Thursday, December 10, 2015

श्रद्धांजलि : एक विद्रोही जनकवि का जाना

- कृष्ण प्रताप सिंह
       ‘तुम/वे सारे लोग/ मिलकर मुझे बचाओ/ जिनके खून के गारे से/ पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं.../तुम मुझे बचाओ!/ मैं तुम्हारा कवि हूं।’ 
Ramashankar Yadav 'Vidrohi'
        पिछले कई दशकों से प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू समेत देश के अनेक विश्वविद्यालयों के परिसरों के अन्दर और बाहर यह गुहार लगाते आ रहे जनकवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ ने गत आठ दिसम्बर को शाम साढ़े चार बजे अंतिम सांस ली, तो हिन्दी ने अपनी वाचिक परम्परा और प्रगतिशील वाम चेतना का अब तक का अन्तिम विद्रोही जनकवि खो दिया। जनकवि, जो इस अपवंचित राष्ट्र के हलवाहों-चरवाहाें, केवट-कहारों, किसान-मजदूरों, दलितों-वंचितों, स्त्रियों और बच्चों को साथ लेकर उनकी यातनाओं, सपनों व भविष्य के प्रश्नों के समाधान के लिए तमाम पंडों-पुरोहितों, मुल्ला-मौलवियों, महाजनों-जमीन्दारों और पूंजीपतियों-साम्राज्यवादियों से लड़ता व ‘अपहृत अतीत’ का हिसाब मांगता था। जनकवि, जिसे पहले भी कुछ कम नहीं मारा गया। ‘अनेक बार घोषित किया गया/ राष्ट्रीय अखबारों में, पत्रिकाओं में/कथाओं में, कहानियों में/कि विद्रोही मर गया’, लेकिन वह जिन्दा रहा और गाता रहा। जनकवि, जिसके लिए कविता बाप के सूद और मां की रोटी के अलावा बेटा-बेटी और खेती थी। जनकवि, जो आसमान में धान जमाना और भगवानों को धरती से उखाड़ना चाहता था। जनकवि, जिसकी कविताओं में पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छद्म व पाखंड के खिलाफ अपरम्पार गुस्सा व बेहद तीखी घृणा है। जनकवि, जिसके शब्द हर उस आततायी/शोषक को तिलमिला कर रख देते हैं, जिसे अपनी बदमाशियां छिपाने के लिए संस्कृति की पोशाक चाहिए। जनकवि, जिसे अपने लिए कोई फंड, प्रकाशन, पुरस्कार, रोजगार, किसी सरकार की नजरेइनायत या साहित्यिक प्रमोटर नहीं चाहिए था। 
          जनकवि, जो अपने छंदों व लय की तरह ही मुक्त था, कविताएं लिखता नहीं, कहता, गाता था और जिसने अपनी कविताएं कभी खुद कागज पर नहीं उतारीं। भले ही इस कारण उसकी ढेरों अवधी कविताएं उसके जाने के साथ ही हमेशा के लिए खो गयीं और स्नेही मित्र उसकी सैकड़ों रचनाओं में से कुछ को ही लिपिब़द्ध कर ‘नयी खेती’ नाम के संग्रह में प्रकाशित कर पाये। जनकवि, जो आन्दोलनों व प्रतिवाद सभाओं में कविताएं सुनाकर बच्चों की तरह खुश होता था और इस खुशी को ही अपना एकमात्र पुरस्कार बताता था। जनकवि, जो नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरुदा, कबीर और अदम गोंडवी की परम्परा से आता और जेएनयू से बाहर की दुनिया के लिए लगभग अलक्षित था। जनकवि, जो आधुनिक सभ्यता की सारी विडम्बनाएं झेलकर भी फक्कड़ व मलंग बना फिरता था। जनकवि, जो जेएनयू में गया तो अपनी पढ़ाई अपनी पढ़ाई पूरी करने था, लेकिन अपनी विद्रोही प्रतिभा से बौद्धिक बौनेपन व निठल्लेपन के शिकार प्राध्यापकों से कोसों आगे निकलकर वंचितों-शोषितों से एकजुटता के मामले में तमाम डिग्रीधारी ‘किताबी कीड़ों’ को शर्मिन्दा कर गया! जनकवि, जिससे मिलना एक परम्परा से मिलना था और जिसमें जेएनयू कैम्पस के दशकों पुराने आन्दोलनों व पड़ावों के कितने ही किस्से निरंतरता पाते थे। जनकवि, जिसने अपना आखिरी दिन भी आन्दोलनरत रहकर बिताया। जनकवि, जो इस विचार से अपना जीवनरस प्राप्त करता था कि साम्राज्य आखिर साम्राज्य ही होता है, चाहे वह रोमन हो, ब्रिटिश या अत्याधुनिक अमेरिकी। 
Ramashankar Yadav 'Vidrohi'
         हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक विजयबहादुर सिंह प्रायः कहते हैं कि इन दिनों हिन्दी में जो कुछ भी उल्लेखनीय हो रहा है, वह उसके विश्वविद्यालयों, संस्थानों व अकादमियों के बाहर हो रहा है। अगर उनके कहने का अर्थ यह है कि विश्वविद्यालयों, संस्थानों व अकादमियों में जड़ें जमाये ‘अहले खिरत’ अब हमें लगातार निराश कर रहे हैं तो इस जनकवि ने भी उन्हें सही सिद्ध किया, जिसे जेएनयू प्रशासन द्वारा जानबूझकर ‘बाहर’ कर दिया गया था!
          उसके लिए कविता जीविका नहीं, जिन्दगी थी। इसलिए वह उसी की मार्फत बोलता-बतियाता, रोता-गाता, संकल्प लेता, खुद को और सबको संबोधित करता, चिंतन करता, भाषण देता, गरियाता और बौराता था! उसने अपनी कविताओं की एक सर्वथा अलग, अगम व निराली दुनिया बना रखी थी, जिसमें ‘कलजुगहे मजूर’ पूरी सीर मांगा करते थे। जनकवि, जो चाहता था कि ‘भारतभाग्यविधाता’ और ‘जनगणमन अधिनायक’ समेत सारे बडे-बड़े लोग पहले मर लें, फिर वह मरे इत्मीनान से...और हां, जाते-जाते भी जिसने कबीर की तरह जस की तस धरि दीन्हीं चदरिया।   
             तीन दिसम्बर, 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के ऐरी फिरोजपुर गांव में जन्मे करमा देवी व रामनारायण यादव के बेटे रमाशंकर यादव के विद्रोही जनकवि बनने की एक रोचक दास्तान है। बचपन में ही विवाह के बाद वह शांती देवी नामक बालिका का पति बन गया था। शांती पढ़ने जाती थी जबकि वह भैंसें चराता था। लोग मजाक उड़ाते थे कि उसका गौना होगा और शांती उसके घर आयेगी तो उसका अनपढ़ होना सह नहीं पायेगी और उसे छोड़कर चली जायेगी। क्या पता, शांती के छोड़ जाने का भय था या उसके प्रति जन्मा सहज मानवीय अनुराग, चरवाहे रमाशंकर ने पढ़ाई-लिखाई शुरू की तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। बीए के बाद धनाभाव के कारण एलएलबी नहीं कर पाया, तो नौकरी कर ली। लेकिन पढ़ाई की तड़प 1980 में नौकरी छुड़वाकर उसे जेएनयू खींच लायी। उसे हिन्दी में एमए करना था, लेकिन जेएनयू के माहौल में रमा, तो तीस से ज्यादा वसंतों तक उसी का बना रहा। अलबत्ता, छात्र के नहीं, विद्रोही जनकवि के रूप में उसे कर्मस्थली बनाकर। उसके हास्टलों, पहाड़ियों और जंगलों में आय के किसी सुनिश्चित स्रोत के बगैर छात्रों के अयाचित सहयोग से गुजर करते हुए। 1983 में एक छात्र आन्दोलन में हिस्सेदारी के कारण उसे जेएनयू कैम्पस से निकाल दिया गया तो 1985 में उसपर मुकदमा चला। अगस्त, 2010 में जेएनयू प्रशासन ने कथित रूप से अभद्र व अपमानजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए उसके कैम्पस प्रवेश पर पाबन्दी लगायी, तो वह जेएनयू के लगभग छात्रों के लिए मर्मांतक हो उठी थी। 
            काबिलेगौर यह कि इतने विघ्नों व बाधाओं के बावजूद यह विद्रोही अपना राह पर चला तो बस चलता ही गया। जेएनयू की वाम राजनीति की पक्षधर और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढ़ियां उसको उसकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार करती रहीं। वह खुद भी छात्रों के हर न्यायपूर्ण आन्दोलन में तख्ती उठाये,नारे लगाता, कविताएं सुनाता सड़कों पर मार्च करता रहा। अनेक लोकतांत्रिक जुलूसों व प्रदर्शनों में उसकी आवाज दिल्ली की सड़कों पर, बैरिकेडों और पुलिस पिकेटों के सामने गूंजती रही। बाद में वह उत्तर प्रदेश, बिहार व छत्तीसगढ़ आदि के विश्वविद्यालयों के आयोजनों व आन्दोलनों में भी जाने लगा था। जहां भी जाता, प्रगतिशील सोच व सरोकारों वाले छात्र उसे हाथोंहाथ लेते। कई बार उसके कवितापाठ के दौरान अनेक रिक्शेवाले, खोमचे वाले और मजदूर स्वतःस्फूर्त ढंग से जुट जाते और तालियां बजाते। पटना के गांधी मैदान के समीप वाले चैराहे पर हुआ उसका ऐतिहासिक काव्यपाठ इसका सबसे बड़ा गवाह है।   
         नितिन ममनानी ने हिन्दी व भोजपुरी में ‘आई एम योर पोएट’ शीर्षक हिन्दी व भोजपुरी वृत्तचित्र बनाया तो मुम्बई के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में उसे अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाश्रेणी में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का पुरस्कार प्राप्त हुआ था।   
Ramashankar Yadav 'Vidrohi' in JNU Campus

