सेंट्रल जेल ले जाया गया, जहां से वे आठ महीने बाद छूटे। 
       अभी दो साल पहले, 1914 में विवादित ढांचे के ध्वंस की 22वीं बरसी पर उन्होंने रामलला को ‘आजाद’ देखने के लिए रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की पैरवी से हट जाने की बात कहते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए एक प्रशंसात्मक बयान दे दिया तो कुछ लोगों ने इसे उनके ‘आत्मसमर्पण’ के तौर पर देखा और कुछ ने ‘हृदय परिवर्तन’ के तौर पर। कई लोग इससे खासे गदगद हो उठे और ‘धन्यवाद’ देने लगे कि उन्होंने एक झटके में ‘वहीं’ राममन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया, तो कई और उनकी बेतरह लानत-मलामत पर उतर आये।
     दुर्भाग्य से इन भाइयों को मालूम नहीं था कि न हाशिम ने आत्मसमर्पण किया था, न ही उनका हृदयपरिवर्तन हुआ था। उसूलन वे पहले जैसे ही थे और उनकी रामलला को आजाद देखने की चाह को तभी समझा जा सकता था, जब जाना जाये कि उनकी अयोध्या में ही गुजरी 93 {अब 95} वर्ष लम्बी जिन्दगी में बाबरी मस्जिद का वादी होने के बावजूद, उसकी जगह राममन्दिर के समर्थकों की धार्मिक भावनाओं के अनादर की एक भी मिसाल नहीं है। वे शुरू से ही इस विवाद के राजनीतिकरण के विरुद्ध और उसको अदालती फैसले या बातचीत से हल करने के पक्षधर थे। इसीलिए अपने प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्रदास से उनकी मित्रता में कभी कोई खटास नहीं आयी। अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीकाल में परमहंस का निधन हुआ तो हाशिम ने रोते हुए कहा था कि अब वे ‘बहुत अकेले’ हो गये हैं। उनकी मानें तो ‘जब तक परमहंस थे, उन्हें अयोध्या में डर का कोई कारण दिखायी नहीं देता था। 1992 में भी नहीं दिखा जब आक्रामक कारसेवकों ने उनके घर पर हमलाकर उसमें आग लगा दी और सबक सिखाकर सारा बखेड़ा खत्म कर देने के इरादे से उन्हीं से पूछा कि हाशिम कौन है? तब सिर्फ इसलिए उनकी प्राणरक्षा हो पायी थी कि कारसेवक उन्हें पहचानते नहीं थे। इस हादसे के बाद भी वे अयोध्या में ‘हरदिलअजीज’ और ‘यारों के यार’ बने रहे। उनके मित्रों के बड़े दायरे में शायद ही किसी धर्म के सदस्य न रहे हों।    
Mohammad Hashim Ansari and Mahant Bhaskar Das
          अयोध्या में आज भी ऐसा मामने वालों की कमी नहीं है कि राजनीतिक दल लगातार समस्याएं नहीं खड़ी करते रहते तो हाशिम व परमहंस स्थानीय लोगों के साथ मिलकर सारे विवाद का किस्सा ही खत्म कर देते। हाशिम प्रायः कहा करते थे, ‘22-23 दिसम्बर, 1949 की रात रामलला को साजिशन बाबरी मस्जिद में ला बैठाया गया, तो हमने उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की। न उन्हें हटाने की कोशिश, न उनके मर्यादाभंग का प्रयास। गुस्से में आकर उनका वह ‘घर’ भी हमने नहीं ढहाया। आज वे जिनके कारण तिरपाल में हैं, वे महलों में रह रहे हैं। उन्हें इलायचीदाना खिलाकर खुद लड्डू खा रहे हैं। ऐसा कब तक चलेगा? रामलला को आजादी मिलनी ही चाहिए और लोगों को यह भी पता चलना चाहिए कि हिन्दुओं से मुसलमानों ने नहीं, रामलला को अपना कहने वाले उनके नेताओं ने दगा की है।’ हाशिम का टूक नजरिया था कि जो भगवान राम करोड़ों हिन्दुओं के आराध्य हैं, उनका यों तिरपाल में रहना उचित नहीं है। लेकिन ‘यह भी तो उचित नहीं कि खुद को उनका भक्त बतानेवाले कुछ लोग पुराणों में दिये उनके जन्मस्थल के विवरणों को भी स्वीकार न करें और समझदारी के सारे तकाजों को दरकिनार कर दें।’ वे पूछते थे कि इस विडम्बना को भला कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि ये तथाकथित भक्त कमजोर समझकर हमें सताते और साथ ही हम पर अनेक बेजा तोहमदें लगाते रहें?’     
            हाशिम ने 30 सितम्बर, 2010 को आये इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विवादित भूमि के तीन टुकड़े करके पक्षकारों में बांट देने वाले फैसले के बाद भी रामलला की आजादी के जतन शुरू किये थे। हनुमानगढ़़ी के महंत ज्ञानदास के साथ मिलकर, कहते हैं कि, वे समाधान के निकट तक पहुंच गये थे और कह दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील नहीं करेंगे। लेकिन ज्ञानदास की मानें तो अशोक सिंघल व विनय कटियार आदि ने ऐसा फच्चर फंसाया कि जीते व पराजित महसूस कर रहे दोनों पक्ष फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गये। 
           हाल के बरसों में उनका स्वास्थ्य बेहद खराब रहने लगा था। हृदयाघात के बाद पेसमेकर भी लगवाना पड़ा था। एक पैर में फै्रक्चर हो गया था, सो अलग। तब उन्होंने अन्यों की पहल पर समझौतावार्ताओं से तौबा कर ली और तय किया था कि अब कोई सार्थक समाधान प्रस्ताव आयेगा तो उसी पर विचार करेंगे। उसके अनुसार यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह दोनों पक्षों को स्वीकार्य समाधान तलाशे। लेकिन 2014 में यही बात कहते हुए हाशिम ने नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र में बुनकरों के हित में उठाये गये कुछ कदमों की प्रशंसा कर दी तो उसके तरह-तरह के अर्थ निकाले जाने लगे। हाशिम को साफ करना पड़ा कि इसका इतना ही मतलब है कि नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद से ही अयोध्या मामले को तूल देने से जैसा परहेज रखा है, उससे थोड़ी उम्मीद बंधती है कि विहिप के बड़बोले नेताओं द्वारा मन्दिर निर्माण के लिए कानून बनाने के दबाव से पार पाकर वे विवाद के सार्थक समाधान का प्रयास करेंगे। ‘वे ऐसा करें तो उनकी राह क्यों रोकी जाये?’ 
           यकीनन, तब उनके कथनों में उनके रोष, क्षोभ, खीझ, गुस्से, थकान और निराशा को भी पढ़ा जा सकता था। हाशिम इसे छिपाते भी नहीं थे। कहते थे कि इस लड़ाई में उन्हें अपनों व परायों से हर कदम पर दगा ही मिला। उन्हीं के शब्दों में ‘जो आजम कभी बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी में थे, अब मंत्री हैं तो उन्हें विवादित परिसर में मन्दिर ही मन्दिर नजर आता है, मस्जिद दिखती ही नहीं। मैं उनसे इसके सिवा क्या कहूं कि जब मस्जिद दिखती ही नहीं है तो उसके लिए लड़ाई का ढोंग करके लोगों को उल्लू बनाना बंद करें।’
         अब जब हाशिम इस दुनिया से दूर जा चुके हैं, उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए सोचिए जरा कि देश की यह कैसी व्यवस्था है, जिसमें रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद की 67 साल लम्बी अदालती लड़ाई में संविधान, न्यायपालिका व सरकार मिलकर भी उन्हें और उनके मित्र दिवंगत परमहंस रामचंद्रदास को इंसाफ नहीं दिला पाये? 
       
