Wednesday, September 28, 2011

पतंगे का वजूद


अजीब हरकत है
समंदर के लहरों की
हौले से पास आयें
तो पैरों में कोई राग उड़ेल कर
नग्मगी करती हैं मीठी सी
और अगर कभी
अपनी औकात पर आ जायें
तो इंसानी वजूद को भी
रेत का जर्रा समझ लेती हैं गोया

मगर उनके वजूद को भी
बिखरते देखा है मैंने
जब कोई अदना सा पतंगा
तेज लहरों के उपर बैठकर
रक्स करता है पलभर के लिए
उनके शोर को
कैद कर लेता है अपने पंखों में

रेत पर इंसानी कदमों के निशान
मिटते देर नहीं लगती जरा भी
मगर तेज लहरों की बूंदों पर
पतंगों के कदमों के निशान
ऐसे अक्सनशीं हो जाते हैं जैसे
अजल से ये चांद तारे
अक्सनशीं हैं आसमां पर...

Friday, September 16, 2011

एक नौकरीशुदा महीना


Wasim Akram
नौकरीशुदा एक महीने के चार हफ्ते
चार युग की तरह होते हैं जैसे
पहला हफ्ता सतयुग की तरह
सैलरी आती है जिसमें
हम बहुत अमीर हो जाते हैं
और सुख-दुख का फर्क
जरा सा भूल जाते हैं कुछ दिनों के लिए।
जिसने पैसे मांगे उसे दिया
और जिसने नहीं मांगे उसे भी दिया,
उन्हीं दिनों ऐसा भी लगता है
कि कहीं न कहीं 'काम का इश्क'
गढ़ता है 'पैसे का हुस्न'।

दूसरा हफ्ता द्वापर की तरह
घर का किराया, राशन का खर्च
और कुछ देनदारियों को मिलाकर
खत्म हो जाती है आधी सैलरी
फिर एक मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया की तरह
जुट जाते हैं जोड़-घटाव करने।

Wasim Akram
तीसरा हफ्ता त्रेता की तरह होता है जैसे
मस्तियां पास आये तो हां भी नहीं
हां मगर पूरी तरह ना भी नहीं
और एक चैथाई बची सैलरी में जैसे-तैसे
चलते-चलाते, चुकते-चुकाते
जरा सा बचता है चौथे हफ्ते कलयुग के लिए।
ऐसा लगता है उस वक्त
के 'काम का इश्क'
बिलकुल नहीं गढ़ता 'पैसे का हुस्न'
बल्कि अगली सैलरी के इंतजार में
पैसे का हुस्न ही
गढ़ने लगता है काम के इश्क को।

इसी बीच आफिस जाते हुए किसी दिन
बचते हैं किराये भर के पैसे जेब में जब
कि कोई अपना सा आकर पास हमारे
अपनी जरूरत के लिए मासूम आग्रहों से
उसे भी छीन ले जाता है हमसे
और महीने के आखिरी दो से तीन दिन तो
किसी घोर कलयुग की तरह गुजरते हैं जैसे,
एक कर्ज में हैं मगर फिर
जरूरत पड़ जाती है एक और कर्ज की,
मुश्किल ऐसा कि
थकन से सिर में दर्द हो अगर
तो भी नहीं ले पाते हम दवा कोई।

मगर अगली सुबह ताजगी है चेहरे पर
हम बहुत खुश हैं कि आज सैलरी का दिन है।

Monday, September 12, 2011

कब मिलेगी देश को राष्ट्र भाषा


      किसी देश और उसकी संस्कृति को जानना हो तो सबसे पहले उसकी भाषा को जानना चाहिए, क्योंकि किसी भी देश की भाषा उसकी संस्कृति की वाहक होती है। भाषा के परों पर सवार होकर ही कोई देश अपनी सभ्यता के उन्नत पड़ाओं को पार करता है। गाँधी जी ने भी कहा था की ''राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है|'' इसलिए देश की अखंडता के लिए बहुत जरूरी है कि पूरा देश अपनी राष्ट्र भाषा में ही बात करें, व्यापार करें, लोकाचार करें और शिक्षा पाये। अन्यथा दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं सर उठाये खड़ी हो जायेंगी और अखंडता के लिए एक चुनौती बन जायेंगी। मनसे और शिवसेना के मराठी मानूस और असम का उदाहरण हमारे सामने है। और पंजाब को हम देख ही रहे हैं जहां बाजार में सारे होर्डिंग पंजाबी में लिखे हैं।
      हमारी सरकारी भाषा के महत्व को कम आंकती रही हैं, तभी तो 64 साल गुजर गये आजादी के मगर हिंदी अभी भी संसद के गलियारों में बेबस, लाचार होकर भटक रही है, क्योंकि अभी तक हम इसे राष्ट्रभाषा के रूप में पूरी तरह से अपना नहीं पाये हैं। और दो सौ सालों की गुलामी की भाषा अंग्रेजी आज सेना, सरकार, बाजार से लेकर शिक्षा और लोकाचार तक फैली अघोषित तौर पर हमारी राष्ट्रभाषा के रूप में राज कर रही है। देश के तमाम नेताओं ने कहा था कि जब तक हिंदी कामकाज नहीं संभाल लेती, तब तक ये दोनों भाषाएं यानी साथ में अंग्रेजी भी काम करे। हिंदी कामकाज संभाल ले तो उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। इसकी समय सीमा भी तय की गयी कि 1965 तक हिंदी राज का कामकाज संभाल लेगी। और तब अंग्रेजी को मुख्य राजभाषा के पद से मुक्त कर हिंदी को मुख्य राजभाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। ‘‘दे दिया जायेगा’’ भविष्य काल का यह वाक्य यह बताने के लिए काफी है कि इस प्रक्रिया की कोई निष्चित समय-सीमा नहीं है। और इसी लिए अभी तक हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रावधान भविष्य के कालचक्र में फंसा हुआ है।
      3 मार्च, 2010 को राज्यसभा में सत्यव्रत चतुर्वेदी और मोतीलाल वोरा ने प्रश्न संख्या 653 में पूछा कि क्या सरकार का ध्यान हाल ही में गुजरात उच्च न्यायालय के उस कथन की ओर गया है, जिसके अनुसार भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है और हिंदी आधिकारिक तौर पर राष्ट्रभाषा नहीं है और नहीं है’’ तो हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही है? तात्कालीन गृहराज्यमंत्री अजय माकन ने जवाब देते हुए कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिंदी संघ की राजभाषा है।’’ इस जवाब को सुनने के बाद आश्चर्य यह है कि किसी ने सरकार से यह नहीं पूछा कि इस देश को उसकी राष्ट्रभाषा कब मिलेगी?
      14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को संघ की राजभाषा के तौर पर स्वीकार किया। 1955 में बीजी खेर आयोग बना और 1956 में रिपोर्ट भी पेश की गयी।
      जवाहर लाल नेहरू के आष्वासन को ध्यान में रखते हुए राजभाषा अधिनियम बनाया गया। तब से लेकर अब तक कितनी सरकारें आयीं और गयीं मगर राष्ट्रभाषा के नाम पर सब मौन रहीं। यहां तक कि हिंदी प्रदेशों के सांसद भी इसके लिए कुछ नहीं किये। यह एक विडम्बना ही तो है कि संसद में सांसदों की वेतनवृद्धि का बिल आते ही पास हो जाता है मगर संसद के दरवाजे पर 64 साल से खडी हिंदी ठिठकी, सहमी और सकुचाई सी अंग्रेजी के कुर्सी खाली करने का इंतजार कर रही है। सिर्फ सरकार ही नहीं भारतीय हिंदी मीडिया भी कम दोषी नहीं है। हिंदी अखबारों में अंग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि का धडल्ले से प्रयोग हो रहा है। अखबार अब द्विभाषी होने लगे हैं, मगर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों की लंबी-चौड़ी जमात भी इसके विनाशकारी खतरों की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है।
      देश की 43 प्रतिशत आबादी यानी लगभग 35 करोड लोग हिंदी बोलने-समझने वाले हैं, जबकि पूरे विश्व में हिंदी जानने वालों की संख्या लगभग 80 से 85 करोड है। इसके बावजूद भी हिंदी की जिस तरह उपेक्षा हो रही है वह काबिले-गौर है। हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में ही पढाना पसंद करते हैं क्योंकि बडा होकर उसे नौकरी करनी है। बाजार की दृष्टि से यह स्थिति सुखद हो सकती है, लेकिन एक राष्ट्र के आत्म सम्मान की दृष्टि से नहीं। अंग्रेजी जिस रफतार से बढ रही है, उससे तो हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने का सपना षायद ही कभी साकार हो। भारत में बोली जाने वाली भाषाओं के बारे में 2001 की जनगणना की रिपोर्ट यह कहती है कि, भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या इस कदर बढ रही है कि वह ब्रिटेन की कुल आबादी से दोगुनी से भी ज्यादा हो गयी है। यही नहीं भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या ने ब्रिटेन को छोड समूचे यूरोप को पीछे छोड दिया है। जबकि पूरी दुनिया में 6141 भाषाएं हैं, जिनमें सर्वाधिक हिंदी बोली जाती है। विष्व की प्राचीनतम एवं एक मात्र वैज्ञानिक भाषा संस्कृत के सरलीकृत स्वरूप हिंदी का उसी की जन्म भूमि पर तिरस्कार हो रहा है और इसके जिम्मेदार खुद हमीं हैं। डाॅ फादर कामिल बुल्के ने कहा था कि-संस्कृत मां, हिंदी गृहणी और अंगे्रजी नौकरानी है।’’ मगर आज आलम यह है कि एक नौकरानी ही रानी बन बैठी है। यही रानी जिसे 2001 की जनगणना के अनुसार अपनी मातृभाषा घोषित करने वाले 10000 में मात्र दो लोग थे यानी .02 प्रतिषत। यह भी एक विडंबना ही है।
      सारी विडंबनाओं के बीच ख़ुशी की बात यह है कि राष्ट्रभाषा के नाम पर संसद में चुप्पी साधने वाले लोग हिंदी को विश्वभाषा बनाने के लिए पिछली सत्र में उठ खडे हुए थे। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए कुछ नेता प्रयासरत हैं। 2010 के मानसून सत्र में विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने लोकसभा में यह जानकारी देते हुए कहा कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में शामिल करने के लिए प्रयास किया जा रहा है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में 6 भाषाएं मौजूद हैं। चीनी, अरबी, रसियन, स्पैनिश, इंग्लिश और फ्रेंच। इन्हें सम्मिलित रूप से कारसेफ (सी ए आर एस इ एफ) कहा जाता है। यह पूछे जाने पर कि क्या इसके लिए फंड उपलब्ध कराया जा रहा है, कृष्णा ने कहा था कि बात फंड की नहीं, जरूरत मतों की संख्या की है।
      हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए जरूरी संख्या में मत चाहिए। अमेरिका स्थित अप्रवासी भारतीय भी इसके लिए प्रयासरत हैं। फिलहाल संयुक्त राष्ट्र प्रति सप्ताह हिंदी में बुलेटिन जारी करता है। यह सुनकर हम शायद खुश हो लें और बल्लियों उछल भी लें कि चलो, हिंदी राष्ट्रभाषा न सही संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा तो बन जायेगी। और हिंदी-हिंदी करने वाले लोगों को विदेश में हिंदी दिवस मनाने का मौका भी मिलने लगेगा। मगर इन सबके बावजूद भी हिंदी का कितना भला होने वाला है? क्या द्विभाषी अखबार बंद हो जायेंगे? क्या शिक्षा व्यवस्था में कोई बदलाव आयेगा? क्या हिंदी रोजगार की भाषा बन पायेगी? क्या असम और महाराष्ट्र के लोग हिंदी भाषियों का विरोध करना बंद कर देंगे? और क्या हमारा देश अपनी राष्ट्र भाषा का गौरव प्राप्त कर पायेगा? यह सब अभी किसी सपने जैसा है। फिर भी, आइये बढते हैं अगले पडाव की ओर  और मनाते हैं एक और हिंदी दिवस। ठीक वैसे ही जैसे दशहरा, दिवाली, ईद, होली आदि धूमधाम से मनाते हैं। इस उम्मीद के साथ कि आने वाले दिनों में हिंदी भारतवर्ष की न केवल राष्ट्रभाषा होगी, वरन संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा भी होगी। 

प्रभात खबर 10 सितम्बर, शम्सुल इस्लाम का इंटरव्यू


Saturday, September 10, 2011

एक लम्हे के लिए


तेज होती बारिश में 
भीगते हुए अचानक
एक लम्हे के लिए
आ गया मैं उसकी छतरी में

एक लम्हे के लिए
मैंने उसे देखा
और उसने मुझे देखा
एक लम्हे के लिए
हम दोनों मुस्कुराए
एक दूसरे का शुक्रिया किया
और आगे बढ गये

एक लम्हे के लिए ऐसा लगा
मैंने उसे जिया
और उसकी खामोश गहरी आंखों में
अपनी जिंदगी रखकर
मैं आगे बढ गया जैसे

एक लम्हे के लिए ऐसा लगा
जितना दूर होता गया उससे
ठीक उतना ही
पास होता गया उसके
एक लम्हे के लिए

आह! किसी के लिए फकत 
एक लम्हे के लिए जीना भी 
एक खूबसूरत जिंदगी का जीना है