Saturday, May 9, 2015

मां के हाथों की मस

चाहे जितनी भी ने’अमतें भर लूं
चाहे जितना सिकमसर हो लूं
निवाला पेट से आगे नहीं जा पाता कोई
और न पेट ही भरता है ख़ुद से खाने में

उम्र बढ़ने का ये ख़सारा है
कि बरकतें घटती गयी हैं दिन-ब-दिन
निवाले की बड़ी साइज़ भी अब
भूख की शिद्दत का पास नहीं रख पाती

मेरी ज़ुबां में ‘नामू-नामू’ कहते हुए
मां खिलाती थी जब बचपन में
तो जिस्म के सारे हिस्से
रोग़न हो जाया करते थे एक निवाले से

आखि़री निवाले के बाद जब कहती थी मां
चल उठ, खड़ा हो जा तो ज़रा
कि खाना हाथ-पांव तक चला जाये
तो हड्डियों को मेरी एक उम्र मिल जाती थी जैसे

मां के हाथों की मस थी कि हाथी-घोड़े तक के
सारे निवाले चट कर जाता था पल में
लेकिन अब तो, ख़ुद के निवाले भी नहीं खा पाता
और न पेट ही भरता है खुद से खाने में

        चाहे जितना सिकमसर हो लूं
        निवाला पेट से आगे नहीं जा पाता कोई...



Friday, May 8, 2015

मदर्स डे पर एक कविता

अंतिम जन के फरवरी अंक में छपी मेरी कविता

Sunday, March 22, 2015

राजनीतिक खेल

तुम अनाज उगाओगे
तुम्हे रोटी नहीं मिलेगी,
तुम ईंट-पत्थर जोड़ोगे
तुम्हें सड़क पर सोना होगा,
तुम कपड़े बुनोगे
और तुम नंगे रहोगे,
क्योंकि अब लोकतंत्र
अपनी परिभाषा बदल चुका है
लोकतंत्र में अब लोक
एक कोरी अवधारणा मात्र है,
सत्ता तुम्हारे हाथ में नहीं
पूंजी के हाथ में है
और पूंजी
नीराओं, राजाओ, कलमाडियों,
अदाणियों, अंबानियों और टाटाओं के हाथ में है,
तुम्हारी जबान, तुम्हारी मेहनत
तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारा अधिकार
सिर्फ संवैधानिक कागजों में है
हकीकत में नहीं,
तभी तो,
तुम्हारी चंद रुपये की चोरी
तुम्हें जेल पहुंचा देती है
मगर,
उनकी अरबों की हेराफेरी
महज एक
राजनीतिक खेल बनकर रह जाती है...

Friday, March 20, 2015

जश्न-ए-रेख़्ता : 14-15 March, IIC, New Delhi

Inauguration of Jashn-e-Rekhta
उर्दू शायरी से मुहब्बत का जश्न

किसी मुल्क को अगर बहुत ही नज़दीक और गहराई से जानना हो, वहां की अवाम के दिलों में मचलते जज़्बात से राब्ता कायम करना हो, उसकी सियासत, अदबी नफासत, दीनी रवायत और इल्मी नज़ाकत से रूबरू होना हो, तो सबसे पहले उसकी ज़बान को जानिए, समझिए और हो सके तो उसके लहजे़ में पूरी तरह से उतर जाइए। इस बात से सिर्फ हमीं नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम दानिशवर भी बड़ी ही शिद्दत से इत्तेफाक रखते हैं। कुछ तो ऐसे भी हैं जो सिर्फ इत्तेफाक ही नहीं रखते, बल्कि उससे बेपनाह मुहब्बत भी करते हैं। उन्हीं चंद मुहब्बत करने वाले लोगों में एक नाम संजीव सराफ का भी आता है, जिन्होंने नोएडा में रेख़्ता फाउंडेशन की नींव रखी और उर्दू ज़बान को शिद्दत से महसूस करने वालों के लिए https://rekhta.org/ नाम की वेबसाइट की बुनियाद डाली। खुद संजीव सराफ की ज़ुबां में- ‘‘रेख़्ता, मेरी उर्दू से मुहब्बत का एक हसीन-ओ-तरीन नज़राना है।’’

Inaugural speech of Sanjeev Saraf in Jashn-e-Rekhta
            कभी उर्दू और फारसी के उस्ताद शायर ‘मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब’ ने मीर तकी मीर की एक ग़ज़ल को सुनकर कहा था ‘‘रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं ग़ालिब। कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।।’’ ज़ाहिर है तब ग़ालिब ने मीर और उनकी शायरी की तारीफ की थी और यह शे’र कहा था, लेकिन आज संजीव सराफ को उनकी उर्दू शायरी से बेपनाह मुहब्बत के लिए कहा जा सकता है कि आज वे सचमुच में ‘रेख़्ता’ के उस्ताद हैं। संजीव सराफ ने बिना किसी मुनाफे के रेख़्ता वेबसाइट के ज़रिये उर्दू शायरी को तीन ज़बानों (उर्दू, देवनागरी और रोमन लिपियों में) में पेश कर न सिर्फ दुनिया भर में उर्दू के दायरे को बढ़ाया है, बल्कि नुक्ता और इज़ाफत के सही-सही इस्तेमाल के साथ बेहतरीन उर्दू बोलने और समझने को लेकर एक उम्दा पहचान भी बनायी है। संजीव सराफ यहीं नहीं रुके, बल्कि इसे और आगे ले जाने के लिए ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ नाम से एक दोरोज़ा प्रोग्राम का ऐलान भी कर दिया, जो गुजिश्ता 14 और 15 मार्च को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आइआइसी) में बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में अपने कामयाब अंजाम को पहुंचा।

Javed Akhtar and Rakshanda Jaleel in Jashn-e-Rekhta
            एक ज़माने में दिल्ली के मशहूर शायर ‘दाग़ देहलवी’ कहते हैं- ‘‘उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग़। सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।।’’ अरसा पहले यह शे’र हिंदुस्तान और उसकी एक मक़बूल ज़बान उर्दू की तर्जुमानी करता था, लेकिन गुजिश्ता वक्त के कुछ वक्फे में उर्दू पढ़ने और लिखने में आयी कमी से ऐसा महसूस होने लगा था कि शायद हमारी आगे आने वाली पीढ़ियां उर्दू ज़बान से महरूम रह जायें। इस मायूसी के आलम में रेख़्ता की शुरुआत और फिर जश्न-ए-रेख़्ता का एहतमाम इस बात की तस्दीक करता है कि हमारी आने वाली पीढ़ियां उर्दू ज़बान से मुहब्बत करती रहेंगी।

              दो दिन तक चले जश्न-ए-रेख़्ता के खूबसूरत अदबी माहौल में हिंदुस्तान और दूसरे ममालिक पाकिस्तान, अमेरिका और कनाडा से आये तकरीबन 60 से ज्यादा शायरों, फनकारों, गुलोकारों, दानिशवरों और अदबी शख्सियतों ने अपनी शिरकत से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर को खुशरंग बना दिया था। प्रोग्राम के पहले दिन हिंदी फिल्मी दुनिया के मशहूर फिल्म लेखक, शायर और गीतकार जनाब जावेद अख़्तर से रख्शंदा जलील ने उर्दू शायरी के हवाले से खूब सारी गुफ्तगू की। उसके बाद ‘उर्दू और हिंदी: क़ुर्बतें और फासले’ मौजू पर हिंदी के अदीब अशोक बाजपेयी, सियासी दानिशवर पुरुषोत्तम अग्रवाल और उर्दू अदीब शमीम हनफी ने अपनी दिली बातों से वहां मौजूद लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर बेहतरीन दस्तक दी। शमीम हनफी ने कहा कि उर्दू हो या हिंदी इन दोनों ज़बानों को सियासत और मज़हब से बचाने की ज़रूरत है। हनफी ने बयान फरमाया कि मुल्क की आज़ादी के बाद से ही उर्दू ज़बान का वजूद ख़तरे में रहा है, क्योंकि कुछ लोगों ने इसे सिर्फ मुसलमानों की ज़बान मान ली है। ज़ाहिर है कि उर्दू हो या हिंदी, ज़बानें किसी मख्सूस कौम या मज़हब की नहीं होती हैं, बल्कि वे तो पूरे मुल्क की तर्जुमानी करती हैं।

Shaam-e-Ghazal in Jashn-e-Rekhta
              शाम चार बजे ‘‘मुशायरे का बदलता रंग-रूप’’ में लोगों से रूबरू हुए एनडीटीवी के एंकर रवीश कुमार ने हिंदी कवि डाक्टर कुमार विश्वास, एहसासात की दुनिया के मशहूर शायर मुनव्वर राना और अमेरिका से आये सत्यपाल आनंद से अपने सहाफी अंदाज़ में ख़ूब गुफ्तगू की और लोगों को यह एहसास नहीं होने दिया कि वे जश्न-ए-रेख़्ता की डाइस पर हैं या फिर टीवी के परदे पर। अगले प्रोग्राम ‘‘उर्दू शायरी और तहज़ीब: एक ज़ाती तजुर्बा’’ में पाकिस्तानी अखबार डान के दिल्ली ब्यूरो के सहाफी सईद नकवी और ओबैद सिद्दीकी ने अपने-अपने तजुर्बात से लोगों को रूबरू कराया और फिर शाम सात बजे फिल्म गरम हवा की स्क्रीनिंग के बाद शाम नौ बजे ‘‘मुशायरा: बज़्म-ए-सुख़न’’ शुरू हुआ, जिसमें तशरीफ फरमां शायर थे- अमजद इस्लाम अमजद, अनवर शउर, अश्फाक़ हुसैन, फरहत एहसास, जावेद अख़्तर, मोहम्मद अल्वी, निदा फाज़ली और वसीम बरेलवी। इन सभी शायरों ने अपने शे’र-ओ-सुखन से ऐसा शमा बांधा कि जश्न-ए-रेख़्ता का मेयार इतनी उंचाई पर पहुंच गया, जहां से यही आवाज़ सुनायी दे रही थी कि ‘‘सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है...’’
                ‘‘उर्दू अदब की तानीसी आवाज़’’, ‘‘उर्दू-इनसानी वहदत की ज़बान’’, ‘‘इंटरनेट की दुनिया में उर्दू’’, ‘‘उर्दू में जासूसी अदब’’, ‘‘अख़्तरी: ए ट्रिब्यूट टू बेग़म अख़्तर’’ जैसे कई और खूबसूरत प्राग्रामों का हिस्सा बनने के लिए लोग बेक़रार नजर आ रहे थे और शायद यही वजह रही कि इंडिया इंटरनेशनल के आडीटोरियम, कान्फरेंस रूम, फाउंटेन लान्स और मल्टपरपज हाल की सभी सीटें भर चुकी थीं।
Ravish kumar and Munawar Rana in Jashn-e-Rekhta
               जश्न-ए-रेख़्ता के दूसरे दिन की शुरुआत ‘‘टेटवाल का कुत्ता’’ नाटक से हुई। और फिर ‘‘ग़ज़ल: अहद बा अहद’’, ‘‘फिल्मों की ज़बान उर्दू’’, ‘‘तर्जुमा: हासिल और लाहासिल’’, ‘‘लाल क़िले का आखि़री मुशायरा’’, ‘‘दास्तानगोई’’, ‘‘क़व्वाली’’, से होते हुए और तकरीबन नौ बजे शाम-ए-ग़ज़ल ‘‘साज़-ओ-आवाज़’’ पर आकर जश्न-ए-रेख़्ता का दोरोज़ा सफर अपने अंजाम को पहुंचा। इस पूरे दो दिन के दौरान आइआइसी का गोशा-गोशा उर्दू ज़बान की मुहब्बत का गवाह बना। मेरी खुशक़िस्मती थी, कि दिल्ली में पिछले दस सालों से रहने के दौरान उर्दू ज़बान को लेकर किसी प्रोग्राम के हवाले से यह पहला ऐसा मौक़ा था, जिसका मैं गवाह बना। जश्न में शामिल और भी बहुत सी हस्तियां थीं, मसलन- मशहूर फिल्मकार मुज़फ्फर अली, गीतकार इरशाद कामिल, प्रोफेसर सीएम नईम, इंतिज़ार हुसैन, गोपीचंद नारंग, अभिनेत्री नंदिता दास, खालिद जावेद, कवि केदारनाथ सिंह, सलमा सिद्दीकी, ज़ियाउस्सलाम, बारान फारूक़ी, तरन्नुम रियाज़, शम्सुर्रहमान फारूक़ी, शम्सुल हक़ उस्मानी और अबुल करीम कासमी के अलावा और भी दिगर शख़्सियतें मौजूद थीं।
               
Prof Waseem Barelavi in Jashn-e-Rekhta
जश्न-ए-रेख़्ता के हवाले से यह कहने में कितना फख्र महसूस हो रहा है कि सिर्फ एक शख़्स को उर्दू से इस क़दर बेपनाह मुहब्बत हो गयी कि उसने उसे पूरी दुनिया में फैलाने का बीड़ा उठा लिया और वह इस काम में एक हद तक कामयाब भी हो गया। तो यहां सोचिए और गौर कीजिए कि अगर तमाम उर्दू पढ़ने, बोलने, समझने वाले लोग उर्दू से या हिंदी से या अपनी सभी ज़बानों से ऐसी ही बेपनाह मुहब्बत करें, तो मैं समझता हूं कि वह दिन दूर नहीं, जब लोगबाग़ यह कहना बंद कर देंगे कि अंग्रेज़ी सभी ज़बानों पर भारी पड़ रही है। उर्दू हिंदुस्तान में ही पैदा हुई है, इसलिए इसके साथ बेअदबी करना तो खुद के साथ बेअदबी करने जैसा है। उर्दू, हिंदी की छोटी बहन है और ये दोनों ज़बानों ने मिलकर हमें गंगा-जमुनी तहज़ीब दी है, जिसकी मिसाल पूरी दुनिया में बड़े ही ऐहतराम के साथ दी जाती है। हालांकि सियासत और मज़हब ने ज़बानों का बड़ा ही नुकसान किया है और शायद यही वजह भी है कि उर्दू को मुसलमानों की ज़बान और हिंदी को हिंदुओं की ज़बान मान ली गयी है। लेकिन हमें मशकूर होना चाहिए संजीव सराफ का जिन्होंने रेख़्ता की नींव रखते वक्त मज़हब और सियासत को आड़े नहीं आने दिया और आड़े आते भी कैसे उर्दू से उनकी बेपनाह मुहब्बत जो मौजूद थी। संजीव की उर्दू से मुहब्बत, शुरू हुई रेख़्ता की अदबी रवायत और गंगा-जमुनी तहज़ीब की विरासत के हवाले से यह कहना लाज़मी होगा कि- ‘‘उर्दू हमारे मुल्क की वाहिद ज़बान है। गंगा की जिसमें रूह तो जमुना की जान है।।’’

Friday, February 13, 2015

खतरनाक है धर्म और राजनीति का तामसिक संगम

हमारे देश में धर्म ने जिस तरीके का सर उठाना शुरू किया है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था व राजनीति पर हावी होने की कोशिश कर रहा है, वह एक खतरा है। मौजूदा भारत में धर्म की जो पुरजोर दखल राजनीति में बढ़ी है, अभी इसे फासीवादी करार देना जल्दबाजी होगी, लेकिन इस तरह की भावना उसी मनोवृत्ति की तरफ ले जाती दिख रही है, जिसे फासीवादी मनोवृत्ति कहते हैं। अभी यह कहना कि भारत में फासीवादी उभार हो गया है, तो यह बात अतिसरलीकृत हो जायेगी। क्योंकि बीते 67 सालों में जनतांत्रिक आंदोलन भी इस देश में बहुत मजबूत हुए और लोकतांत्रिक आस्थाएं भी बहुत गहरी हुई हैं। धर्म और राजनीति के इस गठजोड़ से उपजी समस्याओं और खतरों पर जब मैंने प्रख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार से बात की, तो उन्होंने बहुत ही विस्तार से समझाते हुए इन खतरों से जो आगही की, उसे आप भी यहां समझ सकते हैं...


Prof Anand Kumar

धर्म और राजनीति का गठजोड़ सदियों से चलता आ रहा है। मानव जीवन को ये किस तरह से प्रभावित करता है? 
         धर्म और राजनीति हर मानवीय समाज की दो बुनियादी जरूरतें रही हैं। आदिम काल से धर्म ने एक तरफ मनुष्य को अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन को समझने में मदद की है, तो वहीं दूसरी तरफ राजनीति ने सामाजिक सम्बंधों के उलझन भरे ताने-बाने की व्यवस्था की तलाश को हमेशा एक आधार दिया है। लेकिन धर्म और राजनीति मानवीय समाज के अन्य पहलुओं की तरह से आदिम काल से आज तक लगातार रूप बदलते रहे हैं। धर्म में सात्विकता, राजसिकता और तामसिकता तीनों का होना एक विडम्बना भरा सच है। धर्म ने मनुष्य को सद्मार्ग दिखाया है, लेकिन वहीं धर्म ने मनुष्य और मनुष्य के बीच ऊंची दीवारें भी खड़ी की है। कई दौर ऐसे भी आये हैं, जब धर्म ने मनुष्य को पूर्णता की पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया। इसलिए धर्म के बारे में हमेशा एक सद्दृष्टि की जरूरत रही है। इसके तीन पहलू हैं, पहला: आदर्श-दर्शन, दूसरा: सामाजिक व्यवस्था सम्बंधी नियमावली, और तीसरा: आम लोगों को धर्म की दैनिक समझ के लिए कुछ नीति-नियम, तीज-त्यौहार और प्रतीक। इन तीनों के बीच में हमेशा एक तनाव भरा सम्बंध रहा है। धर्म का दार्शनिक आधार सनातन महत्व का होता है। इसमें युग की जरूरतों के साथ बदलाव जरूर हुए हैं, लेकिन उन बदलावों ने युग-परिवर्तन भी पैदा किया है। धर्मों के बीच परस्पर सम्वाद और विवाद का भी सम्बंध होता है। इसलिए धर्मों का एक क्षेत्रीय स्वरूप है, जो ऐतिहासिकता से जुड़ा होता है। दूसरे, भूगोल की सीमाओं से आगे जाकर धर्म अपने दार्शनिक, सामाजिक और कर्मकांडीय आधारों पर मानव समूहों को प्रभावित करने की क्षमता और प्रवृत्ति भी रखता है।

