Friday, July 22, 2016

हाशिम अंसारी के बगैर अयोध्या

कृष्ण प्रताप सिंह
Mohammad Hashim Ansari
अंततः मोहम्मद हाशिम अंसारी को भी रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद का समाधान देखना मयस्सर नहीं हुआ। वैसे ही जैसे उनके मित्र परमहंस रामचंद्रदास को मयस्सर नहीं हुआ था। गत बुधवार को सुबह साढ़े पांच बजे हाशिम अयोध्या के पांजीटोला-कोटिया मुहल्ले के अपने घर में इसकी हसरत साथ लिये दुनिया को अलविदा कहने को मजबूर हुए तो पहले से ही उदास अयोध्या कुछ और उदास हो गयी। 
          बाकी देश के लिए वे भले ही बाबरीमस्जिद के मुद्दई भर रहे हों, अयोध्यावासियों के हरदिलअजीज हाशिम चाचा थे। सात मार्च, 1921 को पैदा हुए करीमबख्श के बेटे, जिनकी अयोध्या के श्रृंगारहाट में सिलाई की दुकान थी। तब पिता के साथ कपड़ों की सिलाई से जीविकोपार्जन की ‘कला’ सीखने वाले हाशिम को कतई मालूम नहीं था कि आगे चलकर उन्हें एक अंतहीन अदालती लड़ाई का हिस्सा होकर रह जाना पड़ेगा। रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के सिलसिले में उन्होंने 1954 में पहली बार कुर्की के आदेश व गिरफ्तारी का स्वाद चखा और पांच सौ रूपये का जुर्माना भुगता। 18 दिसम्बर, 1961 को वे सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से बाबरी मस्जिद के मुद्दई बने, तो उनका दृष्टिकोण एकदम साफ था-‘बना लो भारत को हिन्दू राष्ट्र और छीन लो मुसलमानों के सारे हक। लेकिन जब तक यह धर्मनिरपेक्ष संविधान है, हम नाइंसाफी से हार नहीं मानेंगे।’ 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर इमर्जेंसी लगायी तो भी उन्हें डीआईआर यानी भारत रक्षा कानून में गिरफ्तार कर बरेली सेंट्रल जेल ले जाया गया, जहां से वे आठ महीने बाद छूटे। 
       अभी दो साल पहले, 1914 में विवादित ढांचे के ध्वंस की 22वीं बरसी पर उन्होंने रामलला को ‘आजाद’ देखने के लिए रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की पैरवी से हट जाने की बात कहते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए एक प्रशंसात्मक बयान दे दिया तो कुछ लोगों ने इसे उनके ‘आत्मसमर्पण’ के तौर पर देखा और कुछ ने ‘हृदय परिवर्तन’ के तौर पर। कई लोग इससे खासे गदगद हो उठे और ‘धन्यवाद’ देने लगे कि उन्होंने एक झटके में ‘वहीं’ राममन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया, तो कई और उनकी बेतरह लानत-मलामत पर उतर आये।
     दुर्भाग्य से इन भाइयों को मालूम नहीं था कि न हाशिम ने आत्मसमर्पण किया था, न ही उनका हृदयपरिवर्तन हुआ था। उसूलन वे पहले जैसे ही थे और उनकी रामलला को आजाद देखने की चाह को तभी समझा जा सकता था, जब जाना जाये कि उनकी अयोध्या में ही गुजरी 93 {अब 95} वर्ष लम्बी जिन्दगी में बाबरी मस्जिद का वादी होने के बावजूद, उसकी जगह राममन्दिर के समर्थकों की धार्मिक भावनाओं के अनादर की एक भी मिसाल नहीं है। वे शुरू से ही इस विवाद के राजनीतिकरण के विरुद्ध और उसको अदालती फैसले या बातचीत से हल करने के पक्षधर थे। इसीलिए अपने प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्रदास से उनकी मित्रता में कभी कोई खटास नहीं आयी। अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीकाल में परमहंस का निधन हुआ तो हाशिम ने रोते हुए कहा था कि अब वे ‘बहुत अकेले’ हो गये हैं। उनकी मानें तो ‘जब तक परमहंस थे, उन्हें अयोध्या में डर का कोई कारण दिखायी नहीं देता था। 1992 में भी नहीं दिखा जब आक्रामक कारसेवकों ने उनके घर पर हमलाकर उसमें आग लगा दी और सबक सिखाकर सारा बखेड़ा खत्म कर देने के इरादे से उन्हीं से पूछा कि हाशिम कौन है? तब सिर्फ इसलिए उनकी प्राणरक्षा हो पायी थी कि कारसेवक उन्हें पहचानते नहीं थे। इस हादसे के बाद भी वे अयोध्या में ‘हरदिलअजीज’ और ‘यारों के यार’ बने रहे। उनके मित्रों के बड़े दायरे में शायद ही किसी धर्म के सदस्य न रहे हों।    
Mohammad Hashim Ansari and Mahant Bhaskar Das
          अयोध्या में आज भी ऐसा मामने वालों की कमी नहीं है कि राजनीतिक दल लगातार समस्याएं नहीं खड़ी करते रहते तो हाशिम व परमहंस स्थानीय लोगों के साथ मिलकर सारे विवाद का किस्सा ही खत्म कर देते। हाशिम प्रायः कहा करते थे, ‘22-23 दिसम्बर, 1949 की रात रामलला को साजिशन बाबरी मस्जिद में ला बैठाया गया, तो हमने उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की। न उन्हें हटाने की कोशिश, न उनके मर्यादाभंग का प्रयास। गुस्से में आकर उनका वह ‘घर’ भी हमने नहीं ढहाया। आज वे जिनके कारण तिरपाल में हैं, वे महलों में रह रहे हैं। उन्हें इलायचीदाना खिलाकर खुद लड्डू खा रहे हैं। ऐसा कब तक चलेगा? रामलला को आजादी मिलनी ही चाहिए और लोगों को यह भी पता चलना चाहिए कि हिन्दुओं से मुसलमानों ने नहीं, रामलला को अपना कहने वाले उनके नेताओं ने दगा की है।’ हाशिम का टूक नजरिया था कि जो भगवान राम करोड़ों हिन्दुओं के आराध्य हैं, उनका यों तिरपाल में रहना उचित नहीं है। लेकिन ‘यह भी तो उचित नहीं कि खुद को उनका भक्त बतानेवाले कुछ लोग पुराणों में दिये उनके जन्मस्थल के विवरणों को भी स्वीकार न करें और समझदारी के सारे तकाजों को दरकिनार कर दें।’ वे पूछते थे कि इस विडम्बना को भला कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि ये तथाकथित भक्त कमजोर समझकर हमें सताते और साथ ही हम पर अनेक बेजा तोहमदें लगाते रहें?’     
            हाशिम ने 30 सितम्बर, 2010 को आये इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विवादित भूमि के तीन टुकड़े करके पक्षकारों में बांट देने वाले फैसले के बाद भी रामलला की आजादी के जतन शुरू किये थे। हनुमानगढ़़ी के महंत ज्ञानदास के साथ मिलकर, कहते हैं कि, वे समाधान के निकट तक पहुंच गये थे और कह दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील नहीं करेंगे। लेकिन ज्ञानदास की मानें तो अशोक सिंघल व विनय कटियार आदि ने ऐसा फच्चर फंसाया कि जीते व पराजित महसूस कर रहे दोनों पक्ष फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गये। 
           हाल के बरसों में उनका स्वास्थ्य बेहद खराब रहने लगा था। हृदयाघात के बाद पेसमेकर भी लगवाना पड़ा था। एक पैर में फै्रक्चर हो गया था, सो अलग। तब उन्होंने अन्यों की पहल पर समझौतावार्ताओं से तौबा कर ली और तय किया था कि अब कोई सार्थक समाधान प्रस्ताव आयेगा तो उसी पर विचार करेंगे। उसके अनुसार यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह दोनों पक्षों को स्वीकार्य समाधान तलाशे। लेकिन 2014 में यही बात कहते हुए हाशिम ने नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र में बुनकरों के हित में उठाये गये कुछ कदमों की प्रशंसा कर दी तो उसके तरह-तरह के अर्थ निकाले जाने लगे। हाशिम को साफ करना पड़ा कि इसका इतना ही मतलब है कि नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद से ही अयोध्या मामले को तूल देने से जैसा परहेज रखा है, उससे थोड़ी उम्मीद बंधती है कि विहिप के बड़बोले नेताओं द्वारा मन्दिर निर्माण के लिए कानून बनाने के दबाव से पार पाकर वे विवाद के सार्थक समाधान का प्रयास करेंगे। ‘वे ऐसा करें तो उनकी राह क्यों रोकी जाये?’ 
           यकीनन, तब उनके कथनों में उनके रोष, क्षोभ, खीझ, गुस्से, थकान और निराशा को भी पढ़ा जा सकता था। हाशिम इसे छिपाते भी नहीं थे। कहते थे कि इस लड़ाई में उन्हें अपनों व परायों से हर कदम पर दगा ही मिला। उन्हीं के शब्दों में ‘जो आजम कभी बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी में थे, अब मंत्री हैं तो उन्हें विवादित परिसर में मन्दिर ही मन्दिर नजर आता है, मस्जिद दिखती ही नहीं। मैं उनसे इसके सिवा क्या कहूं कि जब मस्जिद दिखती ही नहीं है तो उसके लिए लड़ाई का ढोंग करके लोगों को उल्लू बनाना बंद करें।’
         अब जब हाशिम इस दुनिया से दूर जा चुके हैं, उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए सोचिए जरा कि देश की यह कैसी व्यवस्था है, जिसमें रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद की 67 साल लम्बी अदालती लड़ाई में संविधान, न्यायपालिका व सरकार मिलकर भी उन्हें और उनके मित्र दिवंगत परमहंस रामचंद्रदास को इंसाफ नहीं दिला पाये? 
       
              5/18/35, बछड़ा, सुल्तानपुर मुहल्ला, फैजाबाद- 224001 मोबाइल: 09838950948