Friday, December 23, 2011

तू... सर्दियों की धूप सी



तू... सर्दियों की धूप सी
गुनगुनी...
तू... सर्दियों की धूप सी
मिनमिनी...
तू... सर्दियों की धूप सी
शीरी-शीरी...
तू... सर्दियों की धूप सी
नग्मगी...
     तू... सर्दियों की धूप सी
     चुलबुली...
     तू... सर्दियों की धूप सी
     खिलखिली...
     तू... सर्दियों की धूप सी
     सन्दली...
     तू... सर्दियों की धूप सी
     मखमली...
तू... सर्दियों की धूप सी
आसपास...
तू... सर्दियों की धूप सी
खास-खास...
तू... सर्दियों की धूप सी
एक लिबास...
तू... सर्दियों की धूप सी
बेशनास...

Thursday, December 15, 2011

गुलज़ार से बातचीत का एक टुकड़ा


एक रवायत का नाम है देवानंद  गुलज़ार 

          देव साहब का इस दुनिया से जाना, एक दुनिया का जाना है। देव और उनकी फिल्मों के बारे में बहुत से लोगों ने बहुत कुछ कहा है। मैं सिर्फ देव साहब के वजूद की बात करूंगा। देव साहब को देखना, उनसे मिलना, उनकी बात करना, ऐसा ही है जैसे उन्हें जीना। जीना भी ऐसे के जैसे शोखियों की सारी हदें उनके वजूद तक जाकर खत्म हो जाती हैं। रवायतों की हाजत उन्हें कभी नहीं रही। हां जब भी वो किसी चीज की हाजत करते थे, वह रवायत जरूर बन जाती थी। बालीवुड में बेमिसाल वजूद के एक अकेले शाहकार थे देव साब। गालिब की शोख, लुत्फ अंदोज मिसरों की तरह थी उनकी अदाकारी, गोया वो हंसें तो मुहब्बत शुरू हो और अगर गमगीन हों तो सबके जेहनो दिल में दर्द की इंतेहाई सूरत नजर आ जाये। फिर तो उस गम के आलम में दिन तो ढल जाता है, लेकिन रात का गुजरना मुश्किल हो जाता है। सरमस्ती, बेबाकी, लुत्फ अंदाजी जैसी चीजें तो उनकी अदाकारी के ऐसे वक्फे थे, जिसे वे जब चाहे जैसे चाहते थे परदे पर उतार देते थे। हालांकि एक आलम आया था जब उन्हें सुरैया से मुहब्बत हुई थी। उस वक्त तो ऐसा लगा था कि देव साहब अपनी शोखियां खो बैठेंगे, लेकिन जिंदगी से भरपूर, हमेशा जवां दिल और हर दिल अजीज देवानंद ने हकीकत की जिंदगी को हकीकत ही रहने दिया और परदे की जिंदगी को परदे पर। इंसान के अंदर जब मुहब्बत अपना घर बना ले तो उसका दिल शायद ही कभी टूटता है। देवानंद भी उसी मुहब्बत का एक नाम है, जिसके पहलू में ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ की इमेज अभी भी बरकार है। आखिरी वक्त भी देव साहब को देखकर यही लगता था कि कलाकार इस दुनिया से विदा होते वक्त अपना जिस्म छोड़ जाते हैं, लेकिन उनकी रूह यहीं रह जाती है। बालीवुड को राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की तिकड़ी की वजह से भी याद किया जायेगा। इन तीनों को अपना अभिनय का अजूबा अंदाज था और जीने का भी। तीनों एक दूसरे से जुदा, पर कितने करीब लगते थे तीनों। लगता था एक से जो छूट गया वह दूसरे ने पकड़ लिया है और दूसरे से जो बचा वह तीसरे ने। उनमें से जब भी किसी एक की बात चलेगी तो बाकी दोनों का जिक्र निश्चित रूप से आएगा। अगर मैं ये कहूं तो ये गल्त न होगा कि उनमें से कोई भी एक बाकी दोनों के बिना अधूरा था। उनकी सार्थकता साथ होने में थी। शायद इसीलिए कुदरत ने उन्हें एक ही वक्त नवाजा था। इन तीनों में  बुनियादी फर्क की बात करें तो राज कपूर और दिलीप कुमार की सिनेमेटिक इमेज पर उम्र की धूल जमा हुई सी लगती है, लेकिन देवानंद उम्र के आखिरी पड़ाव में भी वैसे थे जैसे अभी-अभी गाये चले जा रहे हों कि... मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया। 
       वाकई इस सदाबहार और जवां दिल अदाकार के लिए उम्र कभी आड़े नहीं आयी। अगर जिंदगी जीने के जज़्बे और रोमांटिक सलीके की जब भी बात आयेगी, देव साहब हमारे बीच गाते-मुस्कुराते नजर आ जायेंगे..... है अपना दिल तो आवारा, न जाने किसपे आयेगा.... और बहुत मुमकिन है कि वहीं से एक और दास्तान-ए-मुहब्बत शुरू हो जाये और हम एक और मिसाल के वजूद में खुद को ढूंढते नजर आयें। शुक्रिया देव साहब। हमें हमारा वजूद याद दिलाने के लिए। अगर आप दिलीप साहब और राजकपूर ना होते तो फिल्मी दुनिया की तस्वीर आज वैसी ना होती जैसी है! 

