Saturday, April 14, 2012

मौलाना मोहम्मद वली रहमानी का इंटरव्यू


प्रेमचंद की कहानियों में बदलाव


          यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि प्रेमचंद ने अपनी आखिरी कहानी ‘कफन’ मूलतः उर्दू में लिखी थी और हिंदी में इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ था। लेकिन अनुवाद के दौरान कफन की कहानी में बदलाव आ गया। दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया की पाक्षिक पत्रिका ‘जौहर’ के अप्रैल, 2012 अंक के एक लेख में प्रेमचंद की आखिरी कहानी ‘कफन’ के हिंदी रूपांतरण के बारे में कहा गया है कि यह मूल कहानी से कुछ अलग है। आज से तकरीबन आठ साल पहले जामिया में हिंदी के प्रोफेसर अब्दुल बिस्मिल्ला ने यह बात सामने लायी थी और अपने लेखों के जरिये कफन के मूल कथानक से छेड़छाड़, शाब्दिक बदलाव और वाक्य विन्यास में बदलाव की बात की थी। अब्दुल बिस्मिल्ला कहते हैं- ‘दरअसल, कई साल पहले जब मुझे इस बात की जानकारी हुई, तो सबसे पहले मैंने जामिया की लाइब्रेरी से वह मूल पांडुलिपि निकलवायी। उसको पढ़ने के बाद मैंने पाया कि मौजूदा वक्त में लगातार छप रही कहानी ‘कफन’ अपनी मूल पांडुलिपि से कुछ अलग है। तब मैंने इसके बारे में और ज्यादा जानकारी इकट्ठा करने के बाद कई लेख लिखे। दोनों में फर्क वाक्य विन्यास और उर्दू शब्दों के हिंदी अर्थ के रूप में है और कहीं-कहीं अनावश्यक शब्दों को भी जोड़ दिया गया है, जिससे उसके भाव में फर्क नजर आता है।’
          गौरतलब है कि प्रेमचंद ने ‘कफन’ कहानी को 1935 में अपने जामिया प्रवास के दौरान जामिया की तात्कालिक पत्रिका ‘रिसाला जामिया’ के लिए लिखा था। रिसाला जामिया-दिसंबर, 1935 में मूल रूप से उर्दू में प्रकाशित कहानी ‘कफन’ हिंदी में पहली बार अप्रैल, 1936 में ‘चांद’ नामक पत्रिका में छपी। तब से लेकर आजतक वही हिंदी वाली कहानी ही छपती चली आ रही है। एक से दूसरी भाषा में अनुदित किताबों के बारे में अक्सर यह बात सामने आती रही है कि अनुदित रचना अपनी मूल रचना से कुछ अलग हो जाती है। लेकिन यह समस्या उर्दू और हिंदी जैसी भाषाओँ के लिए नहीं आनी चाहिए, जो एक दूसरे से बेहद करीब ही नहीं, बल्कि सहोदर मानी जाती हैं। ऐसे में प्रेमचंद की रचनाओं में भाषाई अंतर के साथ-साथ कथानक में अंतर आ जाना मौलिकता की दृष्टि से अखरता है। 
              प्रेमचंद ने अपने लेखन की शुरुआत में उर्दू में कहानियां लिखीं। बाद में वे हिंदी में लिखने लगे। इसकी वजह आर्थिक थी। खुद उन्होंने 1915 में अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को पत्र में लिख- ‘अब हिंदी लिखने का मश्क कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं।’ कायाकल्प से पहले तक के उनके उपन्यासों की मूल पांडुलिपि उर्दू में ही है। बाद में जब उनकी उर्दू की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद हुआ, तो कहीं-कहीं मौलिकता खोती नजर आयी। हिंदी के वरिष्ठ कथाकार, उपन्यासकार कहते हैं- ‘अनुवादकों ने अनुवाद करते समय कहीं-कहीं वाक्यों में बदलाव कर दिया है, ताकि पाठक प्रेमचंद को पूरी तरह समझ सके।’ हालांकि, अब्दुल बिस्मिल्ला इस बदलाव को गलत मानते हैं और कहते हैं- ‘अनुवाद के समय सिर्फ लिपि पर ध्यान दिया जाना चाहिए, उसकी कहानी पर नहीं। जैसा कि कहानी ‘पूस की रात’ के साथ हुआ। मौजूदा पूस की रात में कहानी का नायक हल्कू पूस की ठंडी रात में सो जाता है और जानवर उसका सारा खेत चर जाते हैं। जबकि मूल कहानी में वह अपने घर जाता है। वहां उसे निराश देखकर उसकी पत्नी कहती है कि अब तुम खेती-बाडी छोड दो। इस पर हल्कू कहता है कि मैं एक किसान हूं, किसानी नहीं छोड़ सकता। मौजूदा कहानी में हल्कू को इस तरह सोते दिखाने के लिए प्रेमचंद की आलोचना भी हुई। अनुवाद किसने किया यह तो नहीं पता, लेकिन प्रेमचंद अपनी कहानियों का अनुवाद खुद कम और अपने मित्रों से ज्यादा करवाया करते थे। उनके एक खास मित्र थे इकबाल बहादुर वर्मा ‘सहर’ जो उनकी कहानियों का अनुवाद किया करते थे। जो भी हो इन अनुवादों ने प्रेमचंद की कहानियों की आत्मा को वैसा नहीं रहने दिया, जैसी कि वे उर्दू में नजर आती हैं।