Saturday, April 30, 2011

जल है तो कल है


रोज अखबारों में कहीं न कहीं खबर छपता है कि आज फलां जगह पर पानी के लिए लड़ाई हुई। पिछले 17 अप्रैल को मुंबई के कुलावा में पानी को लेकर हुई मार पीट में एक व्यक्ति की जान चली गई। राजस्थान में तो औरतें पानी के लिए तीन से चार किलोमीटर तक पैदल चलकर गड्ढों, तालाबों, बावडि़यों तक पहुंचती हैं। इसके बावजूद भी उन्हें गंदा पानी ही नसीब होता है। देश की राजधानी दिल्ली में भी आए दिन पानी को लेकर हंगामा होता ही रहता है। रोज ब रोज पानी की बढ़ती हुई कमी को देखते हुए दैनिक भास्कर का ‘जल है तो कल है’ वैचारिक अभियान बहुत सराहनीय है। एक सर्वे के मुताबिक आधुनिक सुख सुविधाओं से संपन्न शहर के मकानो में रहने वाले लोग कमोड को फ्लश करने में जितना पानी एक बार में खर्च कर देते हैं, उतना एक आदमी के लिए दिन भर के पीने के लिए काफी होता है। आंकड़ों की मानें तो भारत में लगभग 40 करोड़ घरों में इस आधुनिक सुविधा की व्यवस्था है। और एक आदमी दिन भर में कम से कम चार से पांच बार छोटी बड़ी शंका समाधान के लिए बाथरूम जाता है, और हर बार जरूरत से ज्यादा पानी डालता है। इस तरह देखा जाए तो एक व्यक्ति लगभग चार से पांच लोगों के पीने के बराबर यानी 25 से 30 लीटर पानी दिन भर में सिर्फ बाथरूम में बहा देता है, और रोज लगभग 750 करोड़ लीटर से 900 करोड़ लीटर पानी बाथरूम के हवाले हो जाता है। 


अगर इस्तेमाल करने की बात होती तो ठीक था लेकिन यह तो पूरी तरह से गैरजरूरतन पानी की बरबादी है। आए दिन लोग अपनी गाडि़यो को नहलाते मिल ही जाते हैं। अगर वो चाहते तो एक बाल्टी पानी में कपड़ा भिगोकर अच्छी तरह सफाई कर सकते हैं, मगर ऐसा करना वो अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। जितनी तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा है उतनी ही तेजी से पानी की कमी भी बढ़ रही है। आज भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शुद्ध पानी से वंचित है। 


इस पृथ्वी का लगभग 71 प्रतिशत भाग पानी से भरा है। इस पानी का 97.3 प्रतिशत भाग महानगरों में है जबकि सिर्फ 2.7 प्रतिशत भाग भूतल पर मौजूद है। युनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कुल जल संसाधन का 97.3 प्रतिशत समुद्र्री जल के रूप में, 2.1 प्रतिशत बर्फ के रूप में तथा .6 प्रतिशत भूमिगत यानी मृदु जल के रूप में मौजूद है। इस तरह देखा जाए तो पृथ्वी पर पाए जाने वाले कुल जल का सिर्फ .6 प्रतिशत भाग ही मानव प्रयोग हेतु मृदु जल के रूप में मौजूद है।


माना ये जा रहा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। हो सकता है आपको यह बात कोई अतिशयोक्ति लगे। लेकिन इतना स्पष्ट है कि पानी की कमी अब वैश्विक समस्या बनती जा रही है। आज विश्व की लगभग सात अरब जनसंख्या में से सवा अरब से भी अधिक लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल रहा है। संयुक्त राष्ट संघ ने भारत को पानी की गुणवत्ता और उपलब्धता के मानकों के आधार पर 120वां स्थान दिया है कि भारत के 38 प्रतिशत शहरों और 82 प्रतिशत गांवों में शुद्ध पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। 