धर्म और राजनीति के सम्बंधों के मद्देनजर धर्म और राजनीति का मूल स्वरूप क्या है?
          धर्मों का नदियों की तरह स्वभाव होता है, जो उस क्षेत्र से सीधा सम्वाद करते हैं। स्थानीय परम्पराएं और सार्वदेशिक परम्पराएं धर्म के दो चेहरे होते हैं। नदियों की ही तरह एक धर्म-धारा अन्य धर्म-धाराओं से प्रवाह प्राप्त करती है और दूसरी धर्म-धाराओं को अपने में समेटती है या स्वयं कई धाराओं में बंट जाया करती है। यह सब धर्म के दार्शनिक, ऐतिहासिक और सामाजिक आधारों से जुड़ा सच है, लेकिन धर्म के अनुयायी इतिहास निरपेक्ष दृष्टि के आदी पाये जाते हैं। देशकाल, पात्र की विविधता की उपेक्षा और अवहेलना भी करते हैं। यह धर्म को यथास्थितिवादी और संकीर्णतावादी ताकतों का औजार बनाने में मदद करता है। लेकिन इस दुनिया में कोई भी धर्म ऐसा नहीं है, जो अपने मूल स्वरूप का बदलाव कालांतर में रोक पाया हो। जिस धर्म में परिवर्तन की प्रवृत्ति नहीं रही है, वह धर्म काल-गति में पीछे छूट जाता है। इसलिए परम्परा और परिवर्तन किसी भी धर्म की दो मूल खूबियां होती हैं परिवर्तनशील धर्म में व्यापकता की क्षमता होती है। परिवर्तनहीन धर्म कर्मकांडों के दलदल में फंसकर गतिविहीन और आभाहीन हो जाते हैं।
         राजनीति की तुलना में धर्म ज्यादा गहराई तक प्रभाव पैदा करता है। राजनीति सदैव देशकाल-पात्र सापेक्ष रहती है, क्योंकि यह समाज के शक्ति-सम्बंधों के संस्कार का व्याकरण बनाती है और हमारे शक्ति-सम्बंध शक्तिवानों के तमाम प्रयासों के बावजूद नश्वर या सतत परिवर्तनशील होते हैं। इसमें आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और क्षेत्रीयता का बराबर दबाव रहता है। इसीलिए राजनीति के सूत्रधार हमेशा धर्म के वाहकों के साथ यथासम्भव सहअस्तित्व का सम्बंध रखते हैं, जिससे कम से कम धर्म के आधार पर राजनीति के दावों को स्वीकृति और बल मिल सके। राजनीतिज्ञों ने फ्रांसीसी क्रांति से उत्पन्न स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के आधुनिक आदर्शों को धर्म की शक्तियों के जरिये बांधने और साधने दोनों का प्रयास किया है। इस अर्थ में धर्म और राजनीति के रिश्ते में पिछली चार शताब्दियों में कुछ गुणात्मक अंतर पैदा हो चुका है। 

धर्म का राजनीतिकरण और राजनीति का धार्मिकरण हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किस प्रकार की जीवनशैली का द्योतक है?
        धर्म शुरू से विशिष्टजन और जनसाधारण की दो कोटियां बनाता आया है। जबकि जनतांत्रिक राजनीति में विशिष्टता के लिए एक नकारात्मकता का भाव है। यह राजनीतिक समता का दर्शन है और व्यक्तिमूलक जीवनशैली का समर्थक है। जहां धर्म में बिना पुरोहित के कोई सूत्रधार नहीं हो सकता, बिना आचार्यों के कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, बिना मठाधीशों के कोई प्रशिक्षण नहीं मिल सकता, बिना राजपुरुषों और लक्ष्मीपुत्रों के कोई प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता, वहीं जनतांत्रिक आदर्श को अपनाने के बाद से दुनिया के हर देश में राजनीतिक सत्ता का सूत्रधार बनने के लिए आम आदमी और आम औरत के मन में प्रबल आवेग घर कर चुका है। राजसत्ता के दैवीय सिद्धांत के खंडन और सामाजिक समझौता सिद्धांत के प्रवर्तन के बाद से धर्म और राजनीति के रिश्तों में आम आदमी की उपेक्षा असंभव हो चुकी है। इस प्रकार धर्म और राजनीति के बीच तनावपूर्ण सहअस्तित्व का एक नया युग पिछली चार शताब्दियों से विस्तृत हो रहा है। इसका एक समाधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से तलाशा गया है। राज्य का धर्मों के प्रति सरोकार तटस्थता पर रखने की चेष्टा हो रही है। परस्पर जुड़ती दुनिया के दौर में अब कोई भी देश एकधर्मी नहीं रह पायेगा। एक से ज्यादा धर्मों के अनुयायी एक ही राष्ट्र-राज्य के नागरिक होंगे तो राज्य का धर्मों के बीच तटस्थता भाव ही सामाजिक शांति और राज्यसत्ता की प्रभावशीलता के लिए श्रेयस्कर मार्ग है, लेकिन राजनीति इस सिद्धांत का आचरण में ईमानदारी से कार्यान्वयन कठिन बनाती है। जनतांत्रिक राजनीति में बहुमत की कीमत मानी जाती है। बहुमत की वासना पारम्परिक आधारों पर स्थापित संख्याबल को राजनीतिकरण के लिए उकसाती है। आदर्श राजनीति में नागरिकता ही प्रथम और अंतिम आधार मानी गयी है, लेकिन नागरिकों के बीच की सांस्कृतिक विविधता इस एकता को तोड़कर गैर-राजनीतिक आधारों पर बहुमत रचना का अस्वस्थ रास्ता अपनाने का लालच पैदा करते हैं। इसमें भाषा, धर्म, रंगभेद और जातिभेद के दुरुपयोग का अंतहीन सिलसिला चल निकला है। इसको रोकने के लिए नागरिकों के चेतना-स्तर का उठाया जाना स्थायी समाधान है। लेकिन, नागरिक का निर्माण अपने आप में विषमतामय समाज में एक आधी-अधूरी प्रक्रिया होती है। बिना शिक्षा, आजीविका और सामाजिक न्याय के हम सिर्फ राजनीतिक नागरिकता यानी वोट के अधिकार को टिकाउ बना पाये हैं। जब नागरिक के निर्माण की प्रक्रिया ही आधी-अधूरी है, तो नागरिकों के चेतना-निर्माण और उसमें मानवमात्र के प्रति बंधुत्व का भाव पैदा करना बहुत दूर के लक्ष्य हैं। इसीलिए सारी दुनिया में पुरानी राजनीतिक व्यवस्था के खंडहर हो जाने के बावजूद नागरिक-एकता और लोकशक्ति की बुनियाद पर नयी राजनीति की रचना का काम अत्यंत मंथर गति से चल रहा है।
        
धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर आपकी राय?
         धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल अर्थात् धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उपेक्षा, संदेह और घृणा के आधार पर समाज में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक विषमता पर से ध्यान हटाना एक असामाजिक रास्ता है। इसका चुनाव के जरिये समाधान नहीं हो पा रहा है। चुनाव ने तो सांप्रदायिकता ही नहीं, जातिवाद और क्षेत्रीयता की आग में भी घी का काम किया है और इन्हें नयी प्रासंगिकता दी है।
      
आज विज्ञान का युग है। फिर भी क्या वजह है कि लोग जितना ही आधुनिक होते जा रहे हैं, उतनी ही अंधभक्ति भी बढ़ रही है?
        धर्म के संदर्भ में विज्ञान और आधुनिकीकरण दो महत्वपूर्ण प्रतिरोधक तत्व हैं। इनसे धर्म के प्रवक्ताओं और प्रचारकों को लगातार असुविधाजनक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वैसे भी धर्म की सत्ता में हमेशा राजसत्ता के साथ अनुकूलता के दायरों की तलाश जारी रही है। प्रायः राजसत्ता धर्मसत्ता के लिए सहयोगी की भूमिका में रहती है। जनतांत्रिक क्रांतियों के बाद से धर्म के पारम्परिक आधारों में असुरक्षा का भाव जगा है, अधूरापन का भाव है। समाज के प्रति आशंकाएं हैं। वैज्ञानिकता और आधुनिकता में जीवन और मृत्यु के प्रति मानव समाज की दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन शुरू किये हैं। असुरक्षा भाव के समाधान के लिए धार्मिक कर्मकांडों की तुलना में वैज्ञानिक निदानों का महत्व बढ़ा है। अब जीवन में सफलता के लिए लोग धर्माचार्यों के पांव पूजने के बजाय, दुनिया भर में बढ़ रहे विद्या केंद्रों में ज्ञान-साधना के लिए जाने लगे हैं। अस्वस्थता के समाधान के लिए धर्मालयों की जगह चिकित्सालयों में भीड़ दिखती है। निजि जीवन और सामुदायिक जीवन के विवादों में भी लोग मठ, मस्जिद और गिरिजाघर की बजाय न्यायालयों में समाधान तलाश रहे हैं। इस गिरावट की दशा में कई धर्माचार्य स्वयं धर्म की आड़ में चल रहे मिथ्याचार को अस्वीकार रहे हैं। उदाहरण के लिए दलाई लामा अपने अनुयायियोें से नये मठों की बजाय विद्यालय और चिकित्सालय बनाने की सलाह देते हैं। इसी प्रकार विश्व भर में हर धर्म के प्रवक्ताओं पर नर-नारी समता के आधार पर नयी सामाजिकता की जरूरत पर बल देने का दबाव साफ दिखता है। गरीबी को भी ईश्वर की निकटता का आधार बताने वालों की तुलना में गरीबी से मुक्ति के लिए जींस परिवर्तन से लेकर धर्म परिवर्तन तक का रास्ता दिखाने वालों के प्रति ज्यादा आकर्षण दिखता है। कुल मिलाकर, धर्म की दुनिया में फैल रहा असुरक्षा भाव नये आधारभूमि की तलाश का उकसावा है। इस क्रम में राजनीति के इस्तेमाल की राह भी एक उपाय दिखता है। इसलिए यूरोप से शुरू सांप्रदायिकता की राजनीति स्वतंत्रता और जनतंत्र के नये प्रभावक्षेत्र अर्थात् एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के नवस्वाधीन देश और समाज में नये आवेग के साथ सक्रिय हैं। धर्म और राजनीति दोनों में अपने प्रभावक्षेत्र में सद्गुण और दुर्गुण दोनों को बढ़ावा देने की अद्भुत क्षमता है। अगर साम्राज्यवाद की पीड़ा से मुक्ति के लिए चले जनांदोलनों का इतिहास देखा जाये, तो धर्म में निहित सात्विकता और राजनीति में निहित सामुहिकता का योगदान बुनियादी महत्व का महा पाया जायेगा। लेकिन स्वाधीनोत्तर समाज में विकसित हुई राजनीति की पड़ताल करने पर सात्विकता की जगह स्वार्थ और संकीर्णता का विस्तार दिखता है। इससे बंटवारे, गृहयुद्ध और नये तरह के अन्यायों एवं असमानताओं का विभत्स सच सामने आता है। दुर्भाग्य से इस अंधेरे दौर की रचना में राजनीतिज्ञों द्वारा धर्म के दुष्टतापूर्ण इस्तेमाल का सच छिपाये नहीं छिपता।
       
ऐसी स्थिति में आपकी नजर में क्या उपाय बचता है?
        इससे परेशान समाज में कई तरह के प्रयास समाधान के लिए उभर चुके हैं। पहला रास्ता अस्वीकार का है। धर्म और राजनीति के तामसिक गठजोड़ से घबराये लोगों में धर्म की स्वयंसिद्ध सामाजिकता और राजनीति की सर्वव्यापी प्रासंगिकता दोनों को इनकारने का भाव पैदा हुआ है। प्रायः पढे़-लिखे मध्यम वर्गीय लोग अपने अराजनीतिक होने की दावे को बड़े गर्व से पेश करते हैं, जबकि अराजनीतिक होना अंततः राजनीतिक यथास्थिति का समर्थन करता है, परिवर्तन को रोकता है। अन्याय के प्रति मौन और तटस्थ बनाता है। ऐसे पढे़-लिखे लोगों का समझदार होने का दावा दुखों से जूझ रहे करोड़ों लोगों को अस्वीकार है। दूसरी तरफ, जन्म से लेकर मृत्यु तक हर मोड़ पर धर्म के द्वारा बनी परम्पराओं, संस्कारों और कर्मकांड के बीच जीने के सच के बावजूद आधुनिकता की दुनिया में जीने वाले लोग बड़ी मासूमियत से यह यकीन करते पाये जाते हैं कि उनका धर्म से कोई वास्ता नहीं रह गया है, क्योंकि वह नवरात्र का व्रत या रमजान के रोजे नहीं रखते हैं। निश्चित तिथियों से जुड़ी तीज-त्योहारों को वे नहीं मानते। तीर्थ यात्राओं के बजाय आनंद, विलास विहार के केंद्रों जैसे हांगकांग, सिंगापुर, हाॅलीवुड आदि में ज्यादा रुचि रखते हैं।

क्या धर्म और राजनीति का तामसिक संगम सिर्फ सत्ता के पायों को ही मजबूत करता है या यह लोक के लिए भी कोई जगह मुहैया कराता है, जिससे कि राष्ट्र निर्माण को मजबूती मिल सके?     
           हम इसे गांधी के धार्मिक विश्वास से समझते हैं। गांधी का रास्ता आधुनिक दौर की विडम्बनाओं से जूझते हुए बना है। इसमें सव-धर्म उदासीनता की बजाय सर्वधर्म-समभाव का आग्रह है। एकल सत्ता के बजाय लोकशक्ति और लोकसंघ में योगदान की प्रतिबद्धता है। स्वधर्म की प्रतिष्ठा की आड़ में अन्य मतावलम्बियों के साथ भेदभाव और दुव्र्यवहार का निषेध है। देशकाल और पात्र से उपर उठकर सभी धर्मों के श्रेष्ठ तत्वों के निरंतर स्मरण और सचेत अनुकरण की जीवनशैली है। इसमें पूरे दुनिया के मुक्तिकामियों ने अनुकरणीय समाधान माना है। अमेरिका के ईसाई धर्मगुरु मार्टिन लूथर किंग से लेकर तिब्बत के बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा तक ने इसे अपनाया है। इसी तरह से दक्षिण अफ्रीका के मार्कसवादी क्रांतिकारी नेलसन मंडेला से लेकर म्यांमार की लोकतांत्रिक क्रांति की नायिका आंग सान सू ची तक इसमें प्रकाश पा चुके हैं। लेकिन, यह आधुनिक जीवन की दो मूल प्रवृत्तियों के निषेध के कारण फिलहाल भारत के राजनेताओं और धर्मगुरुओं दोनों के लिए अस्वीकार्य है। गांधी का धर्म और राजनीति सम्बंधी मानव केंद्रित सात्विकता का रास्ता धर्मगुरुओं के रीति-रिवाजों का निषेध करता है। गांधी का राम मंदिरों में अपार सम्पत्ति संचित कर रहे पंडे-पुजारियों का राम नहीं है। इसमें धर्म परिवर्तन के लिए कोई आग्रह नहीं है। इसमें दरिद्र नारायण ही दुनिया का सबसे बड़ा देवता है। फिर गांधी के मार्ग में भोगवाद का पूर्ण निषेध है। अब अगर भोगवाद की अनुमति नहीं है, तो राजनीति में कौन कूदना चाहेगा। अगर राजनीति रचना और संघर्ष के दो पहियों पर चलने वाला महायान है, तब सत्ता के लिए राजनीति का चोला पहनने वालों को इसमें कहां से आनंद मिलेगा। लेकिन, आज इस दुनिया में वसुधैव कुटुम्बकम का भाव ही एक मात्र निदान है। देश के सुदूर कोनों में घटने वाली शर्मनाक घटनाएं सबका सरोकार बन चुकी हैं। इसमें धर्म और राजनीति का तामसिक संगम सबसे खतरनाक माना जा रहा है। इससे तात्कालिक सफलता मिलने की गारंटी है, तो दीर्घकालीन अमिट कलंक का भी सच जुड़ा हुआ है। आज धर्म और राजनीति का गलत संयोग करके सत्ता पाना अधर्म और असामाजिकता का सबसे निंदनीय उदाहरणा बन चुका है। इसलिए तात्कालिकता के आवेग के बावजूद हमें कालचक्र के महासत्य का ध्यान रखना होगा। सांप्रदायिकता की राजनीति से सीटें जीती जसकती हैं, सरकार भी बनायी जा सकती है, लेकिन राष्ट्र-निर्माण असम्भव है, सभ्यता का विकास तो हो ही नहीं सकता।