Wasim Akram |
नौकरीशुदा एक महीने के चार हफ्ते
चार युग की तरह होते हैं जैसे
पहला हफ्ता सतयुग की तरह
सैलरी आती है जिसमें
हम बहुत अमीर हो जाते हैं
और सुख-दुख का फर्क
जरा सा भूल जाते हैं कुछ दिनों के लिए।
जिसने पैसे मांगे उसे दिया
और जिसने नहीं मांगे उसे भी दिया,
उन्हीं दिनों ऐसा भी लगता है
कि कहीं न कहीं 'काम का इश्क'
गढ़ता है 'पैसे का हुस्न'।
दूसरा हफ्ता द्वापर की तरह
घर का किराया, राशन का खर्च
और कुछ देनदारियों को मिलाकर
खत्म हो जाती है आधी सैलरी
फिर एक मध्यवर्गीय परिवार के मुखिया की तरह
जुट जाते हैं जोड़-घटाव करने।
मस्तियां पास आये तो हां भी नहीं
हां मगर पूरी तरह ना भी नहीं
और एक चैथाई बची सैलरी में जैसे-तैसे
चलते-चलाते, चुकते-चुकाते
जरा सा बचता है चौथे हफ्ते कलयुग के लिए।
जरा सा बचता है चौथे हफ्ते कलयुग के लिए।
ऐसा लगता है उस वक्त
के 'काम का इश्क'
बिलकुल नहीं गढ़ता 'पैसे का हुस्न'
बल्कि अगली सैलरी के इंतजार में
पैसे का हुस्न ही
गढ़ने लगता है काम के इश्क को।
गढ़ने लगता है काम के इश्क को।
इसी बीच आफिस जाते हुए किसी दिन
बचते हैं किराये भर के पैसे जेब में जब
कि कोई अपना सा आकर पास हमारे
अपनी जरूरत के लिए मासूम आग्रहों से
उसे भी छीन ले जाता है हमसे
और महीने के आखिरी दो से तीन दिन तो
किसी घोर कलयुग की तरह गुजरते हैं जैसे,
एक कर्ज में हैं मगर फिर
जरूरत पड़ जाती है एक और कर्ज की,
मुश्किल ऐसा कि
थकन से सिर में दर्द हो अगर
तो भी नहीं ले पाते हम दवा कोई।
मगर अगली सुबह ताजगी है चेहरे पर
हम बहुत खुश हैं कि आज सैलरी का दिन है।
Wasim Bhai isse achhi naukarishuda zindagi ki tasvir nahi ho sakti good one brother.............
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