Sunday, December 7, 2014

हाशिम अंसारी के कथनों के निहितार्थ

अयोध्या में 6 दिसम्बर, 92 को हुए ध्वंस की बरसी पर कृष्ण प्रताप सिंह की टिप्पणी...


Krishna Pratap Singh


किसी ने कहा, कौआ कान ले गया और आप कान को भूलकर कौए के पीछे दौड़ पड़े! अयोध्या मामले  में अर्धसत्यों के सहारे अपनी ‘राजनीति’ चमकाने वाले एक बार फिर कुछ ऐसा ही करते दिख रहे हैं। इस बार बहाना है, मामले के वादी हाशिम अंसारी का उसकी पैरवी से हट जाने, रामलला को आजाद देखने की इच्छा जताने और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा करने वाला बयान जो इस कारण भी कुछ ज्यादा सनसनीखेज लग रहा है कि 6दिसम्बर,1992 के ध्वंस की 22वीं बरसी के मौके पर आया है। कई भाई हाशिम के इस ‘आत्मसमर्पण’ या कि ‘हृदयपरिवर्तन’ से खासे गदगद हैं। इतने कि उन्हें ‘धन्यवाद’ दे रहे हैं कि उन्होंने एक झटके में ‘वहीं’ राममन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया!
         दुर्भाग्य से इन भाइयों को मालूम नहीं कि न हाशिम ने आत्मसमर्पण किया है, न ही उनका हृदयपरिवर्तन हुआ है। उसूलन वे पहले जैसे ही हैं और उनकी रामलला को आजाद देखने की चाह को तभी समझा जा सकता है, जब जाना जाये कि उनकी अयोध्या में ही गुजरी 92 वर्ष लम्बी जिन्दगी में बाबरी मस्जिद का वादी होने के बावजूद, उसकी जगह राममन्दिर बनाना चाहने वालों की धार्मिक भावनाओं के अनादर की एक भी मिसाल नहीं है। हाशिम शुरू से ही इस विवाद के राजनीतिकरण के विरुद्ध और उसको अदालती फैसले या बातचीत से हल करने के पक्षधर रहे हैं। इसीलिए अपने प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्रदास से उनकी मित्रता में कभी कोई खटास नहीं आयी। अटल जी के राज में परमहंस का निधन हुआ तो हाशिम ने रोते हुए कहा था कि अब वे ‘बहुत अकेले’ हो गये हैं। राजनीतिक दल लगातार समस्याएं नहीं खड़ी करते रहते तो कौन जाने हाशिम व परमहंस स्थानीय लोगों के साथ मिलकर सारे विवाद का किस्सा ही खत्म कर देते।  

Hashim Ansari
            हाशिम अरसे से कहते आ रहे हैं, ‘22-23 दिसम्बर, 1949 की रात रामलला को साजिशन बाबरी मस्जिद में ला बैठाया गया, तो हमने उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की। न उन्हें हटाने की कोशिश, न उनके मर्यादाभंग का प्रयास। गुस्से में आकर उनका वह ‘घर’ भी हमने नहीं ढहाया। आज वे जिनके कारण तिरपाल में हैं, वे महलों में रह रहे हैं। उन्हें इलायचीदाना खिलाकर खुद लड्डू खा रहे हैं। ऐसा कब तक चलेगा? रामलला को आजादी मिलनी ही चाहिए।’
             हाशिम ने उनकी आजादी के जतन 30 सितम्बर, 2010 को आये इलाहाबाद उच्चन्यायालय के विवादित भूमि के तीन टुकड़े करके पक्षकारों में बांट देने वाले फैसले के बाद भी किये थे। हनुमानगढ़़ी के महंत ज्ञानदास के साथ मिलकर, कहते हैं कि, वे समाधान के निकट तक पहुंच गये थे और कह दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील नहीं करेंगे। लेकिन ज्ञानदास की मानें तो अशोक सिंघल और विनय कटियार आदि ने ऐसा फच्चर फंसाया कि जीते व पराजित महसूस कर रहे दोनों पक्ष सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गये। 
               अब हाशिम के पैरवी से हटने के निश्चय के पीछे महज उनका स्वास्थ्य है। हृदयाघात के बाद अभी हाल में ही उन्हें पेसमेकर लगा है। एक पैर जख्मी है सो अलग। वे जानते हैं कि उनके पैरवी न करने से सम्बन्धित मुकदमा वापस या खत्म नहीं हो जाने वाला। सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड व अन्य पैरवीकार अपना काम करेंगे ही। प्रतिनिधिक चरित्र के मुकदमे यों भी बीच में छोड़े या वापस नहीं लिये जा सकते। फिर, कोई भी अन्य व्यक्ति ऐसी कोशिश से खुद को प्रभावित बताकर उन्हें जारी रखने को आगे आ सकता है। 
               फिर हाशिम को ‘धन्यवाद’ देने वालों को समझना चाहिए कि राममन्दिर निर्माण का रास्ता साफ करने या उसमें बाधा डालने का काम वे कर ही नहीं सकते क्योंकि अब इस मामले में सब कुछ भारत की सरकार व संसद की इच्छा पर निर्भर है। संसद द्वारा विवाद के सिलसिले में 1993 में बनाये गये अयोध्या सरटेन एरिया एक्वीजीशन एक्ट में प्रावधान है कि अधिग्रहीत भूमि पर राममन्दिर, मस्जिद, संग्रहालय, वाचनालय और जनसुविधा के लिए स्नानागार व शौचालय समेत पांच निर्माण होंगे। इसमें सरकार व संसद की इच्छा के बगैर परिवर्तन संभव नहीं है क्योंकि कानून बनाने या बदलने का अधिकार किसी और के पास नहीं। सम्बन्धित पक्ष सुलह भी कर लें तो सरकार की सहमति के बिना उसे लागू नहीं करा पायेंगे। 
               इसलिए अब मुस्लिम पक्ष ने अन्यों की पहल पर समझौतावार्ताओं से तौबा कर ली और तय किया है कि सरकार की ओर से कोई सार्थक समाधान प्रस्ताव आयेगा तो उसी पर विचार करेगा। उसके अनुसार सरकार की जिम्मेदारी है कि वह दोनों पक्षों को स्वीकार्य समाधान तलाशे। लेकिन यही बात कहते हुए हाशिम ने नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र में बुनकरों के हित में उठाये गये कुछ कदमों की प्रशंसा कर दी तो उसके भी तरह-तरह के अर्थ निकाले जाने लगे। हाशिम को साफ करना पड़ा कि इसका अर्थ यह नहीं कि वे मन्दिर मस्जिद मामले में भी मोदी के समर्थक हो गये हैं। हां, उन्होंने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद से ही इस मामले को तूल देने से जैसा परहेज रखा है, उससे थोड़ी उम्मीद बंधती है कि विहिप के बड़बोले नेताओं द्वारा मन्दिर निर्माण के लिए कानून बनाने के दबाव से पार पाकर वे विवाद के सार्थक समाधान का प्रयास करेंगे। करते हैं तो उनकी राह क्यों रोकी जाये? 
                लेकिन आजम खां कहते हैं कि हाशिम डर गये हैं। कई अन्य लोगों को उनके नये कथनों को किसी ‘डील’ का नतीजा बताने से भी गुरेज नहीं है। लेकिन हाशिम का डरने या डील करने का कोई ज्ञात इतिहास नहीं है। यकीनन, उनके कथनों में उनके रोष, क्षोभ, खीझ, गुस्से, थकान और निराशा को भी पढ़ा जाना चाहिए। हाशिम इसे छिपाते भी नहीं हैं। कहते हैं कि इस लड़ाई में उन्हें अपनों व परायों से हर कदम पर दगा ही मिला। उन्हीं के शब्दों में ‘जो आजम कभी बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी में थे, अब मंत्री हैं तो उन्हें विवादित परिसर में मन्दिर ही मन्दिर नजर आता है, मस्जिद दिखती ही नहीं। मैं उनसे इसके सिवा क्या कहूं कि जब मस्जिद दिखती ही नहीं है तो उसके लिए लड़ाई का ढोंग करके लोगों को उल्लू बनाना बंद करें।’
              सोचिए जरा, हाशिम की दगा वाली टिप्पणी किसके खिलाफ है? सिर्फ उस पत्रकार के, जिससे उन्होंने कहा कि शारीरिक असमर्थता के कारण वे छः दिसम्बर को घर पर ही रहेंगे तो उसने इसको यौम—ए—गम के आयोजन से दूर रहने के उनके निश्चय के रूप में लिया या फिर संविधान, न्यायपालिका व सरकार के  खिलाफ भी, 65 साल लम्बी अदालती लड़ाई में जिनके द्वारा उन्हें और दिवंगत परमहंस को इंसाफ नहीं दिलाया जा सका! यह उनका आत्मसमर्पण है, तो किसके लिए ज्यादा लज्जाजनक है?