आमिर खान कहते हैं कि रोज अपनी दैनिक जरूरत में से 15 प्रतिशत पानी बचाईए। मुझे नहीं पता वो ऐसा करते हैं या नहीं लेकिन देश का ये 15 प्रतिशत पानी तो फिल्म इंडस्ट्री में फिल्मों की शूटिंग में बरबाद हो जाता है जो बेवजह, बेजरूरत ही होता है। इमरान हाशमी और सोहा अली खान अभिनीत एक फिल्म आई थी ‘तुम मिले’, जिसमे तकरीबन दो लाख लीटर से ज्यादा पानी शूटिंग में बरबाद किया गया था, जिस पर मीडिया ने एक बहस भी चलाई थी। 15 से 20 प्रतिशत पानी तो भारत में लापरवाहियों के चलते बूंद बूंद गिरते टोटी से बरबाद हो जाता है। हमें सलाम करना चाहिए उस लेखक आबिद सुरती को जिन्होने अपनी लेखकीय धर्म से इतर मंुबई के गली मुहल्ले में बूंद बूंद कर गिरते टोटियों को खुद ठीक करने लिए चल पड़े। भारत के हर नागरिक से ऐसे ही एक सार्थक कदम की जरूरत है। मगर सवाल ये है कि वहां ये कैसे संभव होगा जहां घर की टोटी से टपकते बूंदों के लिए दोष भी सरकार को दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, कूड़ा करकट हम नालियों में फेंकते रहते हैं, और जब बरसात मे पानी सड़कों से होकर घरों में घुसने लगता है, तब हम लोग पानी पी पी कर सरकार को कोसने लगते हैं। यही कूड़ा कचरा आज नालियों और गटरों से होकर हमारी नदियों को मैला कर रहा है जिसके परिणाम स्वरूप कुछ नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं और पानी की किल्लत दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। 


अगर हम नहीं चेते तो सचमुच ये संभव है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए ही हो। इसके लिए भारत के हर नागरिक को अपना नैतिक कर्तव्य समझकर पानी बचाने का हर संभव प्रयास करना चाहिए, क्योंकि परंपरागत जलश्रोतों को बचाने का दावा तो सरकार बहुत करती है लेकिन सारी घोषणाएं सिर्फ कागजों पर ही होती हैं। उचित रखरखाव की अनदेखी के कारण तालाब, झीलें, नहरें, कूएं और दूसरे जलश्रोत दिन पर दिन सूखते जा रहे हैं। इन्हें बचाने के लिए हम सबको आगे आना होगा, क्योंकि जल है तो कल है। 

Friday, April 22, 2011

खोखली बुनियादें

        
           संस्कृति, परंपरा, आदर्श, तहज़ीब, रीति रिवाज़ और शरियत जैसे बड़े वज़नदार शब्द सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं। और ये भी कि इनको शिद्दत से मानना चाहिए और इनका पालन करना चाहिए जिससे समाज में कोई बुराई जड़ न कर जाए। मगर यही शब्द कभी कभार जड़ता का रूप लेकर इंसानी जि़दगी में सड़ांध पैदा करने लगते हैं और इन शब्दों की आवाज़ तब इतनी बदबूदार हो जाती है कि इंसान अपने कान सिकोड़ने लगता है। ऐसे शब्दों को नहीं सुनना चाहता।

            उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक कस्बा है बहादुरगंज। वहां मुसलमानों की अक्सरियत है। हिंदू विरादरी भी है लेकिन बहुत कम। मुस्लिम बहुल इलाका होने की वजह से वहां इस्लामी तहजीब की झलक चारों तरफ दिखाई देती है, मगर वह तहजीब सिर्फ बाहरी आवरण भर है। उस तहजीब की बेरंग सूरतें तो उस आवरण के भीतर मौजूद हैं। और विडंबना देखिए कि इन सूरतों में एक भी सूरत किसी पुरूष की नहीं है। पुरूष सत्तात्मक इस समाज ने औरत के पैरों में धर्म और परंपरा की बेडि़यां डालकर उन्हें किस तरह तड़पने पर मजबूर कर दिया है, इसकी बानगी उस कस्बे के घरों की खिड़कियों से असहाय झांकते उन अबला चेहरों को पढ़कर देखा जा सकता है। वो चेहरे हैं उन लड़कियों के जिन्हें शादी के बाद या तो छोड़ दिया गया है या तलाक दे दिया गया है। उस कस्बे में 50 प्रतिशत ऐसी लड़कियां हैं, एक घर में चार लड़कियों में से दो लड़कियां तलाकशुदा हैं या उन्हें उनके पतियों द्वारा प्रताडि़त कर छोड़ दिया गया है। समाज के लोकलाज से डरी सहमी, अवसादग्रस्त ये लड़कियां अपने मायके में अपने छोटे बच्चों को लेकर किसी कैदी की तरह कैद हैं। भरी जवानी में तलाक का दंश झेल रही इन लड़कियों की पहाड़ सी जिंदगी सिर्फ अल्लाह मियां के भरोसे कैसे कट रही है, इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। और गरीब मां बाप के पास इतना पैसा नहीं कि वो अपनी बेटियों की मान मर्यादा के लिए केस लड़ सकें।
          कबीर दास जी कहते हैं  ‘‘खाला घरे बेटी ब्याहे, घरहीं में करे सगाई।’’ उन लड़कियों के हालात के मद्देनजर इन पंक्तियों की प्रासंगिकता यह है कि मुसलमानो में चार शादियां जायज हैं लेकिन इन चार शादियो के लिए कैसी कैसी कितनी सूरतें हैं, ये ज्यादातर मुसलमान या यूं कहें तो 90 प्रतिशत मुसलमान इसे नहीं जानते। और शरियत ये कि दूध के रिश्ते को छोड़कर किसी भी लड़की से शादी जायज मानी जाती है। ऐसी स्थिति में चाचा, मामा, बुआ, मौसी की लड़की या गांव की किसी और हमबिरादर लड़की से वहां का कोई भी लड़का शादी कर सकता है। इस्लामी शरीयत और तहजीब के चश्में से देखें तो यह अच्छा लग सकता है, लेकिन जब इसके सामाजिक परिणाम को देखते हैं तो गुस्सा फूट पड़ता है।
        दरअसल इसके पीछे एक जबरदस्त कारण है मुस्लिमों का अशिक्षित होना। मुसलमानों में साक्षरता की दर बहुत ही कम है। अगर वो पढ़ते भी हैं तो सिर्फ अपनी धार्मिक किताबो और शरीयत को ही पढ़ते हैं। इनके अंदर दुनिया, समाज की समझदारी कम है और रूढि़वादिता, कट्टरता ज्यादा है, जिसके परिणाम स्वरूप चार शादी को जायज मानकर तीन को तलाक देकर उनकी जिंदगी बद से बदतर बनाने जैसा घृणित काम करते हुए ये बिल्कुल नहीं सकुचाते, बल्कि ये कहते हैंदृ हम धर्म पे हैं क्योंकि हम जायज पे हैं। मगर तलाक के बाद की नाजायज होने वाली चीजें ये नहीं समझ पाते। यहां तक कि एक घर में जिसने तीन शादियां कर सबको छोड़ दिया है उसी की तीन बहने तलाक लिए बैठी हैं। अब आप सोच सकते हैं कि जहां इस तरह की तहजीब होगी वहां का माहौल क्या होगा? एक तो इनमे शिक्षा की वैसे ही कमी है, दूसरे दारूल ओलूम के मुफ्ती मुल्ला रोज़ कोई न कोई फतवा देते रहते हैं। अभी पिछले दिनो एक फतवा आया था कि ‘‘ मुस्लिम महिलाओं का मर्दों के साथ काम करना गैरइस्लामी है।’’ क्या ये बताएंगे कि तलाक देकर या छोड़कर उन लड़कियों की जिंदगी बरबाद करना कितना इस्लामी है, जिनकी गोद में एक दो बच्चे हैं। ये ओलमा बहादुरगंज या उस जैसे सैकड़ों गांवों और कस्बों की लड़कियों, औरतों के हालात पर क्यों कुछ नहीं बोलते? क्या सारे फतवे औरतो के लिए है, मर्दों के लिए कुछ नहीं? क्या इन्हें इन सब बातों का इल्म नहीं? है। क्योंकि बहादुरगंज जैसे सैकड़ों गांवों और कस्बों के कुछ लोग ही सही उसी दारूल ओलूम में पढ़ाई करते हैं।
  ये सारे ओलमा भी एक तरह से सत्ताभोगी हैं, जो धार्मिक लबादा पहने अपने मतलब की शरई सियासत करते हैं। मुसलमान गरीब हैं, अशिक्षित हैं, बेरोजगार हैं और लाचार हैं मगर इन मुल्लाओं को इनकी चिंता नहीं है। ये तो बस तब्लीग की दावत देते हैं और बड़ी बड़ी किताबी, शरई बातें करना जानतेे हैं। ये हाईटेक ओलमा अपनी दुकान चलाने के लिए टीवी पर आकर सानिया मिर्जा की शादी पर और उसके स्कर्ट पर तो ख़ूब बोलते हैं, मगर उन अबलाओं, तलाकशुदा लड़कियों की जिंदगी को देखते हुए, जानते हुए भी कुछ नहीं बोलते। हिन्दुस्तान में आज 90 प्रतिशत मुसलमानो को ये नहीं पता कि मानवाधिकार क्या है? महिला आयोग क्या है? ये खुद के लिए भी कोई कानूनी लड़ाई से डरते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप हमेशा दबे कुचले रहते हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ इनमे कट्टरता ऐसी है कि अपने नजदीकी मस्जिदों में नमाज भले न पढ़ें मगर बाबरी मस्जिद बनवाकर वहां नमाज पढ़ने की ख्वाहिश पाल रखे हैं।
देखा जाए तो मुसलमानो के लिए हिन्दुस्तान से सुरक्षित जगह पूरी दुनिया में कहीं नहीं, लेकिन फिर भी अपने आस पड़ोस की बुराईयों को नजरअंदाज कर दूसरे मुल्कों के मुसलमानों की हालत पर तरस खाकर कहते हैंदृ‘‘हमें सताया जा रहा है।’’ इन तमाम मौलवी, मुफ्ती, मुल्लाओं को ये सोचना चाहिए कि मुसलमानो में शिक्षा का विस्तार कैसे हो, तभी बहादुरगंज जैसी जगहों पर लड़कियों के साथ हो रहे इन अत्याचारों को रोका जा सकता है। और एक जायज़ समाज का निर्माण किया जा सकता है।  

Sunday, April 3, 2011

उस घर से

इस नये घर में 

वैसे तो सब कुछ है
जब चाहूं तब आने-जाने की आजादी,
सोने-खाने की आजादी, 
बिला-वक्त नाचने गाने की आजादी
और सबसे बढ़कर 
खुलकर जीने की आजादी

मगर ऐसी आजादी 
बेमाने लगती है मुझे
क्योंकि इसमें
सुनीता की डांट नहीं है कहीं
जो कहती थी-
छीः कितने गंदे हो आप!
क्यों सिगरेट पीते हो इतना!

मैम का मासूम गुस्सा नहीं है इसमें
जो कहती थीं-
बहुत गंदा नशा है सिगरेट!
और मेरा जवाब होता था-
सबसे बुरा नशा तो इश्क है मैम
जो अब तक मुझे हुआ नहीं.
और वो हंसकर कहती थीं-
पागल हो गये हैं आप!

सिम्मी, गोलू और निक्कू की 
मासूम हरकतें नहीं हैं इसमे
जिनके साथ खेलते हुए
मैं भी बच्चा बन जाता था,
लौट आता था मेरा बचपन,
उम्र बढ़ जाती थी मेरी...

ऐसा लगता है
सिर्फ अपना जिस्म लेकर
लौट आया हूं वहां से,
मेरा दिल, मेरी रूह
वहीं कहीं छूट गये हैं मुझसे.

अगर ये दोनो मिल जायें आपको
तो प्लीज!!!
कम्बख्तों का कान पकड़ कर 
दो थप्पड़ दीजिएगा
और भेज दीजिएगा मेरे पास.