अपनी अनूठी धारा के रचनाकार : विश्वनाथ त्रिपाठी
सबसे पहले तो स्वर्गीय श्रीलाल शुक्ल को एक विनम्र श्रद्धांजलि. एक उपन्यासकार के तौर पर श्री शुक्ल उच्च कोटि के रचनाधर्मी थे. साथ में बहुत अच्छे और सुलझे इंसान भी थे. उनकी रचनाधर्मिता ग्रामीण परिवेश की जमीनी सच्चाइयों का विश्लेषण करती है, लेकिन इसी विश्लेषण के साथ-साथ श्री शुक्ल गंवई व्यवस्था में प्रशासनिक भ्रष्टाचार को लेकर बहुत चिंतित भी रहते थे. वे हिंदी साहित्य की अपनी अनूठी धारा के रचनाकार थे. उनकी भाषा शैली ऐसी थी कि अगर निरा से निरा गंवई आदमी भी पढ़े तो उसे आसानी से समझ में आ जाता है कि ग्रामसभाओं में होने वाले चुनाव और ग्राम प्रधान की दावेदारी में किस तरह की मासूम मगर खतरनाक राजनीति होती है. यह सच्चाई है कि गांव की राजनीति देश की राष्ट्रीय राजनीति से थोड़ी भी कमजोर नहीं होती. इस बात को श्री शुक्ल ने राग दरबारी में साबित किया है और इसी के साथ ग्रामीण व्यवस्था के दुर्गुणों को व्यंग्य के जरिये परिभाषित किया है.
आजादी के बाद लोगों की आकांक्षाएं आसमान छू रही थीं. उन्हें लग रहा था कि अब यह देश एक आदर्श देश बन जायेगा, लेकिन जब ऐसा नहीं हो पाया तो श्री शुक्ल ने राग दरबारी के जरिये सिद्ध किया कि यह ऐसा देश है जो न कभी बदला है और न कभी बदलेगा. आज भी श्री शुक्ल के राग दरबारी की प्रासंगिकता उतनी ही है, जितनी की तब थी. आज जिस तरह से भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलनों का दौर चल रहा है, उसके मद्देनजर हम कह सकते हैं आज के दौर में एक ऐसी कृति का इंतजार रहेगा जो आज का सच बयान कर सके. चाहे वह जमीन अधिग्रहण की त्रासदी हो या भ्रष्टाचार का भस्मासुर, राग दरबारी की प्रासंगिकता यहां पूरी तरह से सिद्ध हो जाती है. यही वजह है कि श्री शुक्ल को एक ऐसा साहित्यकार माना जाता है जो दर्द के तमाम बिंबों को हास्य और व्यंग्य के साहित्यिक रंगों से रंगीन बना देते हैं.
राग दरबारी के जरिये श्रीलाल शुक्ल पर यह आरोप लगता रहा है कि यह व्यंग्य का नहीं, बल्कि हास्य का उपन्यास है. यह बात कुछ हद तक सच भी है, क्योंकि राग दरबारी में व्यंग्य कम है और हास्य ज्यादा. व्यंग्य एक ऐसी विधा है जो प्रतिष्ठा पर प्रहार करता है. लेकिन राग दरबारी में ग्रामीण जीवन की विषमता को प्रदर्शित किया गया है. इसलिए इसमें व्यंग्य की अपेक्षा हास्य ज्यादा नजर आता है. हां, कहीं-कहीं प्रशासनिक व्यवस्था की कमजोरियों का सहारा लेकर उन्होंने व्यंग्य कसा है. यही उपन्यास की मूल भावना बनी और इसे व्यंग्य उपन्यास कहा गया और है भी. व्यंग्य हमेशा प्रतिरोध की रचनाधर्मिता को पैदा करता है, लेकिन राग दरबारी में प्रतिरोध नहीं है, बल्कि ग्राम्य जीवन की उदासीनता की ऐसी परिस्थितियां हैं जो इंसान को हंसने के लिए मजबूर तो करती हैं, साथ ही साथ सोचने के लिए भी प्रेरित करती हैं.
श्रीलाल शुक्ला के रचना संसार में उनके उपन्यास ‘राग दरबारी’ ने उनके लिए एक नया साहित्यिक प्रतिमान गढ़ा था. राग दरबारी और श्रीलाल शुक्ल को एक-दूसरे का पर्याय कहा जाये तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी. बीते कई दशकों में हिंदी उपन्यासों में अगर किसी उपन्यास को लोगों ने खूब पढ़ा है, तो वह राग दरबारी ही है. आजादी के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास ‘राग दरबारी’ (1968) के लिए उन्हें 1969 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ.
आजादी के बाद की सामाजिक, लोकतांत्रिक और राजनीतिक व्यवस्था की खामियों पर हंसता हुआ यह उपन्यास जब लिखा गया था तब यह एक ऐसे व्यंग्य उपन्यास के रूप में लोगों के बीच आया, जो उस वक्त हिंदी साहित्य जगत के लिए एकदम नयी चीज थी. साधारणत: व्यंग्य शैली का प्रयोग तब तक लघुकथा या कहानियों में ही देखा जाता रहा था, लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने रागदरबारी लिखकर यह साबित कर दिया था कि व्यंग्य का प्रयोग उपन्यास में भी हो सकता है. यही श्रीलाल शुक्ल की साहित्यिक शक्ति है और उनकी रचनाधर्मिता है. रचनाशीलता को उन्होंने किसी र्ढे में नहीं बंधने दिया. रागदरबारी के बाद आज भी हिंदी साहित्य में ऐसी कोई औपन्यासिक कृति नहीं आयी.
राग दरबारी की चर्चा करते हुए अकसर यह कहा जाता है कि श्रीलाल शुक्ल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के विकास के मॉडल पर व्यंग्य कसा था, जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि जब यह उपन्यास लिखा गया था तब नेहरू जी इस दुनिया में नहीं थे. हां दूसरी बात यह कही जा सकती है कि नेहरू जिस समाजवादी व्यवस्था को लाना चाहते थे और दिन-रात जिसका सपना देखते थे, वे पूरे नहीं हुए. राग दरबारी नेहरू की इस प्रभावहीनता पर व्यंग्य है, न कि उनके विकास के किसी मॉडल पर.
दरअसल आजादी के बाद का हर भारतीय यही सोचता था कि नेहरूयुगीन समाजवादी भारत में सबकुछ हरा-भरा होगा, लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ. पंचवर्षीय योजनाएं बनीं, पंचायती राज व्यवस्था, भूमि सुधार आदि के बारे में बड़ी-बड़ी बातें हो रही थीं, लेकिन इन सभी योजनाओं के बावजूद भारत की ग्रामीण व्यवस्था में भ्रष्टाचार के दीमक लगने शुरू हो गये. बस श्रीलाल शुक्ल ने इसी बात को अपने व्यंग्य अंदाज में राग दरबारी की शक्ल दे दी.
लोग मुझसे पूछ चुके हैं कि उन्हें ज्ञानपीठ देर से क्यों मिला? दरअसल ज्ञानपीठ उन्हीं साहित्यकारों को मिलता है जो बहुत वरिष्ठ होते हैं. किसी नौजवान को ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिलता. देर ही सही, लेकिन ज्ञानपीठ ने सम्मानित करके उनकी प्रतिष्ठा को एक ऊंचा आयाम दिया है.
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