              5/18/35, बछड़ा, सुल्तानपुर मुहल्ला, फैजाबाद- 224001 मोबाइल: 09838950948           

Thursday, March 3, 2016

उर्दू ज़बान से मुहब्बत का जश्न है जश्न-ए-रेख़्ता

मुल्क में उर्दू से बेपनाह मुहब्बत करने वाले लोगों का नाम जब भी लिया जायेगा, तो बड़े अदब से उसमें एक नाम संजीव सराफ का भी आयेगा, जिन्होंने नोएडा में रेख़्ता फाउंडेशन की नींव रखी और उर्दू ज़बान को शिद्दत से महसूस करने वालों के लिए https://rekhta.org/  नाम की वेबसाइट की बुनियाद डाली। अपनी इस कोशिश और कामयाबी पर संजीव सराफ कहते हैं- ‘उर्दू जबान से मेरी मुहब्बत का एक हसीन-ओ-तरीन नज़राना है रेख़्ता।’ संजीव ने बिना किसी मुनाफे के रेख़्ता वेबसाइट के ज़रिये उर्दू शायरी को तीन ज़बानों- उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी- में पेश कर दुनिया भर में उर्दू के दायरे को बढ़ाया है। संजीव सराफ यहीं नहीं रुके, बल्कि इसे और आगे ले जाने के लिए ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ नाम से एक प्रोग्राम का आगाज भी कर दिया, जो पिछले साल दो दिन (14-15 मार्च, 2015) को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में अपने कामयाब अंजाम को पहुंचा। इस बार ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ का यह प्रोग्राम दिल्ली के इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर दि आर्ट्स (आइजीएनसीए) में 12 फरवरी से शुरू होकर मुहब्बत के खास दिन 14 फरवरी को खत्म हुआ। जश्न-ए-रेख़्ता में लोगों की भीड़ को देख कर ऐसा महसूस हुआ कि हमारी मौजूदा पीढ़ी को उर्दू से बेपनाह मुहब्बत तो है ही, लेकिन अगर ऐसे प्रोग्राम होते रहे तो आने वाली पीढि़यां भी उर्दू ज़्बान से मुहब्बत करती रहेंगी। तीन दिन तक चले जश्न-ए-रेख़्ता के खूबसूरत अदबी माहौल में 50 से ज्यादा शायरों, कवियों, फनकारों, विचारकों, लेखकों और अदबी शख्सियतों ने अपनी शिरकत से आइजीएनसीए को ही नहीं, बल्कि पूरी दिल्ली पर अदब का रंग चढ़ा दिया।
Jashn-e-Rekhta 12-14 Feb 2016, Delhi
         जहां जश्न उर्दू का हो, वहां गुलज़ार साहब न हों, ऐसा कैसे हो सकता है? युवा लेखकों को संबोधित करते हुए गुलज़ार साब ने कहा, ‘फकीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू!’ ऐसा कहते हुए उनके चेहरे पर सूफियों वाली मुस्कुराहट थी। सभी उनकी मखमली आवाज़ और उर्दू की जादुई महक में खो से गये थे। सिनेमा में उर्दू की मौजूदगी पर फिल्म निर्देशक इम्तियाज अली ने कहा, ‘गीतकार इरशाद कामिल मुझे इसलिए अच्छे लगते हैं, क्योंकि गानों में बहुत खूबसूरत उर्दू इस्तेमाल करते हैं.’ तीन दिन तक चले इस जश्न में प्यार-मोहब्बत और आम लोगों की भाषा का जादू वाकई सिर चढ़कर बोला। लोगों का हुजूम देखकर सब यही कह रहे थे कि रेख़्ता फाउंडेशन के संस्थापक संजीव सराफ ने इस जबान को बहुत ही लाजवाब दर्शक दिए हैं। लुटियन्स दिल्ली में आइजीएनसीए में इस प्रोग्राम के लिए उसके विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग नाम दे दिया गया था: दीवान-ए-आम (स्टेज लॉन), दीवान-ए-खास (ऑडिटोरियम), बज्म-ए-रवां (एंफीथिएटर) और कुनूज-ए-सुखन (स्पीकिंग ट्री) वगैरह। एक साथ इन सभी जगहों पर अलग-अलग प्रोग्राम चल रहे थे। दास्तानगोई, प्ले, मुशायरा, कव्वाली, परिचर्चा, बैतबाजी, कैलीग्राफी, लेक्चर, प्रदर्शनी, नस्र और नज्म (गद्य और पद्य) का पाठ, बच्चों के लिए अलग से प्रोग्राम, उर्दू से जुड़ी हर शय पर कुछ न कुछ खास जरूर था।
पहले दिन की शुरुआत एक ऐसी हसीन शाम से हुई, जब दिल्ली के उपराज्यपाल ने इस कार्यक्रम का उद्घाटन किया। उसके बाद शायर जावेद अख्तर और शबाना आजमी ने ‘कैफी और मैं’ नाटक पेश किया। यह शौकत और कैफी आजमी के संघर्ष की कहानी है, जिसमें बीच-बीच में कैफी के लिखे गाने गाए जाते हैं। आखिर में, शबाना ने जिस तरह से कैफी की मौत के बाद अपनी मां की लिखी लाइनों को अपनी लरजती आवाज़ में अदा किया, उससे वहां मौजूद उन्हें सुनने वाले जज्बाती होकर अपनी पलकें भीगो बैठे। शबाना और जावेद की इस पेशकश से ऐसा लगा मानो हम कैफी आजमी और शौकत आजमी को अपने रूबरू देख रहे हैं।
Gulzar in Jashn-e-Rekhta 2016
        दूसरे दिन की सुबह में गुलजार साहब की महक पहले से ही थी, तभी तो दीवान-ए-आम में 11बजे से पहले ही गुलजार साहब को सुनने के लिए लोग अपनी सीटों को चुन चुके थे। गुलजार ने सुकृता पॉल कुमार के साथ बातचीत में उस जबान के जादू के बारे में बताया, जिसमें वे लिखते-पढ़ते रहे हैं। इसके बाद हर आधे घंटे के वक्फे के साथ रात के 11 बजे तक वहां चार और प्रोग्राम भी हुए। एक्टर टॉम आल्टर की जबरदस्त भूमिका से सजा वह नाटक भी हुआ, जो गालिब के खतों पर आधारित, एम. सईद आलम जैसे मशहूर शायर के नजरिए से लिखा गया उस जमाने की घटनाओं पर राय रखता था। शाम करिश्माई हो गयी, जब पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल साबरी ब्रदर्स ने कव्वाली शुरू की। साबरी ब्रदर्स ने ‘हम सब हाजी हैं, लेकिन हिंदुस्तान का दम भरते हैं।’ ‘देर न हो जाए, कहीं देर न हो जाए’ और ‘छाप तिलक सब छीनी’ जैसे कलाम पेश किए। इसके बाद मुशायरा ‘बज्म-ए-सुखन’ से पहले उर्दू के अदीब इंतिजार हुसैन और शायर निदा फाजली को याद किया गया। ये दोनों इस बार जश्न-ए-रेख़्ता में शामिल होने वाले थे, लेकिन किस्मत को यह मंजूर नहीं था और इससे पहले ही इन दोनों का इंतकाल हो गया। शायर अब्बास ताबिश, अनवर मकसूद, सुखबीर सिंह शाद और राजेश रेड्डी को लोगों ने खूब सराहा। रेड्डी के शे’र ‘सर कलम होंगे कल यहां उनके, जिनके मुंह में जबान बाकी है’ और अब्बास ताबिश के शे’र ‘एक मुद्दत से मेरी मां नहीं सोई ताबिश, मैंने एक बार कहा था, मुझको डर लगता है’ को खूब दाद मिली. वहीं दूसरी तरफ, दीवान-ए-खास में पांच कार्यक्रम थे, जिनकी शुरुआत ‘इस्मत चुगताई- रिवायत शिकन औरत की आवाज’ से हुई और आखिर में ‘मुगल-ए-आजम’ दिखाया गया। ठीक दूसरी तरफ, एंफीथिएटर में किताबों का विमोचन और विभिन्न विषयों पर बातचीत चलती रही।
Wasim Akram with Sanjiv Saraf, Founder of Rekhta,
in Jashn-e-Rekhta 2016 Delhi
  दीवान-ए-आम में सुबह 11 बजे से ‘जिंदगी, आशिकी और शायरी’ पर कौसर मुनीर के साथ जावेद अख्तर की बातचीत से शुरुआत हुई और इसके बाद छह कार्यक्रम हुए। इस बार दास्तानगोई में देश के बंटवारे और उसके दर्द को दारेन शाहिदी और अंकित चड्ढा बहुत खूबसूरती के साथ पेश किया। इसके बाद एम.एस. सथ्यू निर्देशित ‘दारा शिकोह’ का मंचन किया गया। बड़े-बड़े टीवी स्क्रीन पर यह ड्रामा ऐसा लग रहा था मानो कोई फिल्म दिखाई जा रही है। इसके बाद रफाकत अली खान ने अपनी गायकी से जश्न-ए-रेख़्ता को अपने शबाब पर पहुंचा दिया। दीवान-ए-खास में कार्यक्रम की शुरुआत ‘उर्दू-हिंदी अदबः मुख्तलिफ लफ्जों में मुशतरका ख्वाब’ पर चर्चा से हुई और फिर एक के बाद एक विषय पर चर्चा हुई। 
इस जश्न की सबसे अच्छी बात यह रही कि यहां आने वाले वे लोग भी बड़ी तादाद में थे, जो उर्दू पढ़ना-लिखना तक नहीं जानते थे। लेकिन उर्दू शायरी के तलबगार थे। इस जश्न की कामयाबी के लिए संजीव सराफ की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। प्रोग्राम का पूरा माहौल हिंदुस्तानी तहजीब को पेश करता नजर आया। जगह-जगह पर लगायी गई उर्दू की नज्में, गजलें और शे’र या फिर मंटो, इस्मत चुगताई, परवीन शाकिर की पेंटिंग थीं। सबसे दिलचस्प दिल्लू राम कौसरी का ‘शनाख्वाने मुस्तफा’ लगा, जिसमें उन्होंने दोजख को बताया है कि उसकी आग उन्हें क्यों न जला सकी- ‘हिंदू सही मगर हूं शनाख्वाने मुस्तफा, इस वास्ते तेरा शोला न मुझको जला सका/है नाम दिल्लू राम तखल्लुस है कौसरी, अब क्या कहूं बता दिया जो कुछ बता सका।’
एक जगह पर उर्दू प्रकाशकों ने अपनी किताबों की स्टॉल भी लगा रखी थी। इसके अलावा, कई किस्म के खाने-पीने का इंतजाम था, जिनमें अवधी, कश्मीरी, दक्कनी, पंजाबी, मुगलई खाने थे। एक ही स्टॉल पर 20 तरह की चाय का स्वाद लिया जा सकता था। स्टैंडर्ड पान भंडार पर हर तरह का पान मौजूद था। जश्न का आखरी दिन खास रहा। संजीव सराफ और उनकी रेख़्ता टीम ने जश्न-ए-रेख़्ता की शक्ल में उर्दू के चाहने वालों के लिए एक बेहतरीन तोहफा दिया है। ऐसे जज्बे को सलाम।