Monday, December 12, 2011

दिल्ली-दर-दिल्ली, गालिब की दिल्ली हुई 100 साल की


     हर एक शहर की अपनी एक तहजीब कुछ रवायतें होती हैं जो अपने अंदर उस शहर के वजूद और पहचान को समेटे रहती हैं. गुजिश्ता 100 साल होने को आये दिल्ली को हिंदुस्तान की राजधानी बने. कुछ रवायतों को छोडकर इन सौ सालों में दिल्ली की तहजीब में दशक-दर-दशक कुछ न कुछ बदलाव होता आया है. यह बदलाव गालिब की दिल्ली से लेकर अंग्रेजी  हुक्मरानों की अंग्रेजियत से होते हुए लुटियन की दिल्ली तक पहुंचा और अब, दिल्ली-६ की झूठी दलीलों के बीच से होते हुए देल्ही-बेली की गाली वाली दिल्ली तक पहुंच चुका है. 12 दिसंबर, 1911 को अल-सुबह तकरीबन 80 हजार से भी ज्यादा भीड के बीच ब्रिटेन के किंग जार्ज पंचम ने जब दिल्ली के राजधानी होने का ऐलान किया, तब वहां मौजूद लोग यह समझ भी नहीं पाये कि चंद लम्हों में वो भारत के इतिहास में जुडने वाले एक नये अध्याय का गवाह बन चुके हैं. एक अरसे से चली आ रही दिल्ली की रवायात का वह एक छोटा सा पहलू था, जो ’दिल्ली दूर है‘ की कहावत की तर्जुमानी करता था. इस घटना को आज सौ साल बीत चुके हैं और साल 2011 इतिहास की इसी करवट पर एक नजर डालने का मौका है, जब अंग्रेजों ने एक ऐसे ऐतिहासिक शहर को भारत की राजधानी बनाने का फैसला किया जिसके बसने और उजडने की सफेद-स्याह  दास्तान इतिहास से भी पुरानी है.
     दिल्ली का जिक्र हो और गालिब का जिक्र न हो ऐसा कैसे हो सकता है. हिंदुस्तान की अजीमुशान शख्शियत असदुल्लहा खां गालिब ने तो दिल्ली को गालिब की दिल्ली बना दिया था, जहां अदब की महफिलों में उठने वाली वो वो दाद, वो वाह-वाह बल्लीमारान, चांदनी चौक की गलियों को रौशन किया करते थे. यह गली पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक से मुडकर बल्लीमारान के अंदर जाने पर शम्शी दवाखाना और हकीम शरीफ खां की मसजिद के बीच पडती है. बल्लीमारान वही जगह है, जहां की एक बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती थी, एक पुराने सुखन का सफहा खुलता था और जनाब असदुल्लाह खान गालिब का पता मिलता है. वहीं गालिब ने अपना आखिरी वक्त बिताया, जहां आज भी गालिब की हवेली है. वह हवेली दिल्ली प्रदेश सरकार की हिफाजत में है, लेकिन बल्लीमारन की पेंचीदा दलीलों की सी गलियां आज बदहाली के कगार पर हैं और हादसों के इंतजार में हैं कि न जाने कब कोई इमारत जमींदोज हो जायेंगे  मगर हर हाल में गालिब की दिल्ली का अंदाज शायराना ही होता है. आज भी ’मेरा चैन-वैन सब उजडा... बल्लीमारान से उस दरीबे तलक, तेरी मेरी कहानी दिल्ली में...  के बहाने ही सही, गालिब का बल्लीमारान आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है. बल्लीमारान के उस गौरवमयी इतिहास की एक छोटी सी तसवीर के रूप में गालिब और उनकी दिल्ली को हिंदुस्तान के मशहूर व मआरूफ शायर व गीतकार गुलजार ने एक पोट्र्रेट की शक्ल दी है. कुछ यूँ है...

बल्लीमारां के मोहल्लों की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड पे, बटेरों के कसीदे
गुडगुडाती हुई पान की पीकों में वह दाद, वह वाह-वा
चंद दरवाजों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज
और धुंधलायी हुई शाम के बेनूर अंधेरे 
ऐसे दीवारों से मुंह जोडकर चलते हैं यहाँ
चूडीवालान के कटरे की बडी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाजे टटोले
इसी बेनूर अंधेरी-सी गली कासिम से
एक तरतीब चरागों की शुरू होती है
एक कुरान-ए-सुखन का सफा खुलता है
असदुल्लाह खां गालिब का पता मिलता है...

     जहां गालिब का पता मिलता है, वहीं गालिब की दिल्ली भी मिलती है. गालिब ने कहा था- हमने माना कि तगाफुल ना करोगे लेकिन... खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक... और सचमुच गालिब की दिल्ली हिंदुस्तान की राजधानी बनने से पहले ही गालिब इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गये. जाते-जाते वे अदब की एक ऐसी रवायत छोड गए, जिसके सामने दुनिया की तमाम अदबी रवायतें बौनी नजर आती हैं. गालिब की दिल्ली में बल्लीमारान की गली कासिमजान आज भी उन सबकी पसंद है, जो कबाब का बेहद शौकीन  है या फिर अच्छे मांसाहार का शौक रखता है. अगर आप दिल्ली में हैं और कुछ वक्त मस्ती में खाते-पीते बिताना चाहते हैं तो यकीनन एक ही पसंद होगी बल्लीमारान. लेकिन आज गालिब की दिल्ली का आलम कुछ और ही है. बल्लीमारान की अंधेरी सी गली कासिम आज रौशन जरूर है, लेकिन अब वह दाद, वह वाह-वा की चमक से नहीं, बल्कि अश्लील गालियों की चकाचौंध से. गालिब की उस दिल्ली को याद करते हुए आज की दिल्ली पर मशहूर शायर अनवर जलालपुरी कहते हैं...
कुछ यकीं कुछ गुमान की दिल्ली
अनगिनत इम्तिहान की दिल्ली
ख्वाब, किस्सा, ख्याल,  अफसाना
हाय,  उर्दू जबान की दिल्ली
बेजबानी का हो गयी है शिकार
असदुल्लाह खान की दिल्ली...

दिल्ली दरबार, 12 दिसंबर, 1911

प्रभात खबर 11 दिसंबर, संविधानविद सुभाष कष्यप का इंटरव्यू


Thursday, December 8, 2011

शब की शिफत

शब है तो फसाना-ए-आरजू है
शब है तो हंगामा चार-सू है
          शब है तो उजालों की आजमाइश है
          शब है तो कहकशों की पैमाइश है
शब मुस्कुराये तो चांद तबोताब हो
शब लहराये तो समंदर फैजयाब हो
          शब है तो तारों की रानाई है
          शब है तो आलम-ए-तनहाई है
शब है तो सुबह-ए-इंतजार है
शब है तो बादे-नौ-बहार है
          शब सोये तो पांवों से किरन फूटे
          शब जागे तो चांदनी चमक लूटे
शब हंसे तो गुलों में मसर्रत मचले
शब रोये तो पत्तों पे मोती फिसले
          शब चले तो तारीकी फजा महके
          शब रुके तो महफिल-ए-घटा महके
शब बोले तो फूलों के लब खुल जाये
शब चुप रहे तो नग्मगी मचल जाये
          शब है तो गुलशन-ए-तारीक है
          शब है तो जश्न की तस्दीक है



Wednesday, November 30, 2011

तुझको यूँ चाहा है

तुझको यूँ देखा है, यूँ चाहा है, यूँ पूजा है
तू जो पत्थर की भी होती तो ख़ुदा हो जाती
बेख़ता रूठ गई रूठ के दिल तोड़ दिया
क्या सज़ा देती अगर कोई ख़ता हो जाती
हाथ फैला दिये ईनाम-ए-मोहब्बत के लिये
ये न सोचा कि मैं क्या, मेरी मोहब्बत क्या है
रख दिया दिल तेरे क़दमों पे तब आया ये ख़याल
तुझको इस टूटे हुए दिल की ज़रूरत क्या है
      तुझको यूँ देखा है, यूँ चाहा है, यूँ पूजा है
      तू जो पत्थर की भी होती तो ख़ुदा हो जाती
तेरी उल्फ़त के ख़रीदार तो कितने होंगे तेरे गुस्से का तलबगार मिले या ना मिले लिख दे मेरे ही मुक़द्दर में सज़ायें सारी फिर कोई मुझसा गुनहगार मिले या ना मिले
     तुझको यूँ देखा है, यूँ चाहा है, यूँ पूजा है
     तू जो पत्थर की भी होती तो ख़ुदा हो जाती                                                     
                                      कैफ़ी आज़मी 

Tuesday, November 22, 2011

एक मासूम ख्वाहिश


एक गांव के 
बिल्कुल सीधे-सादे लड़के की
एक मासूम सी ख्वाहिश-

काश!
मेरे पास एक सरकारी नौकरी होती
मेरी शादी हो जाती और मैं
एक मासूम मगर जिद्दी बीवी का
एक भोला सा पति बन जाता।

मेरे पास एक लमरेटा स्कूटर होता
और छुट्टियों के दिन जब
मेरी बीवी घुमाने ले चलने को कहती
तो उस स्कूटर पर उसे बिठाकर
बाजार की तरफ चल देता
बीच रास्ते में रेड लाइट पर
मेरा स्कूटर चुपके से बंद हो जाता
दो-चार किक और घुर्र-घुर्र के बाद
स्कूटर तो नहीं स्टार्ट होता मगर
मेरी बीवी का मासूम गुस्सा स्टार्ट हो जाता
मैं किक पे किक मारता जाता
और वो गाली पे गाली दिये जाती।

जब वो गुस्से में मुझे कोसती हुई 
बड़ी मासूमियत से कहती-
सरकारी नौकर हो मगर अभी भी 
तुम्हारे सपने सरकारी नहीं हुए
कब से कह रही हूं कि अम्पाला न सही
आल्टो, आइटेन या नैनो ही ले लो
और मैं उसकी गुस्सैल मासूमियत पर 
हौले-हौले मुस्कुराता जाता। 

किसी दिन बाजार से सब्जी लाते ही
उसका गुस्सा फिर फूट पड़ता
वो डांटती-
सब्जी भी खरीदना नहीं आया आपको
कुछ भी उठा लाते हैं
ऐसे कि जैसे बिना पैसे के लाते हैं।

और मैं डरा-डरा सा उससे कहता-
एक कप चाय बना दीजिए
कल से आप ही सब्जी ले आइयेगा।

काश!
मेरी भी शादी हो जाती
और मैं किसी का पति बनता।
काश! 
रोज उसकी एक मासूम जिद
मेरी खुशी का कारण बनता।

Friday, November 4, 2011

शब-ए-आरजू



पहले, शब के अंधेरे से 
डर लगता था मुझे,
पर अब, नहीं लगता।
पहले, एक जुंबिश सी उठती थी
तनहाई की,
पर अब नहीं उठती।
पहले, शाम के बेनूर साये
मेरी शब-ए-आरजू को
तारीक बना देते थे,
पर अब नहीं बनाते।
पहले, मेरी रूह
मेरा दिल और मेरा जिस्म
अलग-अलग
टुकड़ों में रहा करते थे,
पर अब नहीं रहते।
पता है क्यों?
कल शब एक ‘शब’ ने
चुपके से कह दिया मुझसे-
'तुम मेरे दिन के ऐसे ‘सूरज’ हो
जिस पर अपनी जुल्फें डाल कर
मैं ‘शब’ बनी हूं...'



Wednesday, November 2, 2011

श्रीलाल शुक्ल की श्रद्धांजलि पर विश्वनाथ त्रिपाठी का इंटरव्यू


अपनी अनूठी धारा के रचनाकार : विश्वनाथ त्रिपाठी


सबसे पहले तो स्वर्गीय श्रीलाल शुक्ल को एक विनम्र श्रद्धांजलि. एक उपन्यासकार के तौर पर श्री शुक्ल उच्च कोटि के रचनाधर्मी थे. साथ में बहुत अच्छे और सुलझे इंसान भी थे. उनकी रचनाधर्मिता ग्रामीण परिवेश की जमीनी सच्चाइयों का विश्‍लेषण करती है, लेकिन इसी विश्‍लेषण के साथ-साथ श्री शुक्ल गंवई व्यवस्था में प्रशासनिक भ्रष्टाचार को लेकर बहुत चिंतित भी रहते थे. वे हिंदी साहित्य की अपनी अनूठी धारा के रचनाकार थे. उनकी भाषा शैली ऐसी थी कि अगर निरा से निरा गंवई आदमी भी पढ़े तो उसे आसानी से समझ में आ जाता है कि ग्रामसभाओं में होने वाले चुनाव और ग्राम प्रधान की दावेदारी में किस तरह की मासूम मगर खतरनाक राजनीति होती है. यह सच्चाई है कि गांव की राजनीति देश की राष्ट्रीय राजनीति से थोड़ी भी कमजोर नहीं होती. इस बात को श्री शुक्ल ने राग दरबारी में साबित किया है और इसी के साथ ग्रामीण व्यवस्था के दुर्गुणों को व्यंग्य के जरिये परिभाषित किया है.
आजादी के बाद लोगों की आकांक्षाएं आसमान छू रही थीं. उन्हें लग रहा था कि अब यह देश एक आदर्श देश बन जायेगा, लेकिन जब ऐसा नहीं हो पाया तो श्री शुक्ल ने राग दरबारी के जरिये सिद्ध किया कि यह ऐसा देश है जो न कभी बदला है और न कभी बदलेगा. आज भी श्री शुक्ल के राग दरबारी की प्रासंगिकता उतनी ही है, जितनी की तब थी. आज जिस तरह से भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलनों का दौर चल रहा है, उसके मद्देनजर हम कह सकते हैं आज के दौर में एक ऐसी कृति का इंतजार रहेगा जो आज का सच बयान कर सके. चाहे वह जमीन अधिग्रहण की त्रासदी हो या भ्रष्टाचार का भस्मासुर, राग दरबारी की प्रासंगिकता यहां पूरी तरह से सिद्ध हो जाती है. यही वजह है कि श्री शुक्ल को एक ऐसा साहित्यकार माना जाता है जो दर्द के तमाम बिंबों को हास्य और व्यंग्य के साहित्यिक रंगों से रंगीन बना देते हैं.
राग दरबारी के जरिये श्रीलाल शुक्ल पर यह आरोप लगता रहा है कि यह व्यंग्य का नहीं, बल्कि हास्य का उपन्यास है. यह बात कुछ हद तक सच भी है, क्योंकि राग दरबारी में व्यंग्य कम है और हास्य ज्यादा. व्यंग्य एक ऐसी विधा है जो प्रतिष्ठा पर प्रहार करता है. लेकिन राग दरबारी में ग्रामीण जीवन की विषमता को प्रदर्शित किया गया है. इसलिए इसमें व्यंग्य की अपेक्षा हास्य ज्यादा नजर आता है. हां, कहीं-कहीं प्रशासनिक व्यवस्था की कमजोरियों का सहारा लेकर उन्होंने व्यंग्य कसा है. यही उपन्यास की मूल भावना बनी और इसे व्यंग्य उपन्यास कहा गया और है भी. व्यंग्य हमेशा प्रतिरोध की रचनाधर्मिता को पैदा करता है, लेकिन राग दरबारी में प्रतिरोध नहीं है, बल्कि ग्राम्य जीवन की उदासीनता की ऐसी परिस्थितियां हैं जो इंसान को हंसने के लिए मजबूर तो करती हैं, साथ ही साथ सोचने के लिए भी प्रेरित करती हैं.
श्रीलाल शुक्ला के रचना संसार में उनके उपन्यास ‘राग दरबारी’ ने उनके लिए एक नया साहित्यिक प्रतिमान गढ़ा था. राग दरबारी और श्रीलाल शुक्ल को एक-दूसरे का पर्याय कहा जाये तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी. बीते कई दशकों में हिंदी उपन्यासों में अगर किसी उपन्यास को लोगों ने खूब पढ़ा है, तो वह राग दरबारी ही है. आजादी के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास ‘राग दरबारी’ (1968) के लिए उन्हें 1969 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ.
आजादी के बाद की सामाजिक, लोकतांत्रिक और राजनीतिक व्यवस्था की खामियों पर हंसता हुआ यह उपन्यास जब लिखा गया था तब यह एक ऐसे व्यंग्य उपन्यास के रूप में लोगों के बीच आया, जो उस वक्त हिंदी साहित्य जगत के लिए एकदम नयी चीज थी. साधारणत: व्यंग्य शैली का प्रयोग तब तक लघुकथा या कहानियों में ही देखा जाता रहा था, लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने रागदरबारी लिखकर यह साबित कर दिया था कि व्यंग्य का प्रयोग उपन्यास में भी हो सकता है. यही श्रीलाल शुक्ल की साहित्यिक शक्ति है और उनकी रचनाधर्मिता है. रचनाशीलता को उन्होंने किसी र्ढे में नहीं बंधने दिया. रागदरबारी के बाद आज भी हिंदी साहित्य में ऐसी कोई औपन्यासिक कृति नहीं आयी.
राग दरबारी की चर्चा करते हुए अकसर यह कहा जाता है कि श्रीलाल शुक्ल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के विकास के मॉडल पर व्यंग्य कसा था, जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि जब यह उपन्यास लिखा गया था तब नेहरू जी इस दुनिया में नहीं थे. हां दूसरी बात यह कही जा सकती है कि नेहरू जिस समाजवादी व्यवस्था को लाना चाहते थे और दिन-रात जिसका सपना देखते थे, वे पूरे नहीं हुए. राग दरबारी नेहरू की इस प्रभावहीनता पर व्यंग्य है, न कि उनके विकास के किसी मॉडल पर.
दरअसल आजादी के बाद का हर भारतीय यही सोचता था कि नेहरूयुगीन समाजवादी भारत में सबकुछ हरा-भरा होगा, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ. पंचवर्षीय योजनाएं बनीं, पंचायती राज व्यवस्था, भूमि सुधार आदि के बारे में बड़ी-बड़ी बातें हो रही थीं, लेकिन इन सभी योजनाओं के बावजूद भारत की ग्रामीण व्यवस्था में भ्रष्टाचार के दीमक लगने शुरू हो गये. बस श्रीलाल शुक्ल ने इसी बात को अपने व्यंग्य अंदाज में राग दरबारी की शक्ल दे दी.
लोग मुझसे पूछ चुके हैं कि उन्हें ज्ञानपीठ देर से क्यों मिला? दरअसल ज्ञानपीठ उन्हीं साहित्यकारों को मिलता है जो बहुत वरिष्ठ होते हैं. किसी नौजवान को ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिलता. देर ही सही, लेकिन ज्ञानपीठ ने सम्मानित करके उनकी प्रतिष्ठा को एक ऊंचा आयाम दिया है.

Sunday, October 30, 2011

अब एक और नज्म *शब*


न शब-ए-वस्ल, न शब-ए-फिराक, न शब-ए-फुरकत
न शब-ए-गम, न शब-ए-उफ, न शब-ए-हिजरत।
न शब-ए-जां, न शब-ए-जाना, न शब-ए-जान-ए-जहां
न शब-ए-दम, न शब-ए-खम, न शब-ए-कुरबत।।

न शब-ए-इश्क, न शब-ए-मुश्क, न शब-ए-आरजू
न शब-ए-उन्स, न शब-ए-शौक, न शब-ए-जुस्तजू।
न शब-ए-यार, न शब-ए-प्यार, न शब-ए-आशना
न शब-ए-ऐर, न शब-ए-गैर, न शब-ए-तू-ही-तू।।

न शब-ए-हर्फ, न शब-ए-लफ्ज़, न शब-ए-तहरीर
न शब-ए-आस, न शब-ए-प्यास, न शब-ए-तदबीर।
न शब-ए-रंग, न शब-ए-नूर, न शब-ए-हिकमत
न शब-ए-आह, न शब-ए-अश्क, न शब-ए-तकदीर।।

वल्लाह कुछ भी नहीं, फिर भी ये बदगुमानी क्यों?
तू गर मिसाल है तो मिसाल-ए-नातवानी क्यों?
तू गर हुस्न है तो है बेनकाब क्यों आखिर?
तू गर इश्क है तो बे-फैज-ए-याब क्यों आखिर?

Saturday, October 29, 2011

एक और नज़्म *शब*


मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


   *पास उसके एक चेहरा-ए-चांद भी है,
     चांदनी जिसके रुखसार से निकलती है।
     टिमटिमाते हैं निगाहों के दो ताबिश तारे, 
     हर तसादुम पे शब-ए-आरजू मचलती है।।

               उसके गेसू जो ढलकते हैं कभी शानों पर,
               पिघलकर शाम बे-अंदाज हुआ करती है।
               मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
               आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


   *वो नकूश गो शबाब-ए-शौक-ए-अंगड़ाई,
     वो जिस्म है कि बादलों की तर्जुमानी है।
     वो हुस्न-ए-मुजस्सम, वो तब-ओ-ताब-ए-बदन,
     वो लोच है या किसी बर्क की जवानी है।।

               दो लब कि जैसे शोखी-ए-गुल-ए-नग्मा,
               गर खुलें तो गजल ठहर जाया करती है।
               मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
               आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


Thursday, October 27, 2011

शब-ए-दिवाली




शब-ए-दिवाली है या फिजा-ए-आतिश-ए-शब है।
ये आतिशबाजियां है या तेरा हुस्न जगमगाता है ।।

मिला जो शब से आब, हुआ शबाब मुकम्मल।
तेरा शुक्र तु शब है, तो मुझे भी आब बना दे।।


दिल तंग चरागों के पुरनूर रहे शब भर
पर देख उजालों को बेनूर सुबह दम थे।
समझे थे जिन्हें मोती हम शब के अंधेरे में
देखा जो सुबह तो सब कतरा-ए-शबनम थे।।

Saturday, October 22, 2011

एक नज़्म ‘शब’


न तो इकरार की ‘शब’ है न तो इनकार की ‘शब’ है।
वल्लाह ‘शब’ है या कि इश्क-ए-बेकरार की ‘शब’ है।।

     तुम्हारे शहर से तो बच के अब जाना नहीं मुमकिन।
     ये खंजरों का दिन और ये तलवार की ‘शब’ है।।

घनेरी जुल्फ में रोशन रुख-ए-महताब की चमक।
नूर की बूंद है या कि गुल-ए-रुखसार की ‘शब’ है।।

     निगाह-ए-नाज पे पल्कों का झिंगुर गीत गाता है।
     के जैसे छुट्टियों की सुरमयी बुधवार की ‘शब’ है।।

छुपी शीशे के परदे में कयामतखेज सी आंखें।
उठे तो इश्क की सुबह, झुके तो प्यार की ‘शब’ है।।

     मैं शहर में उसके एक दहकते दिन की तरह हूं।
     और वो खयाल में मेरे एक आबशार की ‘शब’ है।।

ये चांदनी का बदन और उसपे शोखी-ए-खुश्बू।
मचल रही है गोया बादे-नौ-बहार की ‘शब’ है।।

     यूं इश्क की रुसवाइयों का मुन्तजिर होकर।
     मैं तन्हा ही बहुत खुश हूं कि इंतजार की ‘शब’ है।।

ये लब हैं या कि ‘अकरम’ की गजल के एक-दो मिसरे।
ये लरजिश है या आहट सी कोई इजहार की ‘शब’ है।।

Wednesday, October 19, 2011

कबसे हसरत थी


कबसे हसरत थी मुझे


एक मासूम सी ख्वाहिश थी

एक अदना सा तकाजा था

एक छोटी सी इल्तिजा थी

एक बोसीदा सा तसव्वुर था

एक सहमी सी आरजू थी

एक ठहरा सा वलवला था


कि तुम किसी ‘शब’

मेरी महफिल-ए-नाज में

यूं भी आते

यूं भी आते और

अपनी गुदाज बाहों में भरकर

मेरे रूहानी लम्स को जीते।


या किसी ‘शब’ तुम 

यूं भी आते और 

रूखी सी फिजा को छूकर

उसे ‘नम’ करते।


तो मुझे

अपने जिस्म-ओ-जां की

सभी राहतें

तुम्हें सौंप देने में

तकल्लुफ न होता जरा भी ।


कबसे हसरत थी मुझे

कबसे?

शायद! अभी से!

शायद! कल से!

या शायद! अजल से!


कबसे हसरत थी मुझे...

प्रभात खबर 15 अक्तूबर, कमर आगा का इंटरव्यू


Monday, October 3, 2011

जेहनो-दिल का रावण


इस बार दशहरे में फिर
हम जलायेंगे रावण
शायद इस बार
भ्रष्टाचार रूपी रावण की बारी है
उसे जलाकर हम मनायेंगे जश्न
बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न।

बुराई के बजाय
बुराई के प्रतीक को जलाकर
कितना खुश होते हैं हम
और अगली सुबह से ही
अपने कारोबार को फिर
जीने लगते हैं वैसे
जैसे रोज जिया करते थे इससे पहले, 
शराब पीकर सडक पर
बेवजह रिक्शे वाले को डांटकर
उसे अन्ना बनने का 
बेवकूफी भरा मशवरा दे डालते हैं।

खुद में बुराई ढूंढने की बजाय
दुनिया को बुरा कहने से 
कभी नहीं हिचकते हम
कंधे पर गुनाहों की पोटली लिये
दर-ब-दर भटकते हैं
मगर दूसरे को गाली देने से 
बाज नहीं आते कभी भी।

कागजी रावण तो
मर जाता है हर साल
मगर 
हमारे जेहनो दिल में रोज
जन्म लेता है एक रावण।

जिस दिन हम खुद को
गाली देना सीख लेंगे
उस दिन हमारे दिल का रावण भी
मर जायेगा खुद-ब-खुद।

Wednesday, September 28, 2011

पतंगे का वजूद


अजीब हरकत है
समंदर के लहरों की
हौले से पास आयें
तो पैरों में कोई राग उड़ेल कर
नग्मगी करती हैं मीठी सी
और अगर कभी
अपनी औकात पर आ जायें
तो इंसानी वजूद को भी
रेत का जर्रा समझ लेती हैं गोया

मगर उनके वजूद को भी
बिखरते देखा है मैंने
जब कोई अदना सा पतंगा
तेज लहरों के उपर बैठकर
रक्स करता है पलभर के लिए
उनके शोर को
कैद कर लेता है अपने पंखों में

रेत पर इंसानी कदमों के निशान
मिटते देर नहीं लगती जरा भी
मगर तेज लहरों की बूंदों पर
पतंगों के कदमों के निशान
ऐसे अक्सनशीं हो जाते हैं जैसे
अजल से ये चांद तारे
अक्सनशीं हैं आसमां पर...

