Tuesday, September 16, 2014

शुद्ध हिंदी

हमने हिंदी के कट्टर समर्थकों की बात अंतत: मान ली
अगले दिन से ही अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का
हिंदी में घालमेल न करने की ठान ली

सुबह उठते ही मैंने
नेत्र स्थित, नासिका चिपटित, द्विकर्णधारित, 
नेत्र दोष निवारक पारदर्शक यंत्र अर्थात्
चश्मा अपनी आंखों पर लगाया
तत्पश्चात दंत स्वच्छकारक दंडिका तथा
श्वेत नील धारी धारक दंत लेप से
अपनी दंतावली को स्वच्छ किया एवं चमकाया
एक कप चाय के लिए पत्नी को शयन कक्ष में बुलाया- 
‘‘हे प्रिये, एक पक्व मृतिका के पात्र में 
शर्करा युक्त, दुग्ध मिश्रित, पर्वतीय पत्तियों का 
अति उष्म पेय पदार्थ प्रेषित कर दो मेरी रानी’’
पत्नी बोली- ‘‘सुबह-सुबह शुरू हो गये, ये नयी कविता है या कहानी’’

शुद्ध हिंदी बोलने की सौगंध ले रखी थी
इसलिए कुछ काम ध्वनि द्वारा तो कुछ संकेतों में निपटाया
घर से निकलकर दिल्ली जाने वाली बस में आया
और कंडक्टर से कहा, ‘‘हे संवाहक महोदय, 
इंद्रप्रस्थ नगरी प्रस्थान करने हेतु समुचित मूल्य का
एक वैधानिक यात्रापत्र हमें तुरंत सुलभ करवाइए’’
कंडक्टर ठेठ हरियाणवी था, सीटी बजाकर ड्राइवर से बोला-
‘‘गलत रूट की सवारी है, ब्रेक मारकर उतार दो’’
हमने कहा- ‘‘महोदय, वाहन मत रोकिए, 
जहां आप कह रहे हैं, हमें वहीं है जाना’’
कंडक्टर बोला- ‘‘तू आगरे क्यों नहीं चला जाता,
वहीं है मशहूर पागलखाना’’

हमारे पड़ोसी यात्री ने सिगरेट सुलगाकर एक गहरा कश लगाया
हमने तत्काल शोर मचाया- 
‘‘हे संवाहक महोदय, यह व्यक्ति
श्वेत धूम्रदंडिका का अनाधिकृत दहन करके
इसका अवांछित धूम्र हमारी नासिका पर प्रक्षेपित कर रहा है
इसके मस्तिष्क में न चिंतन है, न मनन है
यह परिवहन नियमावली के विरुद्ध
हमारे मौलिक अधिकारों का साक्षात हनन है
मेरा निकटस्थ यात्री, पर्यावरण प्रदूषित समस्त कर रहा है
संविधान के मूल ढांचे को ध्वस्त कर रहा है’’
कंडक्टर बोला- ‘‘बैठ जा बैठ जा, 
इसने कौण सी गौरी मिसाइल की पूंछ में आग लगा दी
एक सिगरेट ही तो सुलगाई है
इतना शोर तो अमेरिकन टावरां के गिरने पर भी नहीं मच्या
जितनी हाय-तौबा तूने इस धूएं पर मचाई है’’

दिल्ली पहुंचकर हमने एक रिक्शे वाले को
जिलाधिकार समीप स्थित सामुदायिक केंद्र चलने को कहा
वह दो-चार लोगों से पूछने के बाद हमसे सीधा टकराया
‘‘तुम्हें कम्युनिटी सेंटर जाना है, तो सीधे-सीधे भी तो बता सकते थे
अंग्रेजी बोलनी जरूरी थी, हिंदी में भी तो बता सकते थे’’

नोट : यदि हिंदी की भागीरथी को आप समुद्र नहीं बना सकते, तो इसे संकुचित करके छोटा नाला मत बनाइए. इसमें उर्दू और संस्कृत की यमुना और अलकनंदा को मिलने दीजिए. अंग्रेजी जैसे छोटे झरनों पर भी बांध मत बनाइए. क्योंकि सैकड़ों नालों और नदियों के मिलने के बाद ही भागीरथी पवित्र गंगा बन पायी है. हमने दूसरी भाषाओं के शब्दनदों को हिंदी की हदों में आने से रोका है. इसलिए हिंदी आज तक हिंदी रही है. जन-जन की पवित्र हिंदुस्तानी गंगा नहीं बन पायी है.

Wednesday, September 10, 2014

आलू-प्याज़ की बोरी हैं लड़कियां

सही कहा तुमने
अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी
और न फिर से
कोई दीन-ए-इलाही पैदा होगा
जहां धर्मों से ऊपर होता है एक इंसान।

मगर मेरे दोस्त, तुम यह भूल गये
के फिर कोई हुमायूं
किसी कर्मावती की हिफाज़त की
कसम नहीं खायेगा कोई
और न फिर कहीं किसी
रक्षाबंधन की बुनियाद ही पड़ेगी...
सही कहा कि अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी।

सिकंदर अपनी बेटी तुम्हें दे जायेगा या नहीं
यह तो मुझे नहीं मालूम
पर इतना जरूर मालूम है कि तुम्हारी बेटियां
भले ही आसाराम जैसों की शिकार हो जायें
उन्हें उस राक्षस के पास भेजने में
तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा
क्योंकि वह नुमाइंदा है तुम्हारे धर्म का।

बलत्कृत हो रही हैं
तो होती रहें ये लड़कियां
तुम्हारे मंदिर-ओ-मस्जिद तो सलामत हैं!
खुदकुशी कर रही हैं, तो करती रहें
तुम्हारे दीन-ओ-धरम तो सालिम हैं!
तुम्हारे खुद के हाथों
अगर वो मर रही हैं, तो मरती रहें
तुम्हारे किताबों पर तो कोई आंच नहीं!
उनके मरने, लुट जाने से
तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़नेवाला
क्योंकि यह तुम्हारे धर्म का मामला नहीं है।

दरअसल, ग़लती तुम्हारी नहीं है
क्योंकि, तुम्हारी धर्म की ठेकेदारी
औरत की इज्ज़त पर ही टिकी है
तुम्हारे लिए औरतें और लड़कियां
महज आलू-प्याज़ की ऐसी बोरियां हैं
जिन्हें तुम अपने मन-भाव में
धर्म-जाति, शरिया-गोत्र की मंडियों में
बेझिझक बेच सकते हो
जो चाहे, क़ीमत लगा सकते हो उनकी
और इसी क़ीमत से तुम
पुरुष सत्ता के भुरभुरे खंभों को
मज़बूत बनाते रहने की
नाकाम कोशिशें करते रहते हो।

कितने ओछे और कमज़ोर हैं तुम्हारे धर्म
जो मासूम प्रेम की चुनौती भी स्वीकार नहीं कर पाते
और गिरने लगते हैं भरभराकर
तुम इसमें दब के मर न जाओ
इसलिए औरत का सहारा लेते हो
कितनी कमज़र्फ है तुम्हारी मर्दानगी
जिसकी इज्ज़त की हिफाज़त भी नहीं कर सकती
उसी के सहारे
तुम अपने धर्मों की ठेकेदारी करते हो।

बिल्कुल सही कहते हो तुम मेरे दोस्त
अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी...