Wednesday, January 27, 2016

आइडिया ऑफ इंडिया - शिव विश्वनाथन

पहले यह समझ लें कि आइडिया ऑफ इंडिया है क्या

- शिव विश्वनाथन, प्रख्यात समाजशास्त्री


आइडिया आॅफ इंडिया यानी भारत की संकल्पना की उत्कृष्ट अवधारणा को लेकर हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने बहुत सारे विचार दिये हैं, जिन पर समय-समय पर चर्चाएं होती रही हैं। इसी के मद्देनजर इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर मैंने बात की राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक केएन गोविंदाचार्य जी से कि उनकी नजर में आइडिया ऑफ इंडिया का अर्थ क्या है। 
Shiv Visvanathan

मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में आइडिया ऑफ इंडिया यानी भारत की संकल्पना की अवधारणा को कैसे देखते हैं आप?
आइडिया ऑफ इंडिया को सही-सही व्यक्त करने में कई तरह के सवाल हमारे सामने खड़े हो जाते हैं, जिनके जवाब भी पूरी तरह से खरे नहीं होते, बल्कि संदेहों से भरे होते हैं। पहला सवाल तो यही है कि क्या भारत एक सभ्यता है, या एक राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट) है? अगर हम भारत को राष्ट्र-राज्य की संज्ञा देते हैं, जो कि देते ही हैं, तो देशभर में सुरक्षा, विकास और आधुनिकता की दरकार ज्यादा तेजी से बढ़ती है, लेकिन उसके साथ ही सभ्यतागत मूल्यों का क्षरण होता जाता है और नागरिक मूल्यों में कमी आती जाती है। जाहिर है, जब मानव सभ्यता और नागरिक मूल्यों में कमी आयेगी, तो फिर आइडिया ऑफ इंडिया का स्वरूप विकृत तो होगा ही। इसके बाद आप इस विचार की चाहे जितनी भी परिभाषाएं दे दें, उसमें कहीं न कहीं एक संदेह तो बना ही रहेगा कि वास्त्व में आइडिया ऑफ इंडिया है क्या! मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि राष्ट्र-राज्य हिंसा का बहुत बड़ा स्रोत है। ऐसा नहीं कि यह हिंसा देश के नागरिकों को बेझिझक जान से मारने की ही हिंसा है, बल्कि यह हिंसा विकास के रास्ते में आनेवाली चीजों को हटानेवाली होती है। मसलन, देशभर में अपने विकास मॉडल के तहत हमने 40 मिलियन लोगों को उनकी जड़ों से विस्थापित कर दिया है। किसी को उनकी जड़ों से काट देना भी एक प्रकार की हिंसा है, प्रताड़ना है, जो राष्ट्र-राज्य बाकायदा सुनियोजित तरीके से अपने सरकारी एजेंडे के तहत करता है। दंगों से 10 मिलियन लोगों को हमने विस्थापित किया है। ऐसे और भी उदाहरण हैं। कश्मीर और पुर्वोत्तर के राज्य तो हमेशा ही राष्ट्र-राज्य की सरकारी हिंसा के शिकार रहे हैं। ऐसे में हम लोग किस आइडिया ऑफ इंडिया की बात करते हैं, यह समझना बहुत मुश्किल है। 

मौजूदा दौर में देश में जो व्यवस्थाएं हैं, क्या वे भारत की संकल्पना को पूरा करने में सार्थक हैं या फिर उनमें कुछ सुधार किये जाने की जरूरत है? 
देश की कुछ व्यवस्थाओं पर बात करते हैं। देशभर में जिस तरह से तमाम व्यवस्थाएं विकृत होती जा रही हैं, उस पर हमें फिर से शुरू से विचार करने की जरूरत है। गरीब और गरीबतर तो छोड़िए, निचले मध्यवर्ग के लोगों तक दवाओं की उपलब्धता नहीं है हमारे देश में। पारिस्थितिकी का हाल बहुत ही खराब है और हम नये-नये तरह के पर्यावरणीय खतरों से लड़ रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन और विध्वंस सोने की चिड़िया कहे जानेवाले भारत को मिट्टी की चिड़िया बनाने पर तुले हुए हैं। न्याय व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था और सबसे बढ़ कर हमारी सामाजिक व्यवस्था, इन सब में इतनी खामियां आ गयी हैं कि यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि वास्तविक आइडिया आॅफ इंडिया की परिभाषा आखिर क्या है!

विज्ञान और तकनीक ने आइडिया आॅफ इंडिया को किस तरह से प्रभावित किया है? 
एक दौर था, जब बेंगलुरू साइंस सिटी के रूप में जाना जाता था, लेकिन कुछ नवोन्मेषी लोगों ने टेक्नोलॉजी पर इतना जोर दिया कि अब वहां सिर्फ टेक्नोलाॅजी की ही बात हो रही है। यही हाल कमोबेश पूरे देश का भी है। साइंस के जो सांस्कृतिक मूल्य (कल्चरल वैल्यू) थे, वे अब ना के बराबर हो गये हैं। टेक्नोलॉजी हम पर इस कदर हावी हो गयी है कि हम साइंस आधारित शोधों से दूर होते जा रहे हैं। क्योंकि, देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में मौजूदा टेक्नोलॉजी का जो मॉडल है, वह ज्ञान बढ़ानेवाला मॉडल नहीं है, बल्कि पूरी तरह से पैसा वसूलनेवाला माॅडल है। पैसा वसूलनेवाले मॉडल से हम आइडिया आॅफ इंडिया के ज्ञान आधारित विचार को कैसे पूरा कर सकते हैं, इस पर मुझे संदेह है। सरकारें कहती हैं कि भारत आनेवाले दिनों में सुपर पॉवर बनेगा और सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग वाला अर्थव्यवस्था बनेगा। अब सोचिए, जिस दिन भारत ऐसा बन जायेगा, उस दिन देश का कोई भी प्राकृतिक संसाधन बचेगा क्या, बिल्कुल नहीं, क्योंकि सबका दोहन करके हम उन्हें खत्म कर देंगे। दरअसल, हमारी सरकारों के पास भविष्य के भारत को लेकर कोई सोच ही नहीं है, अगर है भी तो वह दूसरे भौतिकवादी देशों का अनुसरण करनेवाली सोच है। जब बेहतर भारत बनाने की सोच ही नहीं है, तो फिर हम क्या उम्मीद करें कि आइडिया ऑफ इंडिया की हमारी अवधारणा कभी सार्थक हो पायेगी?  

देश के प्रमुख राष्ट्र-निर्माताओं ने अपने सपनों के भारत के बारे में जो बातें कही थी, बाद के सालों में भारत की दशा-दिशा उस पर कितनी खरी उतरती है?
हमारे भारत निर्माताओं ने आइडिया ऑफ इंडिया को लेकर जो सपने देखे थे, उनमें से किसी का भी सपना पूरा नहीं हो पाया है, न आगे पूरा होने की कोई संभावना नजर आ रही है, क्योंकि इस सपने को पूरा करने के लिए हमने सारे रास्ते गलत चुने हैं। देश की वास्तविक लोकतांत्रिक व्यवस्था यहां के नागरिकों में समानता वाली व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन, बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र हमारे मूल लोकतंत्र में एक प्रकार का भय पैदा कर रहा है, जिससे असमानता बढ़ रही है। चुनावी लोकतंत्र में जिसको ज्यादा वोट मिलेंगे, वही सत्ता संभालेगा। यह ऐसा तत्व है, जो सिर्फ बहुमत को ही अपना सबकुछ मानता है और अल्पमत के साथ भेदभाव की स्थिति पैदा करता है। यही कारण है कि देश का मौजूदा बहुसंख्यकवाद एकरूपता (यूनीफॉर्मिटी) के पैमाने पर चल रहा है, बहुरूपता (डाइवर्सिटी) के पैमाने पर नहीं। और यही वह तत्व है, जो समाज को ऊंच-नीच में बांटता है और निचले तबकों में एक डर पैदा करता है। यह बड़ी ही तकलीफदेह बात है कि हम एक बड़े लोकतंत्र होते हुए भी हमारे यहां लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप नजर नहीं आ रहा है।

आर्थिक तौर पर आइडिया ऑफ इंडिया की अवधारणा के क्या मायने हैं? 
देश के नेता फॉर्मल इकोनॉमी (आधिकारिक अर्थव्यवस्था) को मजबूत करने में लगे हुए हैं, लेकिन वहीं इनफाॅर्मल इकोनॉमी (अनाधिकारिक अर्थव्यवस्था) देश के सत्तर प्रतिशत लोगों के बीच है। अब कृषि को ही लीजिए, कृषि की हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है, जबकि देश का एक बड़ा हिस्सा इस पर निर्भर है। कृषि को सुधारने के लिए नीति-निर्माताओं के पास कोई व्यवस्था नहीं है, जिसका खामियाजा किसानों की आत्महत्याओं के रूप में हम भुगत रहे हैं। देश की आधी से ज्यादा आबादी कई तरह की परेशानियों से जूझ रही हो, वहां आइडिया आॅफ इंडिया की अवधारणा के क्या मायने? 

संविधान के मुताबिक, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेगा। क्या हमारा देश अपने नागरिकों से किये इस वादे को कितना पूरा कर सका है?
एक भारतीय नागरिक के लिए हमारे संविधान की प्रस्तावना में जिन अधिकारों की बातें कही गयी हैं, उस आधार पर हम यही पाते हैं कि देश में जन्मे सत्तर प्रतिशत लोग भारत के नागरिक ही नहीं हैं। एक आम भारतीय को भारत का नागरिक बनने के लिए घूस देना पड़ता है। क्या यह विडंबना नहीं है कि एक आम भारतीय संविधान द्वारा प्राप्त अपने मूल अधिकारों को पाने के लिए नौकरशाही को पैसे खिलाये? जहां अपने अधिकारों के लिए आपको पैसे चुकाने पड़े, वहां आइडिया आॅफ इंडिया की बात करना, मेरे ख्याल में यह मन बहलानेवाली बात होगी।
       कुल मिला कर देखें, तो साइंस और टेक्नोलॉजी में समस्याग्रस्त है, ऊर्जा की व्यवस्था समस्याग्रस्त है, पारिस्थितिकी और पर्यावरण की व्यवस्था समस्याग्रस्त है, स्वास्थ्य व्यवस्था समस्याग्रस्त है, शिक्षा व्यवस्था समस्याग्रस्त है, राष्ट्र-राज्य समस्याग्रस्त है, और सबसे बढ़ कर लोकतांत्रिक व्यवस्था समस्याग्रस्त है। ऐसे में आइडिया ऑफ इंडिया की अवधारण तभी सार्थक हो सकती है, जब इन समस्याग्रस्त व्यवस्थाओं को सही किया जाये। 

आइडिया ऑफ इंडिया - के एन गोविंदाचार्य

स्वाॅट एनालिसिस से ही तय होगी देश की दिशा

- केएन गोविंदाचार्य, राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक
K N Govindacharya

आइडिया आॅफ इंडिया यानी भारत की संकल्पना की उत्कृष्ट अवधारणा को लेकर हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने बहुत सारे विचार दिये हैं, जिन पर समय-समय पर चर्चाएं होती रही हैं। इसी के मद्देनजर इस गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर मैंने बात की राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक केएन गोविंदाचार्य जी से कि उनकी नजर में आइडिया ऑफ इंडिया का अर्थ क्या है। 

