हमारे देश में धर्म ने जिस तरीके का सर उठाना शुरू किया है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था व राजनीति पर हावी होने की कोशिश कर रहा है, वह एक खतरा है। मौजूदा भारत में धर्म की जो पुरजोर दखल राजनीति में बढ़ी है, अभी इसे फासीवादी करार देना जल्दबाजी होगी, लेकिन इस तरह की भावना उसी मनोवृत्ति की तरफ ले जाती दिख रही है, जिसे फासीवादी मनोवृत्ति कहते हैं। अभी यह कहना कि भारत में फासीवादी उभार हो गया है, तो यह बात अतिसरलीकृत हो जायेगी। क्योंकि बीते 67 सालों में जनतांत्रिक आंदोलन भी इस देश में बहुत मजबूत हुए और लोकतांत्रिक आस्थाएं भी बहुत गहरी हुई हैं। धर्म और राजनीति के इस गठजोड़ से उपजी समस्याओं और खतरों पर जब मैंने प्रख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार से बात की, तो उन्होंने बहुत ही विस्तार से समझाते हुए इन खतरों से जो आगही की, उसे आप भी यहां समझ सकते हैं...
Prof Anand Kumar |
धर्म और राजनीति का गठजोड़ सदियों से चलता आ रहा है। मानव जीवन को ये किस तरह से प्रभावित करता है?
धर्म और राजनीति हर मानवीय समाज की दो बुनियादी जरूरतें रही हैं। आदिम काल से धर्म ने एक तरफ मनुष्य को अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन को समझने में मदद की है, तो वहीं दूसरी तरफ राजनीति ने सामाजिक सम्बंधों के उलझन भरे ताने-बाने की व्यवस्था की तलाश को हमेशा एक आधार दिया है। लेकिन धर्म और राजनीति मानवीय समाज के अन्य पहलुओं की तरह से आदिम काल से आज तक लगातार रूप बदलते रहे हैं। धर्म में सात्विकता, राजसिकता और तामसिकता तीनों का होना एक विडम्बना भरा सच है। धर्म ने मनुष्य को सद्मार्ग दिखाया है, लेकिन वहीं धर्म ने मनुष्य और मनुष्य के बीच ऊंची दीवारें भी खड़ी की है। कई दौर ऐसे भी आये हैं, जब धर्म ने मनुष्य को पूर्णता की पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया। इसलिए धर्म के बारे में हमेशा एक सद्दृष्टि की जरूरत रही है। इसके तीन पहलू हैं, पहला: आदर्श-दर्शन, दूसरा: सामाजिक व्यवस्था सम्बंधी नियमावली, और तीसरा: आम लोगों को धर्म की दैनिक समझ के लिए कुछ नीति-नियम, तीज-त्यौहार और प्रतीक। इन तीनों के बीच में हमेशा एक तनाव भरा सम्बंध रहा है। धर्म का दार्शनिक आधार सनातन महत्व का होता है। इसमें युग की जरूरतों के साथ बदलाव जरूर हुए हैं, लेकिन उन बदलावों ने युग-परिवर्तन भी पैदा किया है। धर्मों के बीच परस्पर सम्वाद और विवाद का भी सम्बंध होता है। इसलिए धर्मों का एक क्षेत्रीय स्वरूप है, जो ऐतिहासिकता से जुड़ा होता है। दूसरे, भूगोल की सीमाओं से आगे जाकर धर्म अपने दार्शनिक, सामाजिक और कर्मकांडीय आधारों पर मानव समूहों को प्रभावित करने की क्षमता और प्रवृत्ति भी रखता है।
धर्म और राजनीति के सम्बंधों के मद्देनजर धर्म और राजनीति का मूल स्वरूप क्या है?
धर्म और राजनीति हर मानवीय समाज की दो बुनियादी जरूरतें रही हैं। आदिम काल से धर्म ने एक तरफ मनुष्य को अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन को समझने में मदद की है, तो वहीं दूसरी तरफ राजनीति ने सामाजिक सम्बंधों के उलझन भरे ताने-बाने की व्यवस्था की तलाश को हमेशा एक आधार दिया है। लेकिन धर्म और राजनीति मानवीय समाज के अन्य पहलुओं की तरह से आदिम काल से आज तक लगातार रूप बदलते रहे हैं। धर्म में सात्विकता, राजसिकता और तामसिकता तीनों का होना एक विडम्बना भरा सच है। धर्म ने मनुष्य को सद्मार्ग दिखाया है, लेकिन वहीं धर्म ने मनुष्य और मनुष्य के बीच ऊंची दीवारें भी खड़ी की है। कई दौर ऐसे भी आये हैं, जब धर्म ने मनुष्य को पूर्णता की पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया। इसलिए धर्म के बारे में हमेशा एक सद्दृष्टि की जरूरत रही है। इसके तीन पहलू हैं, पहला: आदर्श-दर्शन, दूसरा: सामाजिक व्यवस्था सम्बंधी नियमावली, और तीसरा: आम लोगों को धर्म की दैनिक समझ के लिए कुछ नीति-नियम, तीज-त्यौहार और प्रतीक। इन तीनों के बीच में हमेशा एक तनाव भरा सम्बंध रहा है। धर्म का दार्शनिक आधार सनातन महत्व का होता है। इसमें युग की जरूरतों के साथ बदलाव जरूर हुए हैं, लेकिन उन बदलावों ने युग-परिवर्तन भी पैदा किया है। धर्मों के बीच परस्पर सम्वाद और विवाद का भी सम्बंध होता है। इसलिए धर्मों का एक क्षेत्रीय स्वरूप है, जो ऐतिहासिकता से जुड़ा होता है। दूसरे, भूगोल की सीमाओं से आगे जाकर धर्म अपने दार्शनिक, सामाजिक और कर्मकांडीय आधारों पर मानव समूहों को प्रभावित करने की क्षमता और प्रवृत्ति भी रखता है।
धर्म और राजनीति के सम्बंधों के मद्देनजर धर्म और राजनीति का मूल स्वरूप क्या है?
धर्मों
का नदियों की तरह स्वभाव होता
है,
जो
उस क्षेत्र से सीधा सम्वाद
करते हैं। स्थानीय परम्पराएं
और सार्वदेशिक परम्पराएं
धर्म के दो चेहरे होते हैं।
नदियों की ही तरह एक धर्म-धारा
अन्य धर्म-धाराओं
से प्रवाह प्राप्त करती है
और दूसरी धर्म-धाराओं
को अपने में समेटती है या स्वयं
कई धाराओं में बंट जाया करती
है। यह सब धर्म के दार्शनिक,
ऐतिहासिक
और सामाजिक आधारों से जुड़ा
सच है,
लेकिन
धर्म के अनुयायी इतिहास निरपेक्ष
दृष्टि के आदी पाये जाते हैं।
देशकाल,
पात्र
की विविधता की उपेक्षा और
अवहेलना भी करते हैं। यह धर्म
को यथास्थितिवादी और संकीर्णतावादी
ताकतों का औजार बनाने में मदद
करता है। लेकिन इस दुनिया में
कोई भी धर्म ऐसा नहीं है,
जो
अपने मूल स्वरूप का बदलाव
कालांतर में रोक पाया हो। जिस
धर्म में परिवर्तन की प्रवृत्ति
नहीं रही है,
वह
धर्म काल-गति
में पीछे छूट जाता है। इसलिए
परम्परा और परिवर्तन किसी भी
धर्म की दो मूल खूबियां होती
हैं परिवर्तनशील धर्म में
व्यापकता की क्षमता होती है।
परिवर्तनहीन धर्म कर्मकांडों
के दलदल में फंसकर गतिविहीन
और आभाहीन हो जाते हैं।
राजनीति
की तुलना में धर्म ज्यादा
गहराई तक प्रभाव पैदा करता
है। राजनीति सदैव देशकाल-पात्र
सापेक्ष रहती है,
क्योंकि
यह समाज के शक्ति-सम्बंधों
के संस्कार का व्याकरण बनाती
है और हमारे शक्ति-सम्बंध
शक्तिवानों के तमाम प्रयासों
के बावजूद नश्वर या सतत
परिवर्तनशील होते हैं। इसमें
आर्थिक,
सामाजिक,
तकनीकी
और क्षेत्रीयता का बराबर दबाव
रहता है। इसीलिए राजनीति के
सूत्रधार हमेशा धर्म के वाहकों
के साथ यथासम्भव सहअस्तित्व
का सम्बंध रखते हैं,
जिससे
कम से कम धर्म के आधार पर राजनीति
के दावों को स्वीकृति और बल
मिल सके। राजनीतिज्ञों ने
फ्रांसीसी क्रांति से उत्पन्न
स्वतंत्रता,
समता
और बंधुत्व के आधुनिक आदर्शों
को धर्म की शक्तियों के जरिये
बांधने और साधने दोनों का
प्रयास किया है। इस अर्थ में
धर्म और राजनीति के रिश्ते
में पिछली चार शताब्दियों
में कुछ गुणात्मक अंतर पैदा
हो चुका है।
धर्म का राजनीतिकरण और राजनीति का धार्मिकरण हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किस प्रकार की जीवनशैली का द्योतक है?
धर्म शुरू से विशिष्टजन और जनसाधारण की दो कोटियां बनाता आया है। जबकि जनतांत्रिक राजनीति में विशिष्टता के लिए एक नकारात्मकता का भाव है। यह राजनीतिक समता का दर्शन है और व्यक्तिमूलक जीवनशैली का समर्थक है। जहां धर्म में बिना पुरोहित के कोई सूत्रधार नहीं हो सकता, बिना आचार्यों के कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, बिना मठाधीशों के कोई प्रशिक्षण नहीं मिल सकता, बिना राजपुरुषों और लक्ष्मीपुत्रों के कोई प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता, वहीं जनतांत्रिक आदर्श को अपनाने के बाद से दुनिया के हर देश में राजनीतिक सत्ता का सूत्रधार बनने के लिए आम आदमी और आम औरत के मन में प्रबल आवेग घर कर चुका है। राