Tuesday, May 27, 2014

चम्मचों में बंटे वामपंथ को कड़ाही बनना होगा

Atul Kumar Anjan and Wasim Akram
सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत के साथ ही कई छोटी पार्टियों की बुरी हार हुई है। वामपंथी पार्टियां भी उनमें शामिल हैं। वाम मोरचे के गिरते हुए जनाधार को देखते हुए ऐसा माना जा रहा है कि वामपंथ अब ​हाशिये पर चला जायेगा। वामपंथी आंदोलन भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण धारा है, लेकिन पिछले कुछ समय से वामपंथी पार्टियां चुनावी अखाड़े में लगातार हाशिये पर जा रही हैं और उनके जन-संगठन भी कमजोर होते जा रहे हैं। इस बार के लोकसभा चुनावों में एक ओर जहां दक्षिणपंथी भाजपा व उसके सहयोगी दलों को भारी जीत हासिल हुई है, वहीं वाम मोरचे को गिनती की सीटें मिली हैं। वामपंथी राजनीति के वर्तमान और भविष्य के विभिन्न पहलुओं पर हमने अपने छात्र-जीवन से ही वामपंथी राजनीति में सक्रिय, वर्तमान में कम्यूनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया (सीपीआइ) के राष्ट्रीय सचिव, अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव और एक तेज-तर्रार एवं मुखर राजनेता कॉमरेड अतुल कुमार अंजान से प्रभात खबर के लिए बात की...


1-  भाजपा की अप्रत्याशित जीत और कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के साथ इस चुनाव में वामपंथी दलों को भी भारी हार हुई है. गरीब-किसानों की पार्टी कहे जानेवाले वाम के जनाधार कम होने के क्या कारण हैं, जबकि देश में अब भी गरीबों की ही ज्यादा संख्या है?
          हमारी पार्टी गरीब-किसानों की पार्टी है, मजदूर और हाशिये पर पड़े लोगों की पार्टी है, अल्पसंख्यकों की पार्टी है, लेकिन अब सिर्फ गरीब-गरीब कहने से ही काम नहीं चलनेवाला है. अब जरूरत है उनके भावनाओं के साथ जुड़ने की. उनके अंदर जो परिवर्तन हो रहा है, उस परिवर्तन को अगर बारीकी से हम नहीं देखेंगे, और उस आधार पर कोई ठोस रणनीति नहीं बनायेंगे, तो वे सिर्फ हमारे नाम के लिए थोड़े हमें वोट देने जायेंगे. डायनॉमिजम और डायनॉमिक्स दोनों अलग-अलग चीजें हैं. हमारे यहां जो डायनॉमिक्स में बदलाव आ रहा है, उसके लिए एक नये डायनॉमिजम की जरूरत है.

2-  तो किस तरह का होना चाहिए वह डायनॉमिजम?

         मोर कनेक्ट टू मोर प्यूपिल... यानी गरीबों-किसानों के साथ परस्पर जुड़ाव जरूरी है. उनके साथ सहभागिता और उनके मुद्दों पर गहरी विवेचना करने की जरूरत है. वर्षों से चली आ रही पार्टी की रस्म अदायगी को छोड़ कर उनके एहसास में रच-बस जाने का दौर है. और सबसे ज्यादा जरूरी है दीर्घकालिक संघर्ष चलाना.

3-  लेकिन ये सब तो इस चुनाव में होने चाहिए थे. तो आखिर क्यों नहीं किया आपने और आपकी पार्टी ने?

        सब हो रहा था, लेकिन उसका इतना असर नहीं पड़ा. अब क्या कीजियेगा! हम लोग मूर्ख नहीं हैं. हमने पूरे आठ साल से संघर्षरत होकर पॉस्को को रोका हुआ है. ये बात और है कि इस चुनाव में उस संघर्ष का प्रतिफलन नहीं हुआ. क्योंकि संघर्ष एक अलग चीज है और चुनाव एक दूसरी चीज है. यह भी अब एक नयी परिभाषा आ गयी है. चुनाव के लिए संघर्ष आपका एक आधार बन सकता है, लेकिन चुनाव में अब जाति, धर्म और संकीर्णताओं की मूख्य भूमिका होने लगी है. धन की भूमिका तो है. अब इन तीनों से हम कैसे निपटें? इन तीनों का कम्यूनिस्ट पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है. जिस दिन हम इन तीनों के साथ जुड़ जायेंगे, उस दिन हम कम्यूनिस्ट पार्टी नहीं रह जायेंगे.

4-   भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है. माना जा रहा है कि देश ने ऐसा जनादेश विकास के वायदों पर दिया है. अगर उन वायदों को पूरा करने में कोई कोर-कसर होगी, तो क्या भाजपा की इस प्रचंड विजय के बाद भारत की राजनीति गैरकांग्रेसवाद से अब गैरभाजपावाद की ओर रुख करेगी?

          इस मामले में कुछ चीजें बहुत महत्वपूर्ण है. उनमें से एक है देश में बदलाव की भावना. कांग्रेस कहती है कि उसने अच्छी-अच्छी नीतियां बनायी, लेकिन वह देश को बता नहीं पायी. तो सवाल है कि आपको किसने कहा था कि आप जनता को मत बताइये. आप कनेक्ट नहीं हो पाये, क्योंकि आप कलेक्ट करते रहे. जनता से कनेक्ट होना आपकी प्राथमिकता में थी ही नहीं. आप सिर्फ मलाइदार तबकों और देश के कॉरपोरेट घरानों से कलेक्ट करने में लगे थे. तो जब आप माल कलेक्ट कर रहे थे, तो हम जनता से कनेक्ट कैसे होते? कारण, आपने गैस, डीजल, तेल आदि के दाम बढ़ा दिये. आपने डाई के दाम 260 रुपये से बढ़ाके 1200 रुपये कर दिया, इसका क्या औचित्य है? देश के किसानों को तो कांग्रेस ने अपने खिलाफ कर दिया. चलते-चलते यूरिया के दाम भी 28 सौ रुपये टन कर दिये. एक साल में साढ़े आठ रुपये डीजल के दाम बढ़ाये. अब यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि किसान-मजदूर आपके साथ खड़े होंगे. आप लगातार ऐसे-ऐसे समझौते कर रहे हैं, जिससे विदेशी सामान हमारे बाजारों पर कब्जा करते जा रहे हैं. आज हिंदुस्तान के हर घर में चाइनीज उत्पाद मिलते हैं. अगर आज चीनी टॉर्च न हो तो गांव के लोग ठीक से खाना भी न खा पायें, क्योंकि गांव में बिजली मिलती नहीं और शहरों में भी गायब रहती है. राधा जी को कृष्ण जी पिचकारी से रंग डाल रहे हैं, यह भी चीन से बन के आ गया. मक्का-मदीन के पोस्टर चीन से आने लगे. शिवलिंग भी चीन के ही बिक रहे हैं. दीवाली पर अब कोई मिट्टी का दिया नहीं जलाता, बल्कि 20-30 रुपये में इलेक्ट्रॉनिक दिये की लड़ी मिल जाती है. कांग्रेस ने जो 312 नयी फ्री ट्रेड समझौते किये हैं, जो 2014-15 से लागू होंगे, जिसके तहत विदेशों से कटी-कटाई सब्जियां आयेंगी, फल आयेंगे आदि, तो क्या इससे लोग कनेक्ट हो पायेंगे. पूरा का पूरा देश का लघुउद्योग खत्म हो गया और इस मामले में यानी आर्थिक नीति के मामले में भाजपा-कांग्रेस दोनों एक जैसी ही हैं. इन दोनों में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि आज से छह साल पहले आडवानी जी ने कहा था कि भाजपा की आर्थिक नीतियों को कांग्रेस ने चुरा लिया है. आर्थिक मामलों में इन दोनों पार्टियों के प्रेरणास्रोत विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियन डेवलपमेंट बैंक हैं. अमेरिका का मोदी को वीजा देने न देने का नारा दिखावटी है और मोदी भी दिल से भले हिंदुस्तानी हैं, लेकिन मन से अमेरिकी हैं. फिर भी अभी मैं यह नहीं कहूंगा कि देश की राजनीति अब गैरभाजपावाद की ओर रुख करेगी कि नहीं, क्योंकि अभी यह देखना बाकी है. लेकिन, इतना जरूर कहूंगा कि---
उसकी बातों पे न जा कि वो क्या कहता है।
उसके पैरों की तरफ देख वो किधर जाता है।।

5-   नरेंद्र मोदी देश के विकास को आंदोलन का रूप देने की बात कहते हैं. क्या लगता है आपको?

        उनके भाषण बहुत अच्छे होते हैं, जो ठीक ही है, और उनका हाव-भाव भी बहुत ही अच्छा होता है, लेकिन उनका भाषण इल्मी कम और फिल्मी ज्यादा लगता है. क्योंकि अगर इल्मी होता तो तक्षशिला को पटना के तट पर न पहुंचा देते. बहरहाल मैं ज्यादा कुछ न कह कर इतना ही कहूंगा कि अभी उन्हें सरकार चलाना तो शुरू करने दीजिए. आगे देखेंगे कि क्या कहा जा सकता है. लेकिन आजकल ड्रामा बहुत हो रहा है. कहा जा रहा है कि तीस साल के बाद पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है. आखिर क्यों? ऐसा कहना क्या अटल विहारी बाजपेयी की लिगेसी को किनारे करना नहीं है? आपको यह कहना चाहिए कि यद्यपि हम पूर्ण बहुमत के साथ पहली बार आये हैं, लेकिन इसके पहले हम अटल जी के नेतृत्व में पहले गठबंधन के साथ बहुमत में आ चुके हैं. ऐसा कहना आपकी राजनीतिक ईमानदारी का यथार्थ प्रस्तुतिकरण होता. तीस साल बाद आने की बात कहने का अर्थ है कि आप अपनी आत्मश्लाघा में, खुद को महिमामंडित करने में उन तमाम लोगों की जड़ों को खोद रहे हैं, जिनके सहारे आप चढ़े थे, चाहे केशूभाई पटेल हों या अटल बिहारी वाजपेयी हों.

6-   इस हार के बड़े सबक वामपंथी दलों के लिए क्या हैं. बंगाल में लगातार सिकुड़ता जनाधार जबकि केरल और त्रिपुरा में बरकरार, ऐसा क्यों है?

        यही बहस 2004 में भी चली थी कि वाम मोरचे को लोकसभा में 63 सीट कैसे मिल गयी. जब हम जीत जाते हैं, तो ज्यादा गुदगुदी नहीं होती, लेकिन जब हम हार जाते हैं, तो भारत के वामपंथ विरोधी लोग, ज्यादा सुंदर तरीके से नृत्य पेश करते हैं. कॉरपोरेट घराने के लोग, संघ के लोग, संकीर्ण सांप्रदायिक लोग, साम्राज्यवाद की वकालत करनेवाले उनके अवधूत लंगोटा बांध कर हमको गाली देने के लिए अखाड़े में उतर आते हैं. वही स्थिति अभी फिर होनेवाली है.

7-   ऐसे में वामपंथी राजनीति की अब क्या संभावनाएं हैं. लोग कहते हैं कि यह सिर्फ विचारों की ही पार्टी है और अब यह लंबे समय के लिए हाशिये पर चली जायेगी. आप क्या सोचते हैं?

        लड़ाई होगी, फिर से हम लड़ेंगे. लड़ते रहे हैं और लड़ते रहेंगे. वामपंथ को इतना कमजोर मत समझिए. हम सिर्फ विचारों की ही पार्टी नहीं हैं, बल्कि आचार-विचार दोनों की पार्टी हैं. अगर सिर्फ विचारों की पार्टी होती तो आज भी 12-14 सीटें कैसे मिलतीं और कई जगहों पर हमारा वोट शेयर कैसे बढ़ता? अभी हम केरल में हैं, त्रिपुरा में हैं. जब-जब पूंजीवाद चरम पर पहुंचेगा, वाम मोरचा उभरेगा और लोकतंत्र की सच्ची लड़ाई लड़ेगा. वामपंथ कभी हाशिये पर नहीं जा सकता. वामपंथ को हाशिये पर भेजने की बात करनेवाले आम चेयर पॉलिटिशयन हैं, जो वामपंथ के साथ सिर्फ अपना सरोकार दिखाते हैं और कहते हैं कि- ‘आइ सिम्पैथाइज विथ लेफ्ट, बट...’ इनके लिए अकबर इलाहाबादी का एक शेर है- लीडर को रंज तो बहुत है मगर आराम के साथ। कौम के गम में डिनर लेते हैं वो काम के साथ।। ये ऐसे वामपंथी हैं, जो कमरे के अंदर से बाहर निकलना भी नहीं चाहते, जिनको पड़ोसी भी नहीं जानते कि इनका विचार वामपंथी है कि नहीं. लेकिन भरी सभाओं में इनके चित्कार को सुन कर लगता है कि ये वाम के नये अवतार हैं. वाम को सबसे ज्यादा इन्हीं से खतरा है. वाम को इनसे भी बचना होगा और इनमें से सही तथ्यों को निकालकर संघर्षों में लाठी डंडे खाने के लिए घसीटना होगा, ताकि ये बौद्धिकी समाजवाद से लेकर के प्रायोगिक समाजवाद में आ जायें.

8-   क्या किन्हीं परिस्थितियों में भाजपा-विरोध के आधार पर गैर-भाजपा राजनीतिक दलों के किसी बड़े गंठबंधन की संभावना बन सकती है?

        हमारे लिए कोई भाजपा विरोध नहीं है. हम नेताओं का विरोध नहीं करते. अगर हम ऐसा करते तो राम विलास पासवान को कभी बगल में नहीं बैठने देते. हम नीतियों के आधार पर विरोध करते हैं. कल तक वे कहते थे कि मेरी सबसे बड़ी गलती थी कि मैं एनडीए की सरकार में चला गया, लेकिन आज फिर उसी गोद में दोबारा बैठ गये. रामविलास पासवान वह निर्मल जल हैं, जो हर बरतन में ढल जाते हैं. मैं इसको इसलिए कह रहा हूं कि जब वे राजनीतिक वनवास में थे, तो कम्यूनिस्ट पार्टी की बदौलत ही आप राज्यसभा में आये. यह देखने की जरूरत है कि जो दलित राजनीति कर रहे थे और हाशिये पर पड़े दलितों की चर्चा करते हुए कहते थे कि मनुवाद ने उन्हें बरबाद किया है, वे सभी आज कहां पहुंच गये? सब के सब मनुवाद की पार्टी में पहुंच गये. अब इन्हें मनुवाद नहीं, बल्कि मनुहारवाद दिखायी दे रहा है. इनका बस एक ही नारा है- रीजन इज राइट, फ्यूचर इज ब्राइट. इसलिए इनके लिए कभी वीपी सिंह सही थे, तो आज नरेंद्र मोदी सही हैं. ये सभी आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जनवाद ढूंढ रहे हैं. और इसमें वे सफल भी हो गये हैं, क्योंकि इनका व्यक्तिवाद जो है, वही देश का जनवाद है. इनका विकास ही देश का विकास है. इनकी करोड़ों की हैसियत बढ़ती है, तो दलित समाज की हैसियत बढ़ती है, भले ही दलित हाशिये पर पड़े रहें. रामविलास पासवान जी जब रेल मंत्री थे, तब सभी रेलवे स्टेशन पर से नि:शुल्क पानी की टंकी बंद करा कर और सबके हाथ में 12 रुपये की कॉरपोरेटी बोतल पकड़ा दी. ये दलितवाद के साथ-साथ बहुत बड़े पूंजीवाद के समर्थक हैं.

9-   इस जनादेश के बाद कई क्षेत्रीय पार्टियों का सफाया हो गया. तो क्या इनका अस्तित्व अब खतरे में है? क्योंकि कई नेता कहते रहे हैं कि क्षेत्रीय दलों को लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, इससे स्थायी सरकार बनाने में बाधा होती है?

        मैं नहीं मानता कि छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व इतना जल्दी खत्म हो जायेगा. क्योंकि छोटी पार्टियां ‘इब्नुल वक्त’ (हवा का रुख पहचाननेवाला) की तरह हैं. एनडीए में शामिल दो दर्जन दल इसकी मिसाल हैं. दूसरी ओर, आज भी प्रतिरोध की शक्तियां अपने वैचारिक प्रतिरोध के आधार पर खड़ी हुई हैं. वे सभी उभरेंगी और जल्द ही उभरेंगी. ज्यों-ज्यों जनता के ऊपर कठिनाइयों का बोझ बढ़ेगा, त्यों-त्यों वे आंदोलन का स्वरूप अख्तियार करेंगी. जब-जब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की चोट बढ़ेगी, जितनी ही महंगाई का दंश झेलना पड़ेगा, जितना ही बेरोजगारी की समस्या का जबरदस्त छलांग उठेगा, और तब देश के अंदर दो तरह की शक्तियों का उदय दिखायी देगा कि- 125 करोड़ के देश में 25 करोड़ एक तरफ और 100 करोड़ एक तरफ होंगे. यानी हाशिये पर पड़े 100 करोड़ लोग और खाये-अघाये 25 करोड़ लोग. इन सब के बीच सच तो यह है कि वामपंथ ही उभार लेगा, जो लोकतंत्र का मोरचा संभालेगा. लेकिन आज और अभी से ही वामपंथ को एक नये तरीके से सोचना होगा कि कैसे वह इस परिस्थिति से निपटे. हमें एक पंच लाइन लेकर चलना होगा कि आजादी के बाद से जितनी भी नीतियां बनीं, सबके जरिये आज तक जनता में सिर्फ दुखों का बंटवारा हुआ, लेकिन अब यह जनता को ठानना होगा कि आइए हम सब संघर्ष करें, ताकि हमारे बीच सुखों का बंटवारा हो सके.

10-   तीसरे मोरचे के बारे में आपकी क्या राय है?

       इस शब्द जैसा कोई तत्व नहीं है. तीसरा मोरचा कोई सांप-बिच्छुओं का मेल नहीं हो सकता. वह तीसरा मोरचा हो ही नहीं सकता, जिसका कोई वैचारिक आधार न हो. बार-बार मुलायम सिंह कहते हैं कि तीसरे मोरचे की सरकार बनेगी. वे ऐसा क्यों कहते हैं, पता नहीं. मायावती ने कहा कि देश को दुखदायी बनाने में कांग्रेस की तरह बसपा को भी जनता ने जिम्मेवार मान लिया है. शुक्र है कि मायावती में यह ईमानदारी बड़ी देर से आयी, लेकिन मुलायम में तो इतनी भी ईमानदारी नहीं. देश मुलायम सिंह से जानना चाहता है कि समाजवाद और मसाजवाद में क्या अंतर है? आप कहते हैं कि कांग्रेस ने देश को बरबाद कर दिया और उसी कांग्रेस के साथ चिपके भी हुए हैं.

11-   समाजवाद और मसाजवाद! जरा इसे विस्तार से बतायेंगे क्या?

         एक बार 1963 में अपने भाषण में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि कुछ लोगों ने कुछ लोगों का मसाज करना शुरू कर दिया है. कुछ नेता अपने चेलों से मसाज करवाने लगे हैं. उन्होंने यह कहा था कि समाजवाद को मसाजवाद में मत बदलो. डॉ लोहिया अपने संबोधन गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में करते थे, लेकिन आज के समाजवादी नेता अपने संबोधन पांच सितारा होटलों में तरे हैं. पांच सितारा होटलों में पांच रुपये की चीज पचास रुपये में मिलती है और वह तो मसाज की एक बेहतरीन जगह है, जहां तमाम बड़े कॉरपोरेटी लोग और राजनीतिक लोग मसाज करते-करवाते हैं.

12-   आपने कहा कि संघर्ष और चुनाव दो अलग-अलग चीजें हैं. कॉरपोरेट के मौजूदा दौर में वाम के संघर्ष का स्वरूप क्या होगा. एक शहर के कॉलोनियों की तरह बंटने की शक्ल में आज मार्क्सवाद का क्या हाल हो गया है?

        मौजूदा दौर में चुनाव आम आदमी का नहीं, बल्कि कॉरपोरेट घरानों का चुनाव है. चुनाव-प्रचार पर, डिजिटल-प्रचार पर, सोशल मीडिया-प्रचार पर यहां तक कि स्टेज बनाने तक पर कॉरपोरेटी दखल है, जिसमें हम पिछड़ गये. हमने इन सब चीजों का इस्तेमाल ही नहीं किया. आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने से हम विरक्त रहे. लेकिन अब यह करना पड़ेगा. अब कनेक्ट होने के लिए घर-घर जाने की जरूरत नहीं, बल्कि नयी तकनीकों का इस्तेमाल करने की जरूरत है. यह विडंबनात्मक तो लगता है, लेकिन फिर भी मैं वामपंथी नेताओं से कहना चाहता हूं कि अब अंधेरे गलियारे में टहलिये मत. ज्ञानचक्षु खोलिए और देखिए कि जमाना किस ओर जा रहा है. सभी वामपंथी धड़ों से पूछना चाहता हूं कि अंधेरे गलियारे में टहलते-टहलते हम सब कहां पहुंच गये? वाम मोरचे के परहेजवाद ने उसे टुकड़ों में बांट दिया है. मार्क्सवाद एक विस्तार दर्शन है, लेकिन हमने इसे कॉलोनियों में नहीं, बल्कि चम्मचों में बांट दिया है.

13-   तो क्या भविष्य में कोई ऐसी सूरत बनेगी, जब सारे वामपंथी दल एक साथ आ जायेंगे या चम्मचों से होते हुए कांटेदार चम्मचों में तब्दील हो जायेंगे?

        मुझे अब समझ में आता है कि अतिसंकीर्णतावाद, घनघोर साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिक उन्माद और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी जब मजबूर करेगी, तो चम्मचों में बंटे हुए तमाम वामपंथी दल इकट्ठा होकर एक बड़ी कड़ाही में तब्दील होंगे. चम्मच से इन्हें कांटेदार चम्मच नहीं, बल्कि कड़ाही बनना होगा, तभी आंदोलन का विस्तार होगा और मार्क्स के विस्तृत दर्शन को एक नया स्थान मिलेगा. गरीबों के लिए लड़ाई लड़ी जायेगी और विकल्प की राजनीति के नये रास्ते खुलेंगे. अकेले लड़ने के स्थान पर तमाम लोगों के एक साथ, तमाम धर्मों-वर्गों के लोगों के एक साथ इकट्ठा होकर लड़ाई लड़ने कोशिश होनी चाहिए. क्योंकि मार्क्सवाद का पर्याय परहेजवाद में नहीं है. कल तक 24 कैरेट का सोना खोजते-खोजते अपने हाथ में पीतल लेकर टहलने लगे हैं, यह कैसी हमारी परिणति है और यह कैसा परहेजवाद है?

14-   अन्ना आंदोलन के समय ऐसा माना जा रहा था कि अरविंद केजरीवाल ने वामपंथ के हथियार को छीन लिया है. ऐसा है क्या?

        अन्ना आंदोलन का हस्र भी तो आपको पता होगा ना. जनरल वीके सिंह को पहुंचाकर अन्ना रालेगण पहुंच गये ना. ममता बनर्जी के पास भी गये थे, लेकिन वहां से भी वापस आकर फिर रालेगांव पहुंच गये. अन्ना ने तो जर्म्स कटर का प्रचार किया. अब यह कौन जानता है कि जर्म्स कटर दाद-खाज-खुजली मिटाता है कि नहीं. किसी ने अंदर जाकर देखा थोड़ी. अन्ना को यह बात समझनी चाहिए थी. जहां तक केजरीवाल की बात है, तो उन पर कुछ कहना अभी मुनासिब नहीं है. क्योंकि उनकी पार्टी के एक बड़बोले नेता ने कहा कि हमारी कोई धारा नहीं है- न हम सेंटर हैं, न लेफ्ट हैं और न राइट हैं. यानी वे अभी अंतरिक्ष में घूम रहे हैं.

15-  अब तो नरेंद्र मोदी जी हमारे देश के प्रधानमंत्री बन गये हैं. चुनाव-प्रचार के दौरान अपने भाषणों से उन्होंने जो लहर बनायी, उससे क्या एक नयी राजनीति का सूत्रपात हुआ. क्या कहेंगे आप?


         पहले तो प्रधानमंत्री बनने पर उन्हें ढेरों बधाइयां. पिछले सात-आठ वर्षों में नरेंद्र मोदी ने एक कला सीखी है, जिसे हम ‘क्लास एलिनिएशन’ (वर्ग उन्मूलन) कहते हैं- यानी अपने वर्ग शत्रुओं का सफाया करना, किनारे करना या हटा देना. 2007 में फिर से मुख्यमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी जी ने इस कला के जरिये अपने विरोधियों को हटाना शुरू कर दिया था. इतनी सुंदर राजनीति कि जिन हाथों में कभी शमसीर थी, वे हाथ दया के लिए भीख मांग रहे थे. अब ऐसे में लहर तो बननी ही थी. मैं कभी नहीं कहता कि भारतीय इतिहास के शास्त्रों में शाम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. और वैसे भी राजनीति में मित्र कम, शत्रु ज्यादा होते हैं, इसलिए शाम-दाम-दंड-भेद अपनाने की जरूरत तो पड़ेगी ही. ऐसी राजनीति के लिए नरेंद्र मोदी जी को दाद तो देनी होगी और उनसे भारतीय राजनीतिक दलों को ऐसी राजनीति भी सीखनी भी होगी. उनके चातुर्य और उनके शब्दों के प्रयोग करने के तरीके पर उनकी प्रशंसा तो बनती है. लेकिन साथ ही यह भी कि निजता की नीचता और नीचता में निजता हमारी भारतीय राजनीति में उनके आने से शुरू होती है. अब आगे देखते हैं कि इस पूरे चुनावी गतिविधियों से उपजी नयी-नयी चीजों के साथ ही नयी सरकार के काम-काज का तरीका क्या होता है. इंतजार कीजिए...

Wasim Akram and Atul Kumar Anjan