Wasim Akram in Jashn-e-Rekhta 2016 Delhi

Wednesday, January 27, 2016

आइडिया ऑफ इंडिया - शिव विश्वनाथन

पहले यह समझ लें कि आइडिया ऑफ इंडिया है क्या

- शिव विश्वनाथन, प्रख्यात समाजशास्त्री


आइडिया आॅफ इंडिया यानी भारत की संकल्पना की उत्कृष्ट अवधारणा को लेकर हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने बहुत सारे विचार दिये हैं, जिन पर समय-समय पर चर्चाएं होती रही हैं। इसी के मद्देनजर इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर मैंने बात की राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक केएन गोविंदाचार्य जी से कि उनकी नजर में आइडिया ऑफ इंडिया का अर्थ क्या है। 
Shiv Visvanathan

मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में आइडिया ऑफ इंडिया यानी भारत की संकल्पना की अवधारणा को कैसे देखते हैं आप?
आइडिया ऑफ इंडिया को सही-सही व्यक्त करने में कई तरह के सवाल हमारे सामने खड़े हो जाते हैं, जिनके जवाब भी पूरी तरह से खरे नहीं होते, बल्कि संदेहों से भरे होते हैं। पहला सवाल तो यही है कि क्या भारत एक सभ्यता है, या एक राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट) है? अगर हम भारत को राष्ट्र-राज्य की संज्ञा देते हैं, जो कि देते ही हैं, तो देशभर में सुरक्षा, विकास और आधुनिकता की दरकार ज्यादा तेजी से बढ़ती है, लेकिन उसके साथ ही सभ्यतागत मूल्यों का क्षरण होता जाता है और नागरिक मूल्यों में कमी आती जाती है। जाहिर है, जब मानव सभ्यता और नागरिक मूल्यों में कमी आयेगी, तो फिर आइडिया ऑफ इंडिया का स्वरूप विकृत तो होगा ही। इसके बाद आप इस विचार की चाहे जितनी भी परिभाषाएं दे दें, उसमें कहीं न कहीं एक संदेह तो बना ही रहेगा कि वास्त्व में आइडिया ऑफ इंडिया है क्या! मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि राष्ट्र-राज्य हिंसा का बहुत बड़ा स्रोत है। ऐसा नहीं कि यह हिंसा देश के नागरिकों को बेझिझक जान से मारने की ही हिंसा है, बल्कि यह हिंसा विकास के रास्ते में आनेवाली चीजों को हटानेवाली होती है। मसलन, देशभर में अपने विकास मॉडल के तहत हमने 40 मिलियन लोगों को उनकी जड़ों से विस्थापित कर दिया है। किसी को उनकी जड़ों से काट देना भी एक प्रकार की हिंसा है, प्रताड़ना है, जो राष्ट्र-राज्य बाकायदा सुनियोजित तरीके से अपने सरकारी एजेंडे के तहत करता है। दंगों से 10 मिलियन लोगों को हमने विस्थापित किया है। ऐसे और भी उदाहरण हैं। कश्मीर और पुर्वोत्तर के राज्य तो हमेशा ही राष्ट्र-राज्य की सरकारी हिंसा के शिकार रहे हैं। ऐसे में हम लोग किस आइडिया ऑफ इंडिया की बात करते हैं, यह समझना बहुत मुश्किल है। 