आजादी के इतने साल बाद प्रमुख राष्ट्र निर्माताओं के आइडिया ऑफ इंडिया की प्रासंगिकता को आप कैसे देखते हैं? 
आजादी के पहले जो लोग अलग-अलग धाराओं में आजादी के लिए काम कर रहे थे, आजादी के बाद के भारत या भारतीय समाज के बारे में उनकी धारणाएं और अभिमत थोड़े अलग-अलग थे। जैसे आजादी के आंदोलन की चार मुख्य धाराएं थीं- एक है महात्मा गांधी, दूसरे हैं भगत सिंह, तीसरे हैं वीर सावरकर और चौथे हैं नेताजी सुभाषचंद्र बोस। इन चार धाराओं के अंतर्गत आंदोलन में कुछ लोग साथ भी हो रहे थे, जैसे जवाहरलाल नेहरू जी महात्मा गांधी के साथ थे। अंगरेजों के भारत से वापस जाने के बारे में तो गांधी-नेहरू में सहमति थी, लेकिन अंगरेजों के जाने के बाद के भारत की तस्वीर के बारे में दोनों में बहुत गहरे मतभेद थे। उसी तरह से आजादी के बाद के भारत को लेकर डॉ भीमराव आंबेडकर जी और महामना मालवीय जी, इन दोनों की सोच में भी फर्क था। इसलिए जब हम आज आइडिया ऑफ इंडिया की बात करते हैं, तो मैं मानता हूं कि मूल द्वंद्व यह है कि हम भारत के हजारों साल के इतिहास को अपने चिंतन में समाहित करके चलना चाहते हैं या हम यह मानते हैं कि भारत एक नया राष्ट्र या बनता हुआ राष्ट्र या बहुत से राष्ट्रों का मिला कर राज्य (स्टेट) होगा, इससे हम क्या समझते हैं, इसी विचार से भारत का नक्शा तय होना है। और इन्हीं चार धाराओं में अलग-अलग प्रयास चल रहे हैं और कई बार सामाजिक एकता और एकात्मकता के रास्ते में परस्पर विरोधी स्वर भी दिखते हैं। इसी कारण जो भारतीय मानस में सर्वपंथ समादर का पहलू है, वह सेक्यूलरिज्म के संदर्भ और अर्थों से भिन्न है। सेक्यूलरिज्म शब्द एक विशिष्ट कालखंड में यूरोपीय इतिहास में जन्मा हुआ शब्द है। भारत के संविधान में गहरे आपातकाल के दौरान इस शब्द को लादा गया और थोपा गया। उस समय लोकतंत्र की स्थितियां ही नहीं थीं, जब संविधान में इस शब्द का समायोजन हुआ। इसलिए भारतीय संदर्भ में पंथनिरपेक्षता राज्य रखे और समाज में सभी मतों का समादर हो, ऐसा होना चाहिए। बाद में चल के इसी की अलग-अलग धाराएं बन गयीं, जिस पर विचार होना चाहिए। 

देश के प्रमुख राष्ट्र-निर्माताओं ने अपने सपनों के भारत के बारे में जो बातें कही थी, बाद के सालों में भारत की दशा-दिशा उस पर कितनी खरी उतरती है? 
स्वाराज्य की लड़ाई में अंगरेजों के जाने के बाद राज चलानेवाले लोग अपना रास्ता भटक गये। गांधी जी ने कारीगरी, किसान और गाय काे भारतीय समाज का संश्लेषित स्वरूप देखा था। ढाई सौ वर्षों से पहले कारीगरी को किसानी से काट कर अलग किया गया और किसानी को गाय से अलग कर दिया गया। इसी अलगाव के चलते कारीगरी, किसान और गाय तीनों अलग-अलग नुकसान में रहे। गांधी जी तीनों को जोड़ कर ही चल रहे थे। आजादी के बाद के नेता भारत को पहले रूस बनाने में लग गये और फिर बाद में कुछ लोग भारत को चीन बनाने में भी लग गये। उसके बाद भी नहीं रुके और कुछ लोग भारत को अमेरिका बनाने में जुट गये। अब हाल-फिलहाल में राजीव गांधी की नकल की कोशिश हो रही है। यह देश के आम आदमी और अंतिम आदमी के हितों पर कुठाराघात था। रूस की चमक-दमक के शिकार सत्ताधीशों ने बेतहाशा औद्योकिरण और सरकारीकरण को बढ़ावा दिया। फलत: सत्ता द्वारा पोषित उद्योगपति देश में खड़े हुए और व्यवस्था में नौकरशाही हावी हो गयी। लाइसेंस परमिट कोटा राज हो गया। उससे एकदम से राह बदले, तो वे अमेरिका की तरफ मुड़ गये। तब यह राजीव गांधी का दौर था। तब से अब तक वही बात चल रही है। हाल-फिलहाल में लगा कि भारत का आदर्श ब्राजील हो सकता है, यह बिना जाने-समझे कि ब्राजील की जनसंख्या-भोग्य अनुपात भारत से बिल्कुल भिन्न है। 