Friday, September 16, 2011

एक नौकरीशुदा महीना


Wasim Akram
नौकरीशुदा एक महीने के चार हफ्ते
चार युग की तरह होते हैं जैसे
पहला हफ्ता सतयुग की तरह
सैलरी आती है जिसमें
हम बहुत अमीर हो जाते हैं
और सुख-दुख का फर्क
जरा सा भूल जाते हैं कुछ दिनों के लिए।
जिसने पैसे मांगे उसे दिया
और जिसने नहीं मांगे उसे भी दिया,
उन्हीं दिनों ऐसा भी लगता है
कि कहीं न कहीं 'काम का इश्क'
गढ़ता है 'पैसे का हुस्न'।

दूसरा हफ्ता द्वापर की तरह
घर का किराया, राशन का खर्च
और कुछ देनदारियों को मिलाकर
खत्म हो जाती है आधी सैलरी
फिर एक मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया की तरह
जुट जाते हैं जोड़-घटाव करने।

Wasim Akram
तीसरा हफ्ता त्रेता की तरह होता है जैसे
मस्तियां पास आये तो हां भी नहीं
हां मगर पूरी तरह ना भी नहीं
और एक चैथाई बची सैलरी में जैसे-तैसे
चलते-चलाते, चुकते-चुकाते
जरा सा बचता है चौथे हफ्ते कलयुग के लिए।
ऐसा लगता है उस वक्त
के 'काम का इश्क'
बिलकुल नहीं गढ़ता 'पैसे का हुस्न'
बल्कि अगली सैलरी के इंतजार में
पैसे का हुस्न ही
गढ़ने लगता है काम के इश्क को।

इसी बीच आफिस जाते हुए किसी दिन
बचते हैं किराये भर के पैसे जेब में जब
कि कोई अपना सा आकर पास हमारे
अपनी जरूरत के लिए मासूम आग्रहों से
उसे भी छीन ले जाता है हमसे
और महीने के आखिरी दो से तीन दिन तो
किसी घोर कलयुग की तरह गुजरते हैं जैसे,
एक कर्ज में हैं मगर फिर
जरूरत पड़ जाती है एक और कर्ज की,
मुश्किल ऐसा कि
थकन से सिर में दर्द हो अगर
तो भी नहीं ले पाते हम दवा कोई।