मौजूदा दौर में देश में जो व्यवस्थाएं हैं, क्या वे भारत की संकल्पना को पूरा करने में सार्थक हैं या फिर उनमें कुछ सुधार किये जाने की जरूरत है? 
देश की कुछ व्यवस्थाओं पर बात करते हैं। देशभर में जिस तरह से तमाम व्यवस्थाएं विकृत होती जा रही हैं, उस पर हमें फिर से शुरू से विचार करने की जरूरत है। गरीब और गरीबतर तो छोड़िए, निचले मध्यवर्ग के लोगों तक दवाओं की उपलब्धता नहीं है हमारे देश में। पारिस्थितिकी का हाल बहुत ही खराब है और हम नये-नये तरह के पर्यावरणीय खतरों से लड़ रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन और विध्वंस सोने की चिड़िया कहे जानेवाले भारत को मिट्टी की चिड़िया बनाने पर तुले हुए हैं। न्याय व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था और सबसे बढ़ कर हमारी सामाजिक व्यवस्था, इन सब में इतनी खामियां आ गयी हैं कि यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि वास्तविक आइडिया आॅफ इंडिया की परिभाषा आखिर क्या है!

विज्ञान और तकनीक ने आइडिया आॅफ इंडिया को किस तरह से प्रभावित किया है? 
एक दौर था, जब बेंगलुरू साइंस सिटी के रूप में जाना जाता था, लेकिन कुछ नवोन्मेषी लोगों ने टेक्नोलॉजी पर इतना जोर दिया कि अब वहां सिर्फ टेक्नोलाॅजी की ही बात हो रही है। यही हाल कमोबेश पूरे देश का भी है। साइंस के जो सांस्कृतिक मूल्य (कल्चरल वैल्यू) थे, वे अब ना के बराबर हो गये हैं। टेक्नोलॉजी हम पर इस कदर हावी हो गयी है कि हम साइंस आधारित शोधों से दूर होते जा रहे हैं। क्योंकि, देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में मौजूदा टेक्नोलॉजी का जो मॉडल है, वह ज्ञान बढ़ानेवाला मॉडल नहीं है, बल्कि पूरी तरह से पैसा वसूलनेवाला माॅडल है। पैसा वसूलनेवाले मॉडल से हम आइडिया आॅफ इंडिया के ज्ञान आधारित विचार को कैसे पूरा कर सकते हैं, इस पर मुझे संदेह है। सरकारें कहती हैं कि भारत आनेवाले दिनों में सुपर पॉवर बनेगा और सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग वाला अर्थव्यवस्था बनेगा। अब सोचिए, जिस दिन भारत ऐसा बन जायेगा, उस दिन देश का कोई भी प्राकृतिक संसाधन बचेगा क्या, बिल्कुल नहीं, क्योंकि सबका दोहन करके हम उन्हें खत्म कर देंगे। दरअसल, हमारी सरकारों के पास भविष्य के भारत को लेकर कोई सोच ही नहीं है, अगर है भी तो वह दूसरे भौतिकवादी देशों का अनुसरण करनेवाली सोच है। जब बेहतर भारत बनाने की सोच ही नहीं है, तो फिर हम क्या उम्मीद करें कि आइडिया ऑफ इंडिया की हमारी अवधारणा कभी सार्थक हो पायेगी?  

देश के प्रमुख राष्ट्र-निर्माताओं ने अपने सपनों के भारत के बारे में जो बातें कही थी, बाद के सालों में भारत की दशा-दिशा उस पर कितनी खरी उतरती है?
हमारे भारत निर्माताओं ने आइडिया ऑफ इंडिया को लेकर जो सपने देखे थे, उनमें से किसी का भी सपना पूरा नहीं हो पाया है, न आगे पूरा होने की कोई संभावना नजर आ रही है, क्योंकि इस सपने को पूरा करने के लिए हमने सारे रास्ते गलत चुने हैं। देश की वास्तविक लोकतांत्रिक व्यवस्था यहां के नागरिकों में समानता वाली व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन, बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र हमारे मूल लोकतंत्र में एक प्रकार का भय पैदा कर रहा है, जिससे असमानता बढ़ रही है। चुनावी लोकतंत्र में जिसको ज्यादा वोट मिलेंगे, वही सत्ता संभालेगा। यह ऐसा तत्व है, जो सिर्फ बहुमत को ही अपना सबकुछ मानता है और अल्पमत के साथ भेदभाव की स्थिति पैदा करता है। यही कारण है कि देश का मौजूदा बहुसंख्यकवाद एकरूपता (यूनीफॉर्मिटी) के पैमाने पर चल रहा है, बहुरूपता (डाइवर्सिटी) के पैमाने पर नहीं। और यही वह तत्व है, जो समाज को ऊंच-नीच में बांटता है और निचले तबकों में एक डर पैदा करता है। यह बड़ी ही तकलीफदेह बात है कि हम एक बड़े लोकतंत्र होते हुए भी हमारे यहां लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप नजर नहीं आ रहा है।

आर्थिक तौर पर आइडिया ऑफ इंडिया की अवधारणा के क्या मायने हैं? 
देश के नेता फॉर्मल इकोनॉमी (आधिकारिक अर्थव्यवस्था) को मजबूत करने में लगे हुए हैं, लेकिन वहीं इनफाॅर्मल इकोनॉमी (अनाधिकारिक अर्थव्यवस्था) देश के सत्तर प्रतिशत लोगों के बीच है। अब कृषि को ही लीजिए, कृषि की हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है, जबकि देश का एक बड़ा हिस्सा इस पर निर्भर है। कृषि को सुधारने के लिए नीति-निर्माताओं के पास कोई व्यवस्था नहीं है, जिसका खामियाजा किसानों की आत्महत्याओं के रूप में हम भुगत रहे हैं। देश की आधी से ज्यादा आबादी कई तरह की परेशानियों से जूझ रही हो, वहां आइडिया आॅफ इंडिया की अवधारणा के क्या मायने? 

संविधान के मुताबिक, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेगा। क्या हमारा देश अपने नागरिकों से किये इस वादे को कितना पूरा कर सका है?
एक भारतीय नागरिक के लिए हमारे संविधान की प्रस्तावना में जिन अधिकारों की बातें कही गयी हैं, उस आधार पर हम यही पाते हैं कि देश में जन्मे सत्तर प्रतिशत लोग भारत के नागरिक ही नहीं हैं। एक आम भारतीय को भारत का नागरिक बनने के लिए घूस देना पड़ता है। क्या यह विडंबना नहीं है कि एक आम भारतीय संविधान द्वारा प्राप्त अपने मूल अधिकारों को पाने के लिए नौकरशाही को पैसे खिलाये? जहां अपने अधिकारों के लिए आपको पैसे चुकाने पड़े, वहां आइडिया आॅफ इंडिया की बात करना, मेरे ख्याल में यह मन बहलानेवाली बात होगी।
       कुल मिला कर देखें, तो साइंस और टेक्नोलॉजी में समस्याग्रस्त है, ऊर्जा की व्यवस्था समस्याग्रस्त है, पारिस्थितिकी और पर्यावरण की व्यवस्था समस्याग्रस्त है, स्वास्थ्य व्यवस्था समस्याग्रस्त है, शिक्षा व्यवस्था समस्याग्रस्त है, राष्ट्र-राज्य समस्याग्रस्त है, और सबसे बढ़ कर लोकतांत्रिक व्यवस्था समस्याग्रस्त है। ऐसे में आइडिया ऑफ इंडिया की अवधारण तभी सार्थक हो सकती है, जब इन समस्याग्रस्त व्यवस्थाओं को सही किया जाये। 

आइडिया ऑफ इंडिया - के एन गोविंदाचार्य

स्वाॅट एनालिसिस से ही तय होगी देश की दिशा

- केएन गोविंदाचार्य, राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक
K N Govindacharya

आइडिया आॅफ इंडिया यानी भारत की संकल्पना की उत्कृष्ट अवधारणा को लेकर हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने बहुत सारे विचार दिये हैं, जिन पर समय-समय पर चर्चाएं होती रही हैं। इसी के मद्देनजर इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर मैंने बात की राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक केएन गोविंदाचार्य जी से कि उनकी नजर में आइडिया ऑफ इंडिया का अर्थ क्या है। 

आजादी के इतने साल बाद प्रमुख राष्ट्र निर्माताओं के आइडिया ऑफ इंडिया की प्रासंगिकता को आप कैसे देखते हैं? 
आजादी के पहले जो लोग अलग-अलग धाराओं में आजादी के लिए काम कर रहे थे, आजादी के बाद के भारत या भारतीय समाज के बारे में उनकी धारणाएं और अभिमत थोड़े अलग-अलग थे। जैसे आजादी के आंदोलन की चार मुख्य धाराएं थीं- एक है महात्मा गांधी, दूसरे हैं भगत सिंह, तीसरे हैं वीर सावरकर और चौथे हैं नेताजी सुभाषचंद्र बोस। इन चार धाराओं के अंतर्गत आंदोलन में कुछ लोग साथ भी हो रहे थे, जैसे जवाहरलाल नेहरू जी महात्मा गांधी के साथ थे। अंगरेजों के भारत से वापस जाने के बारे में तो गांधी-नेहरू में सहमति थी, लेकिन अंगरेजों के जाने के बाद के भारत की तस्वीर के बारे में दोनों में बहुत गहरे मतभेद थे। उसी तरह से आजादी के बाद के भारत को लेकर डॉ भीमराव आंबेडकर जी और महामना मालवीय जी, इन दोनों की सोच में भी फर्क था। इसलिए जब हम आज आइडिया ऑफ इंडिया की बात करते हैं, तो मैं मानता हूं कि मूल द्वंद्व यह है कि हम भारत के हजारों साल के इतिहास को अपने चिंतन में समाहित करके चलना चाहते हैं या हम यह मानते हैं कि भारत एक नया राष्ट्र या बनता हुआ राष्ट्र या बहुत से राष्ट्रों का मिला कर राज्य (स्टेट) होगा, इससे हम क्या समझते हैं, इसी विचार से भारत का नक्शा तय होना है। और इन्हीं चार धाराओं में अलग-अलग प्रयास चल रहे हैं और कई बार सामाजिक एकता और एकात्मकता के रास्ते में परस्पर विरोधी स्वर भी दिखते हैं। इसी कारण जो भारतीय मानस में सर्वपंथ समादर का पहलू है, वह सेक्यूलरिज्म के संदर्भ और अर्थों से भिन्न है। सेक्यूलरिज्म शब्द एक विशिष्ट कालखंड में यूरोपीय इतिहास में जन्मा हुआ शब्द है। भारत के संविधान में गहरे आपातकाल के दौरान इस शब्द को लादा गया और थोपा गया। उस समय लोकतंत्र की स्थितियां ही नहीं थीं, जब संविधान में इस शब्द का समायोजन हुआ। इसलिए भारतीय संदर्भ में पंथनिरपेक्षता राज्य रखे और समाज में सभी मतों का समादर हो, ऐसा होना चाहिए। बाद में चल के इसी की अलग-अलग धाराएं बन गयीं, जिस पर विचार होना चाहिए। 

देश के प्रमुख राष्ट्र-निर्माताओं ने अपने सपनों के भारत के बारे में जो बातें कही थी, बाद के सालों में भारत की दशा-दिशा उस पर कितनी खरी उतरती है? 
स्वाराज्य की लड़ाई में अंगरेजों के जाने के बाद राज चलानेवाले लोग अपना रास्ता भटक गये। गांधी जी ने कारीगरी, किसान और गाय काे भारतीय समाज का संश्लेषित स्वरूप देखा था। ढाई सौ वर्षों से पहले कारीगरी को किसानी से काट कर अलग किया गया और किसानी को गाय से अलग कर दिया गया। इसी अलगाव के चलते कारीगरी, किसान और गाय तीनों अलग-अलग नुकसान में रहे। गांधी जी तीनों को जोड़ कर ही चल रहे थे। आजादी के बाद के नेता भारत को पहले रूस बनाने में लग गये और फिर बाद में कुछ लोग भारत को चीन बनाने में भी लग गये। उसके बाद भी नहीं रुके और कुछ लोग भारत को अमेरिका बनाने में जुट गये। अब हाल-फिलहाल में राजीव गांधी की नकल की कोशिश हो रही है। यह देश के आम आदमी और अंतिम आदमी के हितों पर कुठाराघात था। रूस की चमक-दमक के शिकार सत्ताधीशों ने बेतहाशा औद्योकिरण और सरकारीकरण को बढ़ावा दिया। फलत: सत्ता द्वारा पोषित उद्योगपति देश में खड़े हुए और व्यवस्था में नौकरशाही हावी हो गयी। लाइसेंस परमिट कोटा राज हो गया। उससे एकदम से राह बदले, तो वे अमेरिका की तरफ मुड़ गये। तब यह राजीव गांधी का दौर था। तब से अब तक वही बात चल रही है। हाल-फिलहाल में लगा कि भारत का आदर्श ब्राजील हो सकता है, यह बिना जाने-समझे कि ब्राजील की जनसंख्या-भोग्य अनुपात भारत से बिल्कुल भिन्न है। 

आज के राजनेता आइडिया ऑफ इंडिया से कितने अलग हैं? 
भारत की आत्मा गांव में बसती है, यह तो कहा गया, लेकिन शहरीकरण अब तक देश के नब्बे हजार गांवों को लील चुका है। अब स्मार्टसिटी की घोषणा भी हो चुकी है। एक स्मार्टसिटी तकरीबन सात सौ गांवों को खत्म करेगी और देश में सौ स्मार्टसिटी की कल्पना की गयी है। ऐसे में सोचिए कि इस शहरीकरण के चलते कितने गांव खत्म हो जायेंगे। 

क्या मौजूदा विकास नीति या आधुनिकीकरण आइडिया ऑफ इंडिया पर खरे उतरते हैं?
गांधी जी अनारक्षित डिब्बे के यात्रियों का दुख-दर्द जानते थे। आज हमारे सत्ताधीशों ने प्राथमिकता बदल दी है और उनका लक्ष्य अब बुलैट ट्रेन हो गया है। जबकि, बुलैट ट्रेन के किराये के बराबर ही वायुयान का किराया पड़ेगा। बुलैट ट्रेन चलाने की प्रक्रिया में जमीन-जल-जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर इस नये विकास की कोशिश हो रही है, जो हमारे देश के लिए निहायत ही आत्मघाती कदम है। इसमें विगत साठ वर्षों में बढ़ी बेरोजगारी, प्रकृति विध्वंस, गैर-बराबरी, महंगाई आदि इस बात का सबूत है कि आजादी के आंदोलन के लक्ष्य और मूल्यों से देश के सत्ताधीश भटकते गये और उनका राष्ट्रीय सरोकार कटता गया है। 

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी। वर्तमान में इनकी स्थिति कैसी है?
भारत को अगर हम हजारों साल की परंपरा का देश तो मानेंगे, लेकिन केवल पिछले हजार साल के दौरान जो परंपराएं विकसित हुईं, उनको नहीं मानेंगे, तो फिर भारत की तस्वीर ही बदल जायेगी। दुर्भाग्य से देशभक्ति के तत्व को सांप्रदायिकता कहा जा रहा है और अल्पसंख्यकवाद को सेक्यूलरिज्म कहा जा रहा है। मेरे ख्याल में यह समझ की विडंबना है और पूरी तरह से विरोधाभासी समझ है। 

संविधान के मुताबिक, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेगा। क्या हमारा देश अपने नागरिकों से किये इस वादे को कितना पूरा कर सका है?
जहां तक न्याय-व्यवस्था का सवाल है, तो इसका अर्थ यह है कि इस व्यवस्था में जनता को पहले भरोसा मिले। देशभर में जिस तरह से तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं, उससे कोई भरोसा मिलता तो नहीं दिख रहा है। हमारे देश में जनसंख्या और जजों का अनुपात बहुत खराब है। मौजूदा भारत की दस लाख आबादी पर साढ़े बारह जज हैं, जबकि अमेरिका में दस लाख आबादी पर 113 जज हैं। न्यायपालिका ने कहा था कि केंद्रीय सरकार अगर सात हजार करोड़ रुपये दे, तो हम दस लाख जनसंख्या पर 50 जजों को बहाल कर पायेंगे। तब जाकर ये तीन करोड़ लंबित मुकदमे चार साल में निपट पायेंगे। लेकिन केंद्रीय सरकार ने न्यायपालिका को यह पैसा नहीं दिया। आइडिया आॅफ इंडिया के मद्देनजर, इससे स्पष्ट होता है कि सरकारों की प्राथमिकता क्या रही है। 

आखिरी सवाल, आइडिया ऑफ इंडिया आपकी नजर में?
आइडिया आॅफ इंडिया इस बात से तय होगा कि हम इंडिया यानी भारत से क्या समझते हैं। भारत का स्वॉट एनालिसिस (SWOT- strengths, weaknesses, opportunities and threats यानी शक्तियां, कमजोरियां, अवसर अौर खतरों) का विश्लेषण बहुत दोषपूर्ण है। अगर हम इन चारों का अच्छी तरह से विश्लेषण कर लेते, या आज भी कर लें, तो हमारे देश की दशा-दिशा सही से तय हो सकती है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो आगे देश में विषमता, अराजकता के लिए निमंत्रण रहेगा ही और इससे देश का राजनीतिक ढांचे पर बेतहाशा तनाव बढ़ेगा। 

Friday, January 15, 2016

एक कवि के ‘मैं’ का ‘तुम’ हो जाना

   
स्त्री अस्मिता को लेकर भारत में शुरू हुए स्त्रीवादी आंदोलनों और महिला अधिकारों की
बहसों की शुरुआत के बाद से स्त्रीवादी कविता में उसके सरोकारों की भी बात होने लगी। हालांकि, उसके पहले भी स्त्रीवादी कविताएं लिखी जाती थीं, लेकिन तब उसमें स्त्री अधिकारों और सरोकारों की बातें कम होती थीं, स्त्री सौंदर्य और स्त्री प्रेम की बातें ज्यादा होती थीं। सामाजिक स्तर पर स्त्री अस्मिता के संघर्ष ने स्त्रीवादी लेखन की धार को और तेज किया, जिसके रास्ते से होकर खुद सामाजिक चेतना भी और मुखर हुई। यही वजह है कि समाज और राजनीति पर बात कहने के लिए अशोक कुमार पाण्डेय ने भी स्त्री संवेदनाओं का ही सहारा लिया और नाॅस्टेल्जिया में पहुंचकर कहने पर मजबूर हुए कि ‘मां कमजोर नहीं थी, बनायी गयी थी, मां की कमजोरी हम सबकी सुविधा थी।’ एक अरसा पहले तक एक स्त्री परिवार को चलाने और उसे संस्कारित करने के लिए जानी जाती थी, लेकिन अब मौजूदा स्त्रीवादिता का तकाजा उस पर अफसोस करता है कि काश बीते पैंतीस सालों से घर के सबसे उपेक्षित कोने में मथढक्की साड़ी के नीचे मां की डिग्रियों का पुलिंदा दबा न पड़ा होता, तो शायद मंजर ही कुछ और होता। मां रोटियों पर हस्ताक्षर करने के बजाय काॅलेज के रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर रही होतीं और पिता बिल्कुल भी न रोकते। मगर एक मां सिर्फ मां होती तो शायद वह सब कुछ कर जाती, लेकिन वह एक स्त्री है, जिसकी प्राथमिकता में उसका परिवार हो जाता है। आखिर इस प्राथमिकता का भान सिर्फ उसे ही क्यों है? किसने कहा कि वह अपनी प्राथमिकता तय कर ले? जाहिर है, एक स्त्री ने खुद तय नहीं किया होगा, बल्कि पुरुष सत्तात्मक सामाजिक-राजनीतिक संरचना के चलते वह ऐसा करने के लिए मजबूर हुई होगी। कवि ने स्त्री की इस मजबूरी को बखूबी पहचाना और उसके जीवनपर्यंत चलने वाले संघर्षों की हर उस संवेदना को अपनी कविता में पिरो कर उसे संबल दिया है। आउटलुक का लिंक यहां देखें-  http://www.outlookhindi.com/art-and-culture/review/book-review-by-vasim-akram-5912
शब्दारंभ प्रकाशन से प्रकाशित युवा कवि और लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की स्त्रीवादी कविताओं का यह ताजा संग्रह ‘प्रतीक्षा का रंग सांवला’ अशोक को कविता का नवल पुरुष बनाता है। ‘सिंदूर बनकर तुम्हारे सिर पर, सवार नहीं होना चाहता हूं, न डस लेना चाहता हूं, तुम्हारे कदमों की उड़ान को..., यह कवि का ऐसा एहसास से भरा बयान है, जो स्त्री अस्मिता के संघर्षों में उसका साथी बनता है और ऐसा विश्वास दिलाता है कि वह रिश्तों को बंधन की तरह नहीं, बल्कि स्वच्छंदता के रूप में स्वीकार करता है। पुरुष सत्तात्मक हमारे समाज की यह विडम्बना है कि उसके पास ऐसा घर है जिसमें स्त्रियों के लिए बंधनों की चार दीवारें तो होती हैं, पर उनमें उन्मुक्तता की एक अदद खिड़की तक नहीं होती। उन दीवारों में खिड़कियां बनाती अशोक की कविताओं में स्त्री जीवन का हर वह पहलू विद्यमान है, जो अस्मिताओं और आंदोलनों की बुनियाद है। 
इस संग्रह की ज्यादातर कविताओं में ग्राम्य जीवन की प्रतीक्षारत नाॅस्टेल्जिया है, जिसका रंग जाहिर है सांवला ही होना चाहिए और है भी। यह कवि के ग्रामीण आग्रहों का अपना रचा-बसा संसार है, जिसमें वह बांस की डलिया को प्लास्टिक की प्लेटों और रस-भूजा को चाय-नमकीन में बदलते देखता है। हमारे शहरी जीवन की भागदौड़ भरी जिंदगी इतनी तेजी से बदल रही है कि उसे थामना मुश्किल होता जा रहा है। लेकिन स्मृतियां इतनी शक्तिशाली होती हैं कि वे उन्हें थामे रखती हैं, और हम शहर में फ्लैट की बाॅल्कनी में बैठे-बैठे ही अपने गांव के खेत में हो रही बारिश का आनंद लेने लगते हैं। 
ऐसा लगता है कि कवि अनवरत एक तलाश में है। पारिवारिक उलझनों के बीच स्त्री प्रेम में पगी उस संवेदना के वजूद की तलाश, जो कविता रचती है। जहां तलाश खत्म हुई, कविता मर गयी, कवि मर गया। प्रेम कभी पूरा नहीं होता, और जब पूरा होता है, आमदी मर जाता है। किसी चीज का पूरा होना उसका खत्म होना है, जैसे जिंदगी का पूरा होना मौत को पा लेना है। इस तलाश में कवि खुद के वजूद को कहीं खो देता है, या यूं कहें कि उसके ‘मैं’ का ‘तुम’ हो जाता है- ‘तुम्हारी तरह होना चाहता हूं मैं, तुम्हारी भाषा में तुमसे बात करना चाहता हूं, तुम्हारी तरह स्पर्श करना चाहता हूं तुम्हें, तुम होकर पढ़ना चाहता हूं सारी किताबें, तुम्हें महसूसना चाहता हूं तुम्हारी तरह...’ खुद का वजूद खत्म कर तुम हो जाना बड़ा कठिन है इस दौर में। इस तरह तो पुरुष सत्ता की अट्टालिकाएं भरभरा कर गिर जायेंगी, लेकिन यह काम स्त्रीवादी कविताएं ही कर सकती हैं। स्त्री केंद्रित कविता का वाहक कवि ही कर सकता है। अशोक कुमार पाण्डेय कर सकते हैं।
अशोक की कुछ कविताएं कहीं-कहीं अपने पद्यामत्मकता से भटक कर गद्यात्मकता की ओर चली जाती हैं। ऐसा लगता है कि कवि के ख्याल अपनी पुख्तगी को पाने के लिए भागे चले जाते हैं। छोटी-छोटी बहर की जगह बड़े वाक्यों जैसी शैली में उभार लेती ये कविताएं कवि की संवेदनाओं को एक बड़ा फलक मुहैया कराती हैं। ‘पंखुड़ियां नोचकर गुलाब को कली में बदलती उस लड़की की आंखों में कोई कली नहीं थी, नुची हुई पंखुड़ियों की खामोशी थी... उसे प्रेम का नहीं प्रेमियों का इंतजार है जिनके लिए उसने नोची हैं दिन भर पंखुड़ियां...’ 
जिसने राह पूरी कर ली, जिसे मंजिल मिल गयी, उसका सफर तो खत्म हुआ। उसे फिर कहीं जाने की जरूरत नहीं। जीवन खत्म। संवेदना खत्म। कविता खत्म। लेकिन वहीं, अगर ‘जिन्हें जीवन की राहें पता हों ठीक-ठीक, उन्हें प्रेम की कोई राह पता नहीं होती...’ प्रेम के इस पता न होने की तलाश है, जो कवि में जिंदा है और वह आगे बढ़ने की कोशिश में बार-बार पीछे लौट आता है। लौटना तो पड़ेगा ही। जीने के लिए और, और भी प्रेम करने के लिए। 