आज के राजनेता आइडिया ऑफ इंडिया से कितने अलग हैं? 
भारत की आत्मा गांव में बसती है, यह तो कहा गया, लेकिन शहरीकरण अब तक देश के नब्बे हजार गांवों को लील चुका है। अब स्मार्टसिटी की घोषणा भी हो चुकी है। एक स्मार्टसिटी तकरीबन सात सौ गांवों को खत्म करेगी और देश में सौ स्मार्टसिटी की कल्पना की गयी है। ऐसे में सोचिए कि इस शहरीकरण के चलते कितने गांव खत्म हो जायेंगे। 

क्या मौजूदा विकास नीति या आधुनिकीकरण आइडिया ऑफ इंडिया पर खरे उतरते हैं?
गांधी जी अनारक्षित डिब्बे के यात्रियों का दुख-दर्द जानते थे। आज हमारे सत्ताधीशों ने प्राथमिकता बदल दी है और उनका लक्ष्य अब बुलैट ट्रेन हो गया है। जबकि, बुलैट ट्रेन के किराये के बराबर ही वायुयान का किराया पड़ेगा। बुलैट ट्रेन चलाने की प्रक्रिया में जमीन-जल-जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर इस नये विकास की कोशिश हो रही है, जो हमारे देश के लिए निहायत ही आत्मघाती कदम है। इसमें विगत साठ वर्षों में बढ़ी बेरोजगारी, प्रकृति विध्वंस, गैर-बराबरी, महंगाई आदि इस बात का सबूत है कि आजादी के आंदोलन के लक्ष्य और मूल्यों से देश के सत्ताधीश भटकते गये और उनका राष्ट्रीय सरोकार कटता गया है। 

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी। वर्तमान में इनकी स्थिति कैसी है?
भारत को अगर हम हजारों साल की परंपरा का देश तो मानेंगे, लेकिन केवल पिछले हजार साल के दौरान जो परंपराएं विकसित हुईं, उनको नहीं मानेंगे, तो फिर भारत की तस्वीर ही बदल जायेगी। दुर्भाग्य से देशभक्ति के तत्व को सांप्रदायिकता कहा जा रहा है और अल्पसंख्यकवाद को सेक्यूलरिज्म कहा जा रहा है। मेरे ख्याल में यह समझ की विडंबना है और पूरी तरह से विरोधाभासी समझ है। 

संविधान के मुताबिक, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेगा। क्या हमारा देश अपने नागरिकों से किये इस वादे को कितना पूरा कर सका है?
जहां तक न्याय-व्यवस्था का सवाल है, तो इसका अर्थ यह है कि इस व्यवस्था में जनता को पहले भरोसा मिले। देशभर में जिस तरह से तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं, उससे कोई भरोसा मिलता तो नहीं दिख रहा है। हमारे देश में जनसंख्या और जजों का अनुपात बहुत खराब है। मौजूदा भारत की दस लाख आबादी पर साढ़े बारह जज हैं, जबकि अमेरिका में दस लाख आबादी पर 113 जज हैं। न्यायपालिका ने कहा था कि केंद्रीय सरकार अगर सात हजार करोड़ रुपये दे, तो हम दस लाख जनसंख्या पर 50 जजों को बहाल कर पायेंगे। तब जाकर ये तीन करोड़ लंबित मुकदमे चार साल में निपट पायेंगे। लेकिन केंद्रीय सरकार ने न्यायपालिका को यह पैसा नहीं दिया। आइडिया आॅफ इंडिया के मद्देनजर, इससे स्पष्ट होता है कि सरकारों की प्राथमिकता क्या रही है। 

आखिरी सवाल, आइडिया ऑफ इंडिया आपकी नजर में?
आइडिया आॅफ इंडिया इस बात से तय होगा कि हम इंडिया यानी भारत से क्या समझते हैं। भारत का स्वॉट एनालिसिस (SWOT- strengths, weaknesses, opportunities and threats यानी शक्तियां, कमजोरियां, अवसर अौर खतरों) का विश्लेषण बहुत दोषपूर्ण है। अगर हम इन चारों का अच्छी तरह से विश्लेषण कर लेते, या आज भी कर लें, तो हमारे देश की दशा-दिशा सही से तय हो सकती है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो आगे देश में विषमता, अराजकता के लिए निमंत्रण रहेगा ही और इससे देश का राजनीतिक ढांचे पर बेतहाशा तनाव बढ़ेगा। 

Friday, January 15, 2016

एक कवि के ‘मैं’ का ‘तुम’ हो जाना

   
स्त्री अस्मिता को लेकर भारत में शुरू हुए स्त्रीवादी आंदोलनों और महिला अधिकारों की
बहसों की शुरुआत के बाद से स्त्रीवादी कविता में उसके सरोकारों की भी बात होने लगी। हालांकि, उसके पहले भी स्त्रीवादी कविताएं लिखी जाती थीं, लेकिन तब उसमें स्त्री अधिकारों और सरोकारों की बातें कम होती थीं, स्त्री सौंदर्य और स्त्री प्रेम की बातें ज्यादा होती थीं। सामाजिक स्तर पर स्त्री अस्मिता के संघर्ष ने स्त्रीवादी लेखन की धार को और तेज किया, जिसके रास्ते से होकर खुद सामाजिक चेतना भी और मुखर हुई। यही वजह है कि समाज और राजनीति पर बात कहने के लिए अशोक कुमार पाण्डेय ने भी स्त्री संवेदनाओं का ही सहारा लिया और नाॅस्टेल्जिया में पहुंचकर कहने पर मजबूर हुए कि ‘मां कमजोर नहीं थी, बनायी गयी थी, मां की कमजोरी हम सबकी सुविधा थी।’ एक अरसा पहले तक एक स्त्री परिवार को चलाने और उसे संस्कारित करने के लिए जानी जाती थी, लेकिन अब मौजूदा स्त्रीवादिता का तकाजा उस पर अफसोस करता है कि काश बीते पैंतीस सालों से घर के सबसे उपेक्षित कोने में मथढक्की साड़ी के नीचे मां की डिग्रियों का पुलिंदा दबा न पड़ा होता, तो शायद मंजर ही कुछ और होता। मां रोटियों पर हस्ताक्षर करने के बजाय काॅलेज के रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर रही होतीं और पिता बिल्कुल भी न रोकते। मगर एक मां सिर्फ मां होती तो शायद वह सब कुछ कर जाती, लेकिन वह एक स्त्री है, जिसकी प्राथमिकता में उसका परिवार हो जाता है। आखिर इस प्राथमिकता का भान सिर्फ उसे ही क्यों है? किसने कहा कि वह अपनी प्राथमिकता तय कर ले? जाहिर है, एक स्त्री ने खुद तय नहीं किया होगा, बल्कि पुरुष सत्तात्मक सामाजिक-राजनीतिक संरचना के चलते वह ऐसा करने के लिए मजबूर हुई होगी। कवि ने स्त्री की इस मजबूरी को बखूबी पहचाना और उसके जीवनपर्यंत चलने वाले संघर्षों की हर उस संवेदना को अपनी कविता में पिरो कर उसे संबल दिया है। आउटलुक का लिंक यहां देखें-  http://www.outlookhindi.com/art-and-culture/review/book-review-by-vasim-akram-5912
शब्दारंभ प्रकाशन से प्रकाशित युवा कवि और लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की स्त्रीवादी कविताओं का यह ताजा संग्रह ‘प्रतीक्षा का रंग सांवला’ अशोक को कविता का नवल पुरुष बनाता है। ‘सिंदूर बनकर तुम्हारे सिर पर, सवार नहीं होना चाहता हूं, न डस लेना चाहता हूं, तुम्हारे कदमों की उड़ान को..., यह कवि का ऐसा एहसास से भरा बयान है, जो स्त्री अस्मिता के संघर्षों में उसका साथी बनता है और ऐसा विश्वास दिलाता है कि वह रिश्तों को बंधन की तरह नहीं, बल्कि स्वच्छंदता के रूप में स्वीकार करता है। पुरुष सत्तात्मक हमारे समाज की यह विडम्बना है कि उसके पास ऐसा घर है जिसमें स्त्रियों के लिए बंधनों की चार दीवारें तो होती हैं, पर उनमें उन्मुक्तता की एक अदद खिड़की तक नहीं होती। उन दीवारों में खिड़कियां बनाती अशोक की कविताओं में स्त्री जीवन का हर वह पहलू विद्यमान है, जो अस्मिताओं और आंदोलनों की बुनियाद है। 
