Saturday, January 21, 2012

शब और शबनम


अजीब शब है
हाथों में चांद का कटोरा लिए
तारों के सिक्के मांगती-फिरती है....

अजीब शब है
मेरी आंखों को
नींद की आगोश में सुलाकर
ख्वाब बिखेर देती हैं वहां....

अजीब शब है
जैसे समंदर की सतह पर भाप
अभी तो नहीं मगर
बरसेगी जरूर एक दिन
अजीब शब है....है न.....


अलसुबह लान में टहलते हुए
शबनम की बूंदों ने
ऐसे हौले से छुआ मुझको
जैसे कि तुमने छुआ हो...

मद्धम हवा के झोंके से फिसलकर
गुलाब की पंखुरी से गिरते हुए 
उस शबनम की बूंद को
अपनी उंगलियों पर ऐसे संभाला मैंने
जैसे लहराकर गिरते हुए 
तुमको संभाल लिया हो मैंने...


Tuesday, January 17, 2012

मशहूर अदीब चित्रा मुदगल साहिबा से एक मुलाक़ात


जब हम घर से दूर होते हैं तो हमारा घर हमें अपनी तरफ खींचता है... ऐसा क्यों?
          जब मैं मुंबई में रहती थी, तब ऐसा लगता था कि वहां मनाया जाने वाला कोई भी त्यौहार मुझे अपने घर वापस जाने के लिए कह रहा हो. गणेश उत्सव चल रहा है, लोग पूजनोत्सव में लगे हुए रहते थे, मगर मेरा मन मेरे गांव की ओर भागता था. मैं यही सोचती थी कि मेरे घर पर भी आज गणेश पूजनोत्सव की धूम होगी और मेरे सभी घर वाले एक साथ मिलकर पूजन कर रहे होंगे. उस वक्त मेरे घर की सभी पुरानी यादें ताजा हो जाती थीं और मैं बिल्कुल उदास हो जाती थी. इसका एक ही कारण है, यह कि मेरी यादों में संस्कृति की जड़ें बहुत गहरी थीं. सचमुच संस्कृति और परंपराएं हमें अपनी जड़ों से बांधे रखती हैं.

हमारी यादों के लिए हमारी प्रकृति कितनी जिममेदार होती है?
             मनुष्य एक ऐसा सामाजिक प्राणी है, जो सामाजिकता से विच्छिन्न होकर जीने की ललक खोने लगता है. क्योंकि जिस समाज में वह जीता है, वहां की प्रकृति के साथ उसका साहचर्य होता है, एक गहरा नाता होता है. उस प्राकृतिक परिवेश में रहते हुए जो संस्कार उसके अंदर आते हैं, वही उसकी सांस्कृतिक जडें होती हैं. हालांकि, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एकांतवासी होते हैं, लेकिन जनविहीनता की स्थिति में वे भी अवसादग्रस्त हो जाते हैं. उनके अवसादग्रस्त होने का कारण यह है कि उनकी संस्कृति उन्हें अपनी जड़ों की ओर खींचती तो है, लेकिन वह उससे जुड़ नहीं पाता है. हमारी संस्कृति ही हमें बांधे रखती है. 

शहर और गांव की संस्कृति में बुनियादी फर्क क्या है?
             भारतीय जनमानस अपनी सामाजिकता को कहीं न कहीं सांस्कृतिक पक्ष के भीतर महसूस करता है. क्योंकि हमारी जड़ें हमारे परिवार में होती हैं. भारतीय परिवार की संस्कृति एक साझी संस्कृति है. इस ऐतबार से दो बातें हो सकती हैं. एक तो भारतीय शहरों में संस्कृति तो है, लेकिन साझी संस्कृति नहीं है. जबकि, भारत का ग्रामीण व्यक्ति साझी संस्कृति की विरासत को जीता है. वह उससे दूर होते ही छटपटाने लगता है. यही छटपटाहट उसे उसके घर-परिवार की ओर खींचती हैं. वह खुद को उस अविच्छिन्नता के परिवेश से बाहर निकालने की सोचने लगता है. इसी सोचने के बीच एक ऐसा मौका आता है जब उसे घर जाने की जरूरत बड़ी शिद्दत से महसूस होती है, तब वह भाग के घर पहुंच जाता है. 

हमारी संस्कृति और परम्पराएं खोती जा रही हैं. वजह क्या है?
            आज का भारत एक ऐसा भारत है जिसमें उदारीकरण, वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के पैबंद लग गये हैं. इन्हीं कारणों के चलते हम किसी गांव यह शहर के नहीं रह गये हैं. हमारी संस्कृति में बाहरी संस्कृतियों का ऐसा फ्यूजन हो गया है जिससे हम खुद से जरा सा दूर होने लगे हैं. यहीं रहते हुए हम खुद को तलाशने लगे हैं कि आखिर हम हैं कहां? यह फ्यूजन की ऐसी स्थिति है जिससे हम एक विकल्प तो जरूर ढूंढ लेते हैं, लेकिन विडंबना देखिये कि हम उनके साथ भी नहीं हो पाते. क्योंकि तब हम अपनी सामाजिकता से कट जाते हैं. हम अपनी सांस्कृतिक विरासत से विमुख हो जाते हैं. यह तो जगजाहिर है कि दूरी चाहे जिस चीज की हो, यादों को जन्म देती है. इन यादों में सबसे पहले आता है हमारा घर-परिवार. उसके बाद वहां की प्रकृति, संस्कृति, परंपरा और पास-पड़ोस के भाई-बंधु. हिंदुस्तान अब धीरे-धीरे एक कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है. इससे हमारे समाज में जो सबसे बडा नुकसान हुआ है, वह है संवेदना का क्षरण. संवेदना का क्षरण समाज में कई तरह की विकृतियों को जन्म देता है. इससे जड़ें कमजोर होती हैं और हमारे काम करने की ऊर्जा घटने लगती है. इसलिए जरूरी है कि हमारी संवेदनशीलता बरकरार रहे. हम इसे बरकरार रखकर ही अपनी संस्कृति को बचाये रख सकते हैं. 

Friday, January 13, 2012

मंडी हाउस की शाम


मंडी हाउस की शाम
रोज़ एक नया रंग लेके आती है
संगीत, साहित्य, कला
और संस्कृति के पैरोकार
रोज़ इकट्ठा होते हैं यहां
सुरों, लफ़्ज़ों, अदाकारी के
खूबसूरत पौदों को
दोस्तों के क़हक़हों से सींचते हैं
स्नैक्स और चाय की चुस्कियों से
क्कविता फूट के निकलती है जब
‘फिक्की’ सर उठाये सुनने लगता है
मगर गाडि़यों के शोर में
हर्फ नहीं पहुंच पाते उस तक
और कविता
वापस लौट आती है उनके होठों पर।

त्रिवेणी सभागार, एनएसडी और
रविंद्र भवन की कुर्सियों पर बैठकर कविता
खबरचियों से कहती है
कल ‘प्रेमचंद’ आये थे
अपने हाथों में ‘कफ़न’ और ‘गोदान’ लिये
आज शायद टैगोर आयेंगे
बंगाली मार्केट में काफी पीने
और कल हो सकता है
‘ग़ालिब के ख़याल’ की दावत है
तो वो भी आयें।

मंडी हाउस की शाम
सचमुच!
रोज़ एक नया रंग लेके आती है....


Saturday, January 7, 2012

दिल्ली मेट्रो पर एक उदास लड़की


मेट्रो पर एक उदास लड़की को
देखकर ये ख़याल आता है
चांद से उसके हंसी चेहरे पर
क्यों ये रंग-ए-मलाल आता है
ज़ुल्फ़ को शानों पे गिराये हुए
कोई नंबर मिला रही है कहीं
ऐसे अंदाज़ में परीशां है
जैसे ख़ुद को भुला रही है कहीं
खोई-खोई सी आलम-ए-नौ में
जाने वो क्यों उदास बैठी है
या किसी कि तलाश है उसको
होके वो बेशनास बैठी है
कान में नगमा-ए-साहिर की धुन
कह रही बात एक ज़रूरी है
अजनबी बनने का तकाज़ा है
पर मुलाक़ात एक ज़रूरी है
कौन है, कैसा है, ये क्या मालूम
के जिसे अजनबी बनाना है
बस एक बार जिससे मिलना है
आखि़री वादा एक निभाना है
सोचता हूं कि पूछ लूं उससे
ये इंतज़ार का आलम क्यों है
जिसके होठों पे फूल खिलते हों
आंख उसकी ये पुरनम क्यों है

Thursday, January 5, 2012

मेरी तहज़ीब मेरी पहचान


        इस दुनिया के चाहे जिस हिस्से में चले जाएँ, सुकून हमें अपने घर में ही मिलता है. दुनिया की सारी खुशियाँ एक तरफ और हमारे घर की थोड़ी सी खुशी एक तरफ. हम नौकरी के सिलसिले में घर से बाहर होते हैं, यह किसी और मुल्क में होते हैं, हमारा दिल--दिमाग घर में लगा रहता है. उस घर से हमारी संस्कृति, परंपरा और धर्म की सभी बुनियादी चीजें जुड़ी होती हैं, जो कदम-दर-कदम जिंदगी के हमारे साथ होती हैं. ये चीजें हमारी परवरिश के साथ धीरे-धीरे जिंदगी में शामिल होती हैं और यही हमारी पहचान भी बनती हैं. इसी पहचान का नाम संस्कृति है. जब हम अपना घर छोड़ किसी और जगह पर जाते हैं तो यह संस्कृति हमारे साथ हो लेती है. ऐसे में, घर से दूर होते हुए हम महसूस करते हैं कि कुछ चीजें हैं जो हमें हमारे घर की ओर खींच रही हैं. हमसे वापस लौट आने के लिए गुज़ारिश कर रही हैं.
         इस्लामी हदीस बुखारी शरीफ में पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने फरमाया, 'जिसने मुंह मोड़ा अपने बाप-दादा से, उसने कुफ्र किया और काफिर का काम किया.' आदमी अपना मजहब तो बदल सकता है, लेकिन अपनी तहजीब, अपने पूर्वज, अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं को नहीं बदल सकता. मिसाल के तौर पर आजादी से पहले बहुत से हिंदुस्तानियों को अंग्रेजों ने काम का छलावा देकर यूरोपीय देशों में भेजा और वहां उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया. वे वहां जाकर वापस न आने के लिए मजबूर हो गये, लेकिन उन्होंने अपनी संस्कृति, परंपरा और धर्म को नहीं छोड़ा. आज भी यूरोप के कई हिस्सों में भारतीय संस्कृति की झलक देखी जा सकती है. भारतीय हिंदू परंपरा के तहत होने वाले उत्सवों में भारतीय गीतों के साथ बैले डांस का फ्यूज़न सनातन संस्कृति के जिंदा रहने की बेहतरीन मिसाल है. त्रिनिदाद के चटनी सोसा संगीतकार और गायक रिक्की जय के पूर्वज भारतीय थे. रिक्की जय भारतीय शादियों में महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले गीतों को वेस्टर्न म्यूजिक के साथ मिक्स कर पश्चिमी बाजार में कई एल्बम ला चुके हैं. वे कहते हैं कि मैं भले ही त्रिनिदाद में पैदा हुआ हूं, लेकिन मेरे पूर्वज भारतीय थे, इसलिए मैं भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपने गीत-संगीत के जरिये जिंदा रखना चाहता हूं. यह ऐसी मिसाल है जिससे यह समझा जा सकता है कि इंसान भले ही सात समंदर पार जाकर रहने लगे, लेकिन वह अपनी जड़ों को कभी नहीं छोड़ता. यही वजह है कि बहुत से भारतीयों ने विदेश में बसने के बाद भी वहां की संस्कृति को अपनी संस्कृति में मिला लिया है. यह सिर्फ भारतीय संस्कृति की जड़ों के गहरी होने की बात नहीं है, बल्कि दुनिया की सभी संस्कृति के मानने वालों की बात है.
          हिंदुस्तान के मशहूर इस्लामी विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान अपने एक दीनी तकरीर के सिलसिले में एक बार पाकिस्तान गये. तकरीर के बाद रात के खाने का इंतजाम एक घर की छत पर किया गया था. उस वक्त आसमान में निकले चौदहवीं के चांद को देखकर मौलाना वहीदुद्दीन ने फरमाया, 'यह चांद यहाँ जितना खूबसूरत दिखता है, हिंदुस्तान में भी उतना ही खूबसूरत दिखता होगा.' जाहिर है चांद की खूबसूरती किसी मुल्क के ऐतबार से नहीं बदलती. ठीक ऐसी ही होती है हमारी तहजीब यानि संस्कृति. हम चाहे जहां रहें हमारे दिलों के नाजुक एहसासों में हमारी तहजीब उस चांद की तरह ही चमकती रहती है. यही वजह है कि हिंदुस्तान का कोई शख्स जब अमेरिका नौकरी के लिए जाता है तो घर से निकलते वक्त महफूज़ सफ़र के लिए नारियल फोड़ता है और अपनी मां के हाथों से दही खाकर ही निकलता है. जब वह अमेरिका में नौकरी कर रहा होता है तो उसे मां के हाथों से खाई हुई दही की याद आती है और मां के हाथों के मस को महसूस कर उसकी आंखें नम हो जाती हैं. अगर संस्कृति की जडें गहरी नहीं होतीं तो शायद कुछ ही पलों में वह अपने काम में लग जाता और इसी तरह जीते हुए कुछ ही दिनों बाद एक दिन सबकुछ भूलकर वहीं रच-बस जाता.
           मशहूर साहित्यकार महीप सिंह किसी मुल्क के सफ़र पर थे. कार्यक्रम के दौरान वहां के एक बुजुर्ग ने जब यह सुना कि महीप सिंह उनके वतन भारत से आये हैं तो वह बुजुर्ग उनसे लिपट के फूट-फूट कर रोने लगा. वह बुजुर्ग बनारस का रहने वाला था. उसका धर्म महीप सिंह के धर्म से बिलकुल अलग था, लेकिन उसकी संस्कृति भारतीय संस्कृति थी. इसलिए जब उसने एक भारतीय को देखा तो उससे लिपटकर रोने लगा. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी शायद यही महसूस किया होगा तभी तो उन्होंने आखिरी ख्वाहिश रखी थी कि उनकी अस्थियों को इलाहबाद के संगम में विसर्जित किया जाये. दुनिया के लगभग सभी मुल्कों में हिंदुस्तान के लोग रहते हैं, लेकिन वे अपने पारंपरिक त्योहारों में शामिल होने के लिए परदेस छोड़ देस लौट आते हैं. यही होता है वतन की मिट्टी की खुशबू का आकर्षण. ऐसा कौन है जो इस आकर्षण से बच पाया है?

Monday, January 2, 2012

मशहूर शायर निदा फाजली से हुई बातचीत का एक टुकड़ा


कहीं भी रहूँ, घर की तरह जीता हूँ 

       साल 2011 वैसे ही गुजर गया जैसे इसके पहले 2010 और उसके पहले के सभी साल गुजरते गये थे. लम्हा-दर-लम्हा, वक्त-दर-वक्त, दिन-महीने-साल गुजरते जाते हैं और हम अपनी जिंदगी को वक्त के मुताबिक जिये जाते हैं. इन्हीं गुजरते हुए लम्हों के बीच अक्सर सुनने में आता है जब लोग कहते हैं कि वे जहां पैदा हुए, वह जगह और वह मुल्क उनके लिए सबसे प्यारा है. यह एक अच्छी बात है, क्योंकि एक इंसान के लिए अपनी जड़ों से जुडे रहने का एहसास बहुत अच्छा होता है. वे अपनी तहजीब और रस्मो-रिवाज की  जड़ों में लिपटे तो रहते हैं, लेकिन अपनी बुनियाद की दुहाई देते हुए जहां वे बस जाते हैं, वहीं जीने के आदी भी हो जाते हैं. ऐसे में यह सवाल उठाना कि लोग अपनी  जड़ों  से कटने के बाद उसे मिस (याद) करते रहते हैं, बेमाने हो जाता है.
        तहजीब, रवायतों और परंपराओं को जिंदा रखने जैसी तमाम बातें भारतीय मध्य वर्ग की सोच का नतीजा है. उच्च और निम्न वर्गों में ऐसी कोई सोच नहीं होती. जो निम्न वर्ग से आता है, वह कहीं चला जाये, अपनी मेहनत से अपनी एक दुनिया बना लेता है. उच्च वर्ग कहीं भी जाकर जमीन-जायदाद-घर खरीदकर रहने लगता है. लेकिन मध्य वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो दोनों के बीच में बैठकर ऊपर-नीचे दोनों तरफ देखता हुआ लुढकता रहता है. यह बात तो जग जाहिर है कि कोई भी इंसान अपने घर को तभी छोड़ता है जब उसे वहां रोटी नहीं मिलती. या फिर उसके पास इतने पैसे होते हैं कि उसकी ख्वाहिशें उसे बड़े शहर की तरफ खींच लाती हैं. वह वहां जाकर गुजर-बसर करने लगता है और फिर वह उसके लिए वही सबसे अच्छी जगह हो जाती है. इसके बाद भी अगर वह अपनी जड़ों की दुहाई देता है तो यह एक दिखावा मात्र लगता है.
        सबको मालूम है कि हमारे हिंदुस्तान की कुछ भूख दुनिया के तमाम मुल्कों में रोटी खा रही है. दुनिया के दूसरे मुल्कों के लोग भी यहाँ आकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं. बहुत से ऐसे हिंदुस्तानी जो दूसरे मुल्क में हैं उनके अंदर हिंदुस्तान आने की थोड़ी सी भी कसक नहीं है. क्योंकि, जहां भी रोटी होती है वहां आदमी होता है. वैसे ही जैसे- जहां नदी होती है, वहां बस्ती होती है. अगर किसी का जन्म पहाड़ पर हुआ हो और कालांतर में जब उसके जीने के लिए वहां कुछ न हो तो वह नदी किनारे बसी बस्ती की तरफ ही जायेगा. फिर भी वह कहे कि वह  पहाड़ को मिस कर रहा है तो यह दिखावे वाली बात होगी. दुनिया में कोई जगह खराब नहीं होती, बल्कि हम इसे अच्छा या बुरा बना देते हैं. अपनी तहजीब और अपने मुल्क को ही अच्छा मानना, दूसरे की तहजीब और मुल्क को बुरा मानने के बराबर है. यह कोई आज की बात नहीं है. अगर आप गौर करें तो एक जगह से दूसरी जगह पर जाकर बसने की रवायत तो सदियों-सदियों से चली आ रही है. अप्रवास की रवायत से संस्कृतियों का आदान-प्रदान होता रहता है और एक विकसित एवं संतुलित समाज का निर्माण होता है.
        मैं कभी भी अपनी पैदाइशी जगह को अच्छी नहीं कह सकता. मैं कहीं भी रहूं, उसे अपने घर की तरह जीता हूं. मेरे लिए घर बहुत मायने रखता है. मेरे लिए पूरी दुनिया बहुत अच्छी है, इसलिए मेरे घर में एक पूरी दुनिया रहती है. सिर्फ अपने वतन को अच्छा कहने की वतनपरस्ती मेरे लिए एक लानत है. कुरान की पहली लाइन है- अल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन... तारीफ उसकी जो पूरी दुनिया का रब है. हिंदू शास्त्र में लिखा है- कण-कण में नारयान व्याप्त हैं... यानि पूरी दुनिया का एक ही ईश्वर है. बाइबिल कहता है- लेट देयर बी लाईट, देयर वाज लाईट... हमारे  शास्त्र, हमारी किताबें और हमारे धर्म बिना किसी भेदभाव के ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात करते हैं. इसे मानने की जरूरत है.  शास्त्र  में आता है- अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्. उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्...। यानि, यह अपना है और यह पराया है, ऐसी गणना छोटे हृदय वाले लोग करते हैं. उदार हृदय वाले लोगों का तो पृथ्वी ही परिवार है.