Thursday, December 10, 2015

श्रद्धांजलि : एक विद्रोही जनकवि का जाना

- कृष्ण प्रताप सिंह
       ‘तुम/वे सारे लोग/ मिलकर मुझे बचाओ/ जिनके खून के गारे से/ पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं.../तुम मुझे बचाओ!/ मैं तुम्हारा कवि हूं।’ 
Ramashankar Yadav 'Vidrohi'
        पिछले कई दशकों से प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू समेत देश के अनेक विश्वविद्यालयों के परिसरों के अन्दर और बाहर यह गुहार लगाते आ रहे जनकवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ ने गत आठ दिसम्बर को शाम साढ़े चार बजे अंतिम सांस ली, तो हिन्दी ने अपनी वाचिक परम्परा और प्रगतिशील वाम चेतना का अब तक का अन्तिम विद्रोही जनकवि खो दिया। जनकवि, जो इस अपवंचित राष्ट्र के हलवाहों-चरवाहाें, केवट-कहारों, किसान-मजदूरों, दलितों-वंचितों, स्त्रियों और बच्चों को साथ लेकर उनकी यातनाओं, सपनों व भविष्य के प्रश्नों के समाधान के लिए तमाम पंडों-पुरोहितों, मुल्ला-मौलवियों, महाजनों-जमीन्दारों और पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों से लड़ता व ‘अपहृत अतीत’ का हिसाब मांगता था। जनकवि, जिसे पहले भी कुछ कम नहीं मारा गया। ‘अनेक बार घोषित किया गया/ राष्ट्रीय अखबारों में, पत्रिकाओं में/कथाओं में, कहानियों में/कि विद्रोही मर गया’, लेकिन वह जिन्दा रहा और गाता रहा। जनकवि, जिसके लिए कविता बाप के सूद और मां की रोटी के अलावा बेटा-बेटी और खेती थी। जनकवि, जो आसमान में धान जमाना और भगवानों को धरती से उखाड़ना चाहता था। जनकवि, जिसकी कविताओं में पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छद्म व पाखंड के खिलाफ अपरम्पार गुस्सा व बेहद तीखी घृणा है। जनकवि, जिसके शब्द हर उस आततायी/शोषक को तिलमिला कर रख देते हैं, जिसे अपनी बदमाशियां छिपाने के लिए संस्कृति की पोशाक चाहिए। जनकवि, जिसे अपने लिए कोई फंड, प्रकाशन, पुरस्कार, रोजगार, किसी सरकार की नजरेइनायत या साहित्यिक प्रमोटर नहीं चाहिए था। 
          जनकवि, जो अपने छंदों व लय की तरह ही मुक्त था, कविताएं लिखता नहीं, कहता, गाता था और जिसने अपनी कविताएं कभी खुद कागज पर नहीं उतारीं। भले ही इस कारण उसकी ढेरों अवधी कविताएं उसके जाने के साथ ही हमेशा के लिए खो गयीं और स्नेही मित्र उसकी सैकड़ों रचनाओं में से कुछ को ही लिपिब़द्ध कर ‘नयी खेती’ नाम के संग्रह में प्रकाशित कर पाये। जनकवि, जो आन्दोलनों व प्रतिवाद सभाओं में कविताएं सुनाकर बच्चों की तरह खुश होता था और इस खुशी को ही अपना एकमात्र पुरस्कार बताता था। जनकवि, जो नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरुदा, कबीर और अदम गोंडवी की परम्परा से आता और जेएनयू से बाहर की दुनिया के लिए लगभग अलक्षित था। जनकवि, जो आधुनिक सभ्यता की सारी विडम्बनाएं झेलकर भी फक्कड़ व मलंग बना फिरता था। जनकवि, जो जेएनयू में गया तो अपनी पढ़ाई अपनी पढ़ाई पूरी करने था, लेकिन अपनी विद्रोही प्रतिभा से बौद्धिक बौनेपन व निठल्लेपन के शिकार प्राध्यापकों से कोसों आगे निकलकर वंचितों-शोषितों से एकजुटता के मामले में तमाम डिग्रीधारी ‘किताबी कीड़ों’ को शर्मिन्दा कर गया! जनकवि, जिससे मिलना एक परम्परा से मिलना था और जिसमें जेएनयू कैम्पस के दशकों पुराने आन्दोलनों व पड़ावों के कितने ही किस्से निरंतरता पाते थे। जनकवि, जिसने अपना आखिरी दिन भी आन्दोलनरत रहकर बिताया। जनकवि, जो इस विचार से अपना जीवनरस प्राप्त करता था कि साम्राज्य आखिर साम्राज्य ही होता है, चाहे वह रोमन हो, ब्रिटिश या अत्याधुनिक अमेरिकी। 
Ramashankar Yadav 'Vidrohi'
         हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक विजयबहादुर सिंह प्रायः कहते हैं कि इन दिनों हिन्दी में जो कुछ भी उल्लेखनीय हो रहा है, वह उसके विश्वविद्यालयों, संस्थानों व अकादमियों के बाहर हो रहा है। अगर उनके कहने का अर्थ यह है कि विश्वविद्यालयों, संस्थानों व अकादमियों में जड़ें जमाये ‘अहले खिरत’ अब हमें लगातार निराश कर रहे हैं तो इस जनकवि ने भी उन्हें सही सिद्ध किया, जिसे जेएनयू प्रशासन द्वारा जानबूझकर ‘बाहर’ कर दिया गया था!
          उसके लिए कविता जीविका नहीं, जिन्दगी थी। इसलिए वह उसी की मार्फत बोलता-बतियाता, रोता-गाता, संकल्प लेता, खुद को और सबको संबोधित करता, चिंतन करता, भाषण देता, गरियाता और बौराता था! उसने अपनी कविताओं की एक सर्वथा अलग, अगम व निराली दुनिया बना रखी थी, जिसमें ‘कलजुगहे मजूर’ पूरी सीर मांगा करते थे। जनकवि, जो चाहता था कि ‘भारतभाग्यविधाता’ और ‘जनगणमन अधिनायक’ समेत सारे बडे-बड़े लोग पहले मर लें, फिर वह मरे इत्मीनान से...और हां, जाते-जाते भी जिसने कबीर की तरह जस की तस धरि दीन्हीं चदरिया।   
             तीन दिसम्बर, 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के ऐरी फिरोजपुर गांव में जन्मे करमा देवी व रामनारायण यादव के बेटे रमाशंकर यादव के विद्रोही जनकवि बनने की एक रोचक दास्तान है। बचपन में ही विवाह के बाद वह शांती देवी नामक बालिका का पति बन गया था। शांती पढ़ने जाती थी जबकि वह भैंसें चराता था। लोग मजाक उड़ाते थे कि उसका गौना होगा और शांती उसके घर आयेगी तो उसका अनपढ़ होना सह नहीं पायेगी और उसे छोड़कर चली जायेगी। क्या पता, शांती के छोड़ जाने का भय था या उसके प्रति जन्मा सहज मानवीय अनुराग, चरवाहे रमाशंकर ने पढ़ाई-लिखाई शुरू की तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। बीए के बाद धनाभाव के कारण एलएलबी नहीं कर पाया, तो नौकरी कर ली। लेकिन पढ़ाई की तड़प 1980 में नौकरी छुड़वाकर उसे जेएनयू खींच लायी। उसे हिन्दी में एमए करना था, लेकिन जेएनयू के माहौल में रमा, तो तीस से ज्यादा वसंतों तक उसी का बना रहा। अलबत्ता, छात्र के नहीं, विद्रोही जनकवि के रूप में उसे कर्मस्थली बनाकर। उसके हास्टलों, पहाड़ियों और जंगलों में आय के किसी सुनिश्चित स्रोत के बगैर छात्रों के अयाचित सहयोग से गुजर करते हुए। 1983 में एक छात्र आन्दोलन में हिस्सेदारी के कारण उसे जेएनयू कैम्पस से निकाल दिया गया तो 1985 में उसपर मुकदमा चला। अगस्त, 2010 में जेएनयू प्रशासन ने कथित रूप से अभद्र व अपमानजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए उसके कैम्पस प्रवेश पर पाबन्दी लगायी, तो वह जेएनयू के लगभग छात्रों के लिए मर्मांतक हो उठी थी। 
            काबिलेगौर यह कि इतने विघ्नों व बाधाओं के बावजूद यह विद्रोही अपना राह पर चला तो बस चलता ही गया। जेएनयू की वाम राजनीति की पक्षधर और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढ़ियां उसको उसकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार करती रहीं। वह खुद भी छात्रों के हर न्यायपूर्ण आन्दोलन में तख्ती उठाये,नारे लगाता, कविताएं सुनाता सड़कों पर मार्च करता रहा। अनेक लोकतांत्रिक जुलूसों व प्रदर्शनों में उसकी आवाज दिल्ली की सड़कों पर, बैरिकेडों और पुलिस पिकेटों के सामने गूंजती रही। बाद में वह उत्तर प्रदेश, बिहार व छत्तीसगढ़ आदि के विश्वविद्यालयों के आयोजनों व आन्दोलनों में भी जाने लगा था। जहां भी जाता, प्रगतिशील सोच व सरोकारों वाले छात्र उसे हाथोंहाथ लेते। कई बार उसके कवितापाठ के दौरान अनेक रिक्शेवाले, खोमचे वाले और मजदूर स्वतःस्फूर्त ढंग से जुट जाते और तालियां बजाते। पटना के गांधी मैदान के समीप वाले चैराहे पर हुआ उसका ऐतिहासिक काव्यपाठ इसका सबसे बड़ा गवाह है।   
         नितिन ममनानी ने हिन्दी व भोजपुरी में ‘आई एम योर पोएट’ शीर्षक हिन्दी व भोजपुरी वृत्तचित्र बनाया तो मुम्बई के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में उसे अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाश्रेणी में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का पुरस्कार प्राप्त हुआ था।   
Ramashankar Yadav 'Vidrohi' in JNU Campus