इस संग्रह की ज्यादातर कविताओं में ग्राम्य जीवन की प्रतीक्षारत नाॅस्टेल्जिया है, जिसका रंग जाहिर है सांवला ही होना चाहिए और है भी। यह कवि के ग्रामीण आग्रहों का अपना रचा-बसा संसार है, जिसमें वह बांस की डलिया को प्लास्टिक की प्लेटों और रस-भूजा को चाय-नमकीन में बदलते देखता है। हमारे शहरी जीवन की भागदौड़ भरी जिंदगी इतनी तेजी से बदल रही है कि उसे थामना मुश्किल होता जा रहा है। लेकिन स्मृतियां इतनी शक्तिशाली होती हैं कि वे उन्हें थामे रखती हैं, और हम शहर में फ्लैट की बाॅल्कनी में बैठे-बैठे ही अपने गांव के खेत में हो रही बारिश का आनंद लेने लगते हैं। 
ऐसा लगता है कि कवि अनवरत एक तलाश में है। पारिवारिक उलझनों के बीच स्त्री प्रेम में पगी उस संवेदना के वजूद की तलाश, जो कविता रचती है। जहां तलाश खत्म हुई, कविता मर गयी, कवि मर गया। प्रेम कभी पूरा नहीं होता, और जब पूरा होता है, आमदी मर जाता है। किसी चीज का पूरा होना उसका खत्म होना है, जैसे जिंदगी का पूरा होना मौत को पा लेना है। इस तलाश में कवि खुद के वजूद को कहीं खो देता है, या यूं कहें कि उसके ‘मैं’ का ‘तुम’ हो जाता है- ‘तुम्हारी तरह होना चाहता हूं मैं, तुम्हारी भाषा में तुमसे बात करना चाहता हूं, तुम्हारी तरह स्पर्श करना चाहता हूं तुम्हें, तुम होकर पढ़ना चाहता हूं सारी किताबें, तुम्हें महसूसना चाहता हूं तुम्हारी तरह...’ खुद का वजूद खत्म कर तुम हो जाना बड़ा कठिन है इस दौर में। इस तरह तो पुरुष सत्ता की अट्टालिकाएं भरभरा कर गिर जायेंगी, लेकिन यह काम स्त्रीवादी कविताएं ही कर सकती हैं। स्त्री केंद्रित कविता का वाहक कवि ही कर सकता है। अशोक कुमार पाण्डेय कर सकते हैं।
अशोक की कुछ कविताएं कहीं-कहीं अपने पद्यामत्मकता से भटक कर गद्यात्मकता की ओर चली जाती हैं। ऐसा लगता है कि कवि के ख्याल अपनी पुख्तगी को पाने के लिए भागे चले जाते हैं। छोटी-छोटी बहर की जगह बड़े वाक्यों जैसी शैली में उभार लेती ये कविताएं कवि की संवेदनाओं को एक बड़ा फलक मुहैया कराती हैं। ‘पंखुड़ियां नोचकर गुलाब को कली में बदलती उस लड़की की आंखों में कोई कली नहीं थी, नुची हुई पंखुड़ियों की खामोशी थी... उसे प्रेम का नहीं प्रेमियों का इंतजार है जिनके लिए उसने नोची हैं दिन भर पंखुड़ियां...’ 
जिसने राह पूरी कर ली, जिसे मंजिल मिल गयी, उसका सफर तो खत्म हुआ। उसे फिर कहीं जाने की जरूरत नहीं। जीवन खत्म। संवेदना खत्म। कविता खत्म। लेकिन वहीं, अगर ‘जिन्हें जीवन की राहें पता हों ठीक-ठीक, उन्हें प्रेम की कोई राह पता नहीं होती...’ प्रेम के इस पता न होने की तलाश है, जो कवि में जिंदा है और वह आगे बढ़ने की कोशिश में बार-बार पीछे लौट आता है। लौटना तो पड़ेगा ही। जीने के लिए और, और भी प्रेम करने के लिए।