Friday, November 21, 2014

धर्म की खोखली बुनियादों में दबी स्त्री

संस्कृति, परंपरा, आदर्श, तहज़ीब, रीति रिवाज़ और शरियत जैसे बड़े वज़नदार शब्द सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं। और ये भी कि इनको शिद्दत से मानना चाहिए और इनका पालन करना चाहिए जिससे समाज में कोई बुराई जड़ न कर जाए। मगर यही शब्द कभी कभार जड़ता का रूप लेकर इंसानी ज़िंदगी में सड़ांध पैदा करने लगते हैं और इन शब्दों की आवाज़ तब इतनी बदबूदार हो जाती है कि इंसान अपने कान सिकोड़ने लगता है। ऐसे शब्दों को नहीं सुनना चाहता। क्यों?


            उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक कस्बा है बहादुरगंज। वहां मुसलमानों की अक्सरियत है। हिंदू विरादरी भी है लेकिन बहुत कम। मुस्लिम बहुल इलाका होने की वजह से वहां इस्लामी तहजीब की झलक चारों तरफ दिखाई देती है, मगर वह तहजीब सिर्फ बाहरी आवरण भर है। उस तहजीब की बेरंग सूरतें तो उस आवरण के भीतर मौजूद हैं। और विडंबना देखिए कि इन सूरतों में एक भी सूरत किसी पुरूष की नहीं है। पुरूष सत्तात्मक इस समाज ने औरत के पैरों में धर्म और परंपरा की बेड़ियां डालकर उन्हें किस तरह तड़पने पर मजबूर कर दिया है, इसकी बानगी उस कस्बे के घरों की खिड़कियों से असहाय झांकते उन अबला चेहरों को पढ़कर देखा जा सकता है। वो चेहरे हैं उन लड़कियों के जिन्हें शादी के बाद या तो छोड़ दिया गया है या तलाक दे दिया गया है। उस कस्बे में 50 प्रतिशत ऐसी लड़कियां हैं, एक घर में चार लड़कियों में से दो लड़कियां तलाकशुदा हैं या उन्हें उनके पतियों द्वारा प्रताड़ित कर छोड़ दिया गया है। समाज के लोकलाज से डरी सहमी, अवसादग्रस्त ये लड़कियां अपने मायके में अपने छोटे बच्चों को लेकर किसी कैदी की तरह कैद हैं। भरी जवानी में तलाक का दंश झेल रही इन लड़कियों की पहाड़ सी जिंदगी सिर्फ अल्लाह मियां के भरोसे कैसे कट रही है, इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। और गरीब मां बाप के पास इतना पैसा नहीं कि वो अपनी बेटियों की मान मर्यादा के लिए केस लड़ सकें।

       कबीर दास जी कहते हैं ‘‘खाला घरे बेटी ब्याहे, घरहीं में करे सगाई।’’ उन लड़कियों के हालात के मद्देनजर इन पंक्तियों की प्रासंगिकता यह है कि मुसलमानो में चार शादियां जायज हैं लेकिन इन चार शादियों के लिए कैसी कैसी कितनी सूरतें हैं, ये ज्यादातर मुसलमान या यूं कहें तो ज्यादातर मुसलमान इसे नहीं जानते। और शरियत ये कि दूध के रिश्ते को छोड़कर किसी भी लड़की से शादी जायज मानी जाती है। ऐसी स्थिति में चाचा, मामा, बुआ, मौसी की लड़की या गांव की किसी और हमबिरादर लड़की से वहां का कोई भी लड़का शादी कर सकता है। इस्लामी शरीयत और तहजीब के चश्में से देखें तो यह अच्छा लग सकता है, लेकिन जब इसके सामाजिक परिणाम को देखते हैं तो गुस्सा फूट पड़ता है।

       दरअसल इसके पीछे एक जबरदस्त कारण है मुस्लिमों का अशिक्षित होना। मुसलमानों में साक्षरता की दर बहुत ही कम है। अगर वो पढ़ते भी हैं तो सिर्फ अपनी धार्मिक किताबों और शरीयत को ही पढ़ते हैं। इनके अंदर दुनिया, समाज की समझदारी कम है और रूढ़िवादिता, कट्टरता ज्यादा है, जिसके परिणाम स्वरूप चार शादी को जायज मानकर तीन को तलाक देकर उनकी जिंदगी बद से बदतर बनाने जैसा घृणित काम करते हुए ये बिल्कुल नहीं सकुचाते, बल्कि ये कहते हैंदृ हम धर्म पे हैं क्योंकि हम जायज पे हैं। मगर तलाक के बाद की नाजायज होने वाली चीजें ये नहीं समझ पाते। यहां तक कि एक घर में जिसने तीन शादियां कर सबको छोड़ दिया है उसी की तीन बहने तलाक लिए बैठी हैं। अब आप सोच सकते हैं कि जहां इस तरह की तहजीब होगी वहां का माहौल क्या होगा? एक तो इनमे शिक्षा की वैसे ही कमी है, दूसरे दारूल ओलूम के मुफ्ती मुल्ला रोज़ कोई न कोई फतवा देते रहते हैं। अभी पिछले दिनो एक फतवा आया था कि ‘‘ मुस्लिम महिलाओं का मर्दों के साथ काम करना गैरइस्लामी है।’’ क्या ये बताएंगे कि तलाक देकर या छोड़कर उन लड़कियों की जिंदगी बरबाद करना कितना इस्लामी है, जिनकी गोद में एक दो बच्चे हैं। ये ओलमा बहादुरगंज या उस जैसे सैकड़ों गांवों और कस्बों की लड़कियों, औरतों के हालात पर क्यों कुछ नहीं बोलते? क्या सारे फतवे औरतों के लिए है, मर्दों के लिए कुछ नहीं? क्या इन्हें इन सब बातों का इल्म नहीं? है। क्योंकि बहादुरगंज जैसे सैकड़ों गांवों और कस्बों के कुछ लोग ही सही उसी दारूल ओलूम में पढ़ाई करते हैं। 


             ये सारे ओलमा भी एक तरह से सत्ताभोगी हैं, जो धार्मिक लबादा पहने अपने मतलब की शरई सियासत करते हैं। मुसलमान गरीब हैं, अशिक्षित हैं, बेरोजगार हैं और लाचार हैं मगर इन मुल्लाओं को इनकी चिंता नहीं है। ये तो बस तब्लीग की दावत देते हैं और बड़ी बड़ी किताबी, शरई बातें करना जानते हैं। ये हाईटेक ओलमा अपनी दुकान चलाने के लिए टीवी पर आकर सानिया मिर्जा की शादी पर और उसके स्कर्ट पर तो ख़ूब बोलते हैं, मगर उन अबलाओं, तलाकशुदा लड़कियों की जिंदगी को देखते हुए, जानते हुए भी कुछ नहीं बोलते। हिन्दुस्तान में आज ज्यादातर मुसलमानो को ये नहीं पता कि मानवाधिकार क्या है? महिला आयोग क्या है? ये खुद के लिए भी कोई कानूनी लड़ाई से डरते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप हमेशा दबे कुचले रहते हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ इनमे कट्टरता ऐसी है कि अपने नजदीकी मस्जिदों में नमाज भले न पढ़ें मगर बाबरी मस्जिद बनवाकर वहां नमाज पढ़ने की ख्वाहिश पाल रखे हैं।

       देखा जाए तो मुसलमानो के लिए हिन्दुस्तान से सुरक्षित जगह पूरी दुनिया में कहीं नहीं, लेकिन फिर भी अपने आस पड़ोस की बुराईयों को नजरअंदाज कर दूसरे मुल्कों के मुसलमानों की हालत पर तरस खाकर कहते हैं—‘‘हमें सताया जा रहा है।’’ इन तमाम मौलवी, मुफ्ती, मुल्लाओं को ये सोचना चाहिए कि मुसलमानो में शिक्षा का विस्तार कैसे हो, तभी बहादुरगंज जैसी जगहों पर लड़कियों के साथ हो रहे इन अत्याचारों को रोका जा सकता है। और एक जायज़ समाज का निर्माण किया जा सकता है।  

       स्त्री को जननी कहा जाता है, मगर बाइबिल के मुताबिक ईश्वर ने सबसे पहले एक पुरुष आदम को बनाया और फिर आदम की तरह स्वतंत्र श्रृजन न करके उसी पुरुष की बाईं पसली से एक स्त्री हव्वा को बनाया। जिसे हम अर्धांगिनी की संज्ञा देते हैं। आज भले ही हम स्त्री को आधी दुनिया का दर्जा देकर उसको पुरुष के बराबर हक देने की बात करें लेकिन पुरुष रुपी ईश्वर की सत्ता ने सबसे पहले एक पुरुष को पैदा कर और उसकी बाईं पसली से एक स्त्री को पैदा कर एक पुरुष सत्तात्मक संरचना की नींव डाली, जिसके परिणाम स्वरूप हमारा समाज एक पुरुष सत्तात्मक समाज कहलाने लगा। हिन्दू देवी देवताओं में सर्वपरि ब्रम्हा, विष्णु, महेश भी पुरुष देवता हैं। हालांकि, इनसे कुछ अलग तरह से मुसलमानों की धार्मिक किताब क़ुरान में आता है कि आदमी और औरत के लिए अल्लाह ने फरमाया- ‘मैंने तुम दोनों को एक ही चीज से बनाया है, लेहाजा तुम दोनों एक-दूसरे पर बरतर नहीं हो।’ सच क्या है पता नहीं। लेकिन अगर इन सभी मान्यताओं को के हिसाब से देखा जाए तो हमारी धार्मिक मान्यताओं मे स्त्री के उपेक्षित होने के लिए ईश्वर ही दोषी है। शुरू से ही पुरुष खुद को सबला मानता रहा है और स्त्री को अबला। स्त्री के उपेक्षित होने एक वृहद और प्राचीनतम इतिहास है। तभी तो हम दिन पर दिन आधुनिक होते जा रहे हैं फिर भी हमारी मानसिकता जस की तस, वहीं की वहीं है। अगर हमें उनको पुरुष जैसा हक देना है तो सबसे पहले उस इतिहास को भूलकर पुरुष मानसिकता में बदलाव लाना होगा। जो अभी संभव नहीं लग रहा। 

        छठवीं शताब्दी में मुसलमानों के आखिरी पैगम्बर मुहम्मद साहब जब मक्का में पैदा हुए तो उनके जमाने में लड़कियों, स्त्रियों पर तरह तरह के जुल्म ढाए जाते थे। पैदा होते ही लड़कियों को ज़िंदा जमीन में दफना दिया जाता था, वो इसलिए कि उनको अपनी नाक प्यारी थी। मुहम्मद साहब ने इस कुप्रथा को खत्म किया और इस्लाम धर्म की स्थापना की। मगर उसी इस्लाम ने मर्दों के लिए चार शादी जायज मानकर तलाक की ऐसी व्यवस्था दी जिसमें अगर एक मर्द किसी औरत को तलाक देता है और यदि फिर उसे अपनाना चाहता है तो उस औरत को पहले किसी और मर्द से निकाह करना होगा और फिर उस निकाह को तोड़कर अपने पहले पति से निकाह कर सकेगी। चार शादी सिर्फ मर्दों के लिए, यह एक स्त्री संवेदना के साथ खिलवाड़ सा लगता है। सीता की अग्नि परीक्षा से लेकर सती प्रथा तक में सिर्फ स्त्री ने ही अपने शरीर और संवेदनाओं की बलि दी है। 

        जिस समाज में एक पुरूष कई स्त्रियां रख सकता हो मगर वहीं एक स्त्री कई पुरूष नहीं रख सकती हो और साथ ही स्त्री के लिए विधवा विवाह वर्जित हो उस समाज में नारी के अधिकार रुपी कोमल स्वरों पर पुरुष सत्तात्मक दुगुन तिगुन के आघात से पैदा एक मानसिक अतिवाद का सरगम ही तो है जिसे पुरुष अपना दंभ समझकर गाता फिर रहा है।

        उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों में सगोत्र विवाह के खिलाफ उठ खड़ा हुईं सर्वखाप पंचायतें भी इसी मानसिक अतिवाद का नतीजा हैं। इन पंचायतों में सिर्फ पुरुष भाग लेते हैं, चाहे मसला भले ही किसी स्त्री से जुड़ा हो। जिस पंचायत में महिलाओं की कोई भागीदारी नहीं वहां कैसा फैसला हो सकता है ये समझना बहुत आसान है। ये कैसी विडम्बना है रूढ़िवादिता और धर्म की सगोत्र विवाह की सजा के नाम पर उस लड़की के साथ पहले सामुहिक बलात्कार और फिर हत्या जो उनके गांव और गोत्र के ही हैं, जिन्हें पंचायतें भाई बहन तक मानती हैं।

       18 जून 2010 को दिल्ली हाई कोर्ट ने नरेश कादियान के हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन कर गोत्र शादियों पर प्रतिबंध लगाने की जनहित याचिका को खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति शिवनारायण ढींगरा व न्यायमूर्ति एके पाठक की खंडपीठ ने सुनवाई में याची से पूछा कि गोत्र क्या होता है? याची ने कहा, यह हिन्दू मान्यता है। कोर्ट ने इस मान्यता के तर्क को खारिज करते हुए कहा, किसी भी हिन्दू ग्रंथ में इस प्रकार के विवाह पर प्रतिबंध के बारे में नहीं लिखा गया है और ना ही कोई मान्यता है। जाहिर सी बात है ये परंपरायें,मान्यताएं किसी विशेष देश काल का परिणाम हैं जिन्हें आज के परिप्रेक्ष में देखना सरासर अनुचित है। इन मान्यताओं का कोई प्रमाणिक धर्मग्रंथ या शाष्त्र नहीं है। 


        दरअसल गोत्र का ये मसला सिर्फ गोत्र का नहीं लगता। इस गोत्रीय मान्यता की आड़ में ये सवर्ण पंचायतें दलितों, गरीबों में पनप रहे प्रेम और आधुनिकता को फूटी आंख नहीं देखतीं। इन पंचायतों के सदस्य रसूख वाले होते हैं जहां सिर्फ उन्ही की मरजी चलती है। यह परंपरा का ढोंग ही तो है जो सामुहिक बलात्कार करते समय ये नहीं सोच पाते कि वो लड़की उन्ही के गांव की उन्ही की बहन है। जाहिर है परंपरा, मान्यता या आडम्बर के बीच किसी सोच के लिए कोई जगह नहीं बचती। ये 21वीं सदी के भारत का विभत्स चेहरा है जहां एक तरफ तो आधुनिक होने की बात की जाती है तो दूसरी तरफ स्त्रियों का मानसिक, शारीरिक शोषण किया जाता है और उनकी संवेदनाओं पर रूढ़िगत परंपराओं का कुठाराघात किया जाता है। ये वो भारत नहीं लगता जहां नारी को शक्ति का रूप कहा जाता है और उसकी पूजा की जाती है। 

       एक पंक्ति है— ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।’’ इस लाइन में कवि ने नारी को भी ताड़न का अधिकारी मानकर एक वैचारिक भूल की थी जिसे हम आज तक ढो रहे हैं। वह कवि भी पुरुष था जिसने अपने दंभ का परिचय देकर नारी पुरुष के बीच एक लकीर खींच दी। तमाम रूढ़िगत परंपराओं को दरकिनार कर आधुनिक मानसिकता से इस खाई को पाटने की जरूरत है तभी स्त्री को पुरुष जैसा अधिकार मिल सकेगा।