मगर अगली सुबह ताजगी है चेहरे पर
हम बहुत खुश हैं कि आज सैलरी का दिन है।

Monday, September 12, 2011

कब मिलेगी देश को राष्ट्र भाषा


      किसी देश और उसकी संस्कृति को जानना हो तो सबसे पहले उसकी भाषा को जानना चाहिए, क्योंकि किसी भी देश की भाषा उसकी संस्कृति की वाहक होती है। भाषा के परों पर सवार होकर ही कोई देश अपनी सभ्यता के उन्नत पड़ाओं को पार करता है। गाँधी जी ने भी कहा था की ''राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है|'' इसलिए देश की अखंडता के लिए बहुत जरूरी है कि पूरा देश अपनी राष्ट्र भाषा में ही बात करें, व्यापार करें, लोकाचार करें और शिक्षा पाये। अन्यथा दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं सर उठाये खड़ी हो जायेंगी और अखंडता के लिए एक चुनौती बन जायेंगी। मनसे और शिवसेना के मराठी मानूस और असम का उदाहरण हमारे सामने है। और पंजाब को हम देख ही रहे हैं जहां बाजार में सारे होर्डिंग पंजाबी में लिखे हैं।
      हमारी सरकारी भाषा के महत्व को कम आंकती रही हैं, तभी तो 64 साल गुजर गये आजादी के मगर हिंदी अभी भी संसद के गलियारों में बेबस, लाचार होकर भटक रही है, क्योंकि अभी तक हम इसे राष्ट्रभाषा के रूप में पूरी तरह से अपना नहीं पाये हैं। और दो सौ सालों की गुलामी की भाषा अंग्रेजी आज सेना, सरकार, बाजार से लेकर शिक्षा और लोकाचार तक फैली अघोषित तौर पर हमारी राष्ट्रभाषा के रूप में राज कर रही है। देश के तमाम नेताओं ने कहा था कि जब तक हिंदी कामकाज नहीं संभाल लेती, तब तक ये दोनों भाषाएं यानी साथ में अंग्रेजी भी काम करे। हिंदी कामकाज संभाल ले तो उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। इसकी समय सीमा भी तय की गयी कि 1965 तक हिंदी राज का कामकाज संभाल लेगी। और तब अंग्रेजी को मुख्य राजभाषा के पद से मुक्त कर हिंदी को मुख्य राजभाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। ‘‘दे दिया जायेगा’’ भविष्य काल का यह वाक्य यह बताने के लिए काफी है कि इस प्रक्रिया की कोई निष्चित समय-सीमा नहीं है। और इसी लिए अभी तक हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रावधान भविष्य के कालचक्र में फंसा हुआ है।
      3 मार्च, 2010 को राज्यसभा में सत्यव्रत चतुर्वेदी और मोतीलाल वोरा ने प्रश्न संख्या 653 में पूछा कि क्या सरकार का ध्यान हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय के उस कथन की ओर गया है, जिसके अनुसार भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है और हिंदी आधिकारिक तौर पर राष्ट्रभाषा नहीं है और नहीं है’’ तो हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही है? तात्कालीन गृहराज्यमंत्री अजय माकन ने जवाब देते हुए कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिंदी संघ की राजभाषा है।’’ इस जवाब को सुनने के बाद आश्चर्य यह है कि किसी ने सरकार से यह नहीं पूछा कि इस देश को उसकी राष्ट्रभाषा कब मिलेगी?
      14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को संघ की राजभाषा के तौर पर स्वीकार किया। 1955 में बीजी खेर आयोग बना और 1956 में रिपोर्ट भी पेश की गयी।
      जवाहर लाल नेहरू के आष्वासन को ध्यान में रखते हुए राजभाषा अधिनियम बनाया गया। तब से लेकर अब तक कितनी सरकारें आयीं और गयीं मगर राष्ट्रभाषा के नाम पर सब मौन रहीं। यहां तक कि हिंदी प्रदेशों के सांसद भी इसके लिए कुछ नहीं किये। यह एक विडम्बना ही तो है कि संसद में सांसदों की वेतनवृद्धि का बिल आते ही पास हो जाता है मगर संसद के दरवाजे पर 64 साल से खडी हिंदी ठिठकी, सहमी और सकुचाई सी अंग्रेजी के कुर्सी खाली करने का इंतजार कर रही है। सिर्फ सरकार ही नहीं भारतीय हिंदी मीडिया भी कम दोषी नहीं है। हिंदी अखबारों में अंग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि का धडल्ले से प्रयोग हो रहा है। अखबार अब द्विभाषी होने लगे हैं, मगर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों की लंबी-चौड़ी जमात भी इसके विनाशकारी खतरों की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है।
      देश की 43 प्रतिशत आबादी यानी लगभग 35 करोड लोग हिंदी बोलने-समझने वाले हैं, जबकि पूरे विश्व में हिंदी जानने वालों की संख्या लगभग 80 से 85 करोड है। इसके बावजूद भी हिंदी की जिस तरह उपेक्षा हो रही है वह काबिले-गौर है। हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में ही पढाना पसंद करते हैं क्योंकि बडा होकर उसे नौकरी करनी है। बाजार की दृष्टि से यह स्थिति सुखद हो सकती है, लेकिन एक राष्ट्र के आत्म सम्मान की दृष्टि से नहीं। अंग्रेजी जिस रफतार से बढ रही है, उससे तो हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने का सपना षायद ही कभी साकार हो। भारत में बोली जाने वाली भाषाओं के बारे में 2001 की जनगणना की रिपोर्ट यह कहती है कि, भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या इस कदर बढ रही है कि वह ब्रिटेन की कुल आबादी से दोगुनी से भी ज्यादा हो गयी है। यही नहीं भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या ने ब्रिटेन को छोड समूचे यूरोप को पीछे छोड दिया है। जबकि पूरी दुनिया में 6141 भाषाएं हैं, जिनमें सर्वाधिक हिंदी बोली जाती है। विष्व की प्राचीनतम एवं एक मात्र वैज्ञानिक भाषा संस्कृत के सरलीकृत स्वरूप हिंदी का उसी की जन्म भूमि पर तिरस्कार हो रहा है और इसके जिम्मेदार खुद हमीं हैं। डाॅ फादर कामिल बुल्के ने कहा था कि-संस्कृत मां, हिंदी गृहणी और अंगे्रजी नौकरानी है।’’ मगर आज आलम यह है कि एक नौकरानी ही रानी बन बैठी है। यही रानी जिसे 2001 की जनगणना के अनुसार अपनी मातृभाषा घोषित करने वाले 10000 में मात्र दो लोग थे यानी .02 प्रतिषत। यह भी एक विडंबना ही है।
      सारी विडंबनाओं के बीच ख़ुशी की बात यह है कि राष्ट्रभाषा के नाम पर संसद में चुप्पी साधने वाले लोग हिंदी को विश्वभाषा बनाने के लिए पिछली सत्र में उठ खडे हुए थे। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए कुछ नेता प्रयासरत हैं। 2010 के मानसून सत्र में विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने लोकसभा में यह जानकारी देते हुए कहा कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में शामिल करने के लिए प्रयास किया जा रहा है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में 6 भाषाएं मौजूद हैं। चीनी, अरबी, रसियन, स्पैनिश, इंग्लिश और फ्रेंच। इन्हें सम्मिलित रूप से कारसेफ (सी ए आर एस इ एफ) कहा जाता है। यह पूछे जाने पर कि क्या इसके लिए फंड उपलब्ध कराया जा रहा है, कृष्णा ने कहा था कि बात फंड की नहीं, जरूरत मतों की संख्या की है।
      हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जरूरी संख्या में मत चाहिए। अमेरिका स्थित अप्रवासी भारतीय भी इसके लिए प्रयासरत हैं। फिलहाल संयुक्त राष्ट्र प्रति सप्ताह हिंदी में बुलेटिन जारी करता है। यह सुनकर हम शायद खुश हो लें और बल्लियों उछल भी लें कि चलो, हिंदी राष्ट्रभाषा न सही संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा तो बन जायेगी। और हिंदी-हिंदी करने वाले लोगों को विदेश में हिंदी दिवस मनाने का मौका भी मिलने लगेगा। मगर इन सबके बावजूद भी हिंदी का कितना भला होने वाला है? क्या द्विभाषी अखबार बंद हो जायेंगे? क्या शिक्षा व्यवस्था में कोई बदलाव आयेगा? क्या हिंदी रोजगार की भाषा बन पायेगी? क्या असम और महाराष्ट्र के लोग हिंदी भाषियों का विरोध करना बंद कर देंगे? और क्या हमारा देश अपनी राष्ट्र भाषा का गौरव प्राप्त कर पायेगा? यह सब अभी किसी सपने जैसा है। फिर भी, आइये बढते हैं अगले पडाव की ओर  और मनाते हैं एक और हिंदी दिवस। ठीक वैसे ही जैसे दशहरा, दिवाली, ईद, होली आदि धूमधाम से मनाते हैं। इस उम्मीद के साथ कि आने वाले दिनों में हिंदी भारतवर्ष की न केवल राष्ट्रभाषा होगी, वरन संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा भी होगी।