Wednesday, July 24, 2013

दि मेकिंग आफ दि इंडियन नेशन

रेजिस्टिंग कोलोनियलिज्म एंड कम्यूनल पालीटिक्स: 
मौलाना आजाद एंड दि मेकिंग आफ दि इंडियन नेशन 
रिजवान कैसर 


           भारत रत्न, स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षामंत्री, एक महान कवि, लेखक, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद का नाम भारत की उन चुनिंदा शख्सियतों में शुमार किया जाता है जिन्होंने 20वीं शताब्दी की कमजोरियों को पहचान कर उसकी बुनियाद पर 21वीं शताब्दी की संभावनात्मक ताकतों की इमारत खडी करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मौलाना आजाद भारतीय कलाओं में छुपी इंसानियत और पश्चिमी सभ्यता के बुद्धिवाद का बेहतरीन संयोजन करते हुए आधुनिक, उदार एवं सार्वभौमिक शिक्षा के जरिये एक ऐसे प्रबुद्ध और सभ्य समाज का निर्माण करना चाहते थे, जिसके धर्मनिरपेक्ष ढांचे में सांप्रदायिक सौहार्द के मजबूत स्तंभ लगे हों।
          मौलाना आजाद की जिंदगी को एक किताब की शक्ल देना कोई आसान काम नहीं है, क्यूंकि भारत के निर्माण में मौलाना आजाद से जुडे बहुत से ऐसे राजनीतिक पहलू हैं, जिन पर इतिहास और इतिहासकार दोनों आज भी मौन हैं। साक्ष्यों का अभाव और कुछ पूर्वाग्रहों के चलते हम उनकी राजनीतिक जिंदगी को सही-सही जानने-समझने में नाकाम रहे हैं। इसकी दो वजहें बहुत ही अहम हैं। एक तो यह कि मक्का में पैदा होने के कारण मौलाना आजाद उर्दू नहीं जानते थे, जिससे उनके ख्यालात पूरी तरह से इतिहास के आईने में उतर नहीं पाये। राजनीतिक गतिविधियों को वे अंग्रेजी में करते थे और उस वक्त के लोगों में अंग्रेजी को लेकर इतनी जागरुकता नहीं थी। मगर साक्ष्यरहित इतिहास के उन्हीं धुंधले पन्नों से, मौलाना आजाद के बारे में उस वक्त छपे रिसालों और अखबारों के पीले पड चुके कतरनों से जामिया मिल्लिया इसलामिया के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने उन हकीकतों को और सच्चाइयों को खोज निकाला है। इस किताब को पढकर मौलाना आजाद की जिंदगी से हम रूबरू तो होते ही हैं, साथ ही भारत निर्माण के इतिहास को बहुत करीब से देखने और समझने का एक बेहतरीन मौका भी पाते हैं।
         कमजोरी या पूर्वाग्रह चाहे जिस चीज की हो नुकसान पहुंचाती है। इन्हीं दो चीजों ने भारत की राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक राजनीति के बीच मौलाना आजाद की उपलब्धियों को अभी तक दबाये रखा है। लेकिन प्रोफ़ेसर रिजवान कैसर ने मौलाना आजाद की भाषाई कमजोरी और हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों के मौलाना आजाद के प्रति पूर्वाग्रह को न सिर्फ सामने लाया है, बल्कि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के वक्त मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी को चिन्हित करते हुए मौलाना आजाद की कारगुजारियों के आईने में मौजूदा वक्त की मुस्लिम राष्ट्रवाद की ऐसी हकीकत भरी तस्वीर पेश की है, जिसे देखने और जानने के बाद हम मौलाना अजाद पर लगने वाले सांप्रदायिक राजनीति करने के आरोप को सिरे से खारिज कर देते हैं। इस किताब ने यह बताने की पुरअसर कोशिश की है कि मौलाना आजाद ने किसी मुस्लिम राजनीति या सांप्रदायिक राजनीति की वकालत बिल्कुल नहीं की थी, बल्कि उन्होंने तो मुसमानों में राष्ट्रवाद की भावना को इस कदर प्रबल बनाया था, जो आज भी हमारे लिए किसी मिसाल से कम नहीं। भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद की जिंदगी और कारगुजारियों को सांप्रदायिक चश्में से देखने वालों को यह किताब एक बार जरूर पढ़नी चाहिए। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह आजाद की जिंदगी को बयान करती है, बल्कि इसलिए कि इस किताब की बदौलत हम इतिहास की उन सच्ची घटनाओं को जान सकेंगे, जिसे सांप्रदायिकता का अमली जामा पहनाकर हमारे सामने पेश किया जाता रहा है।

Thursday, July 18, 2013

अमानुल्लाह कुरैशी उर्फ अमान फैजाबादी की एक गजल


 रोजा बगैर लीडर! 
Amaan Faizabadi

  

रोजा बगैर लीडर अफ्तार कर रहे हैं। 
अफ्तार की नुमाइश जरदार कर रहे हैं। 

मुफलिस घरों से अपने आला मिनिस्टरों का 

खुशआमदीद कहकर दीदार कर रहे हैं।

कमजर्फियों से होती महफिल की सारी जीनत

रोजा नमाज घर में खुद्दार कर रहे हैं।
  
नाम व नमूद शोहरत मिलती है महफिलों से
उम्मीद आखिरत की बेकार कर रहे हैं।

महफिल का हुस्न कोई कैसे खराब कर ले

बेवा यतीम शिकवा बेकार कर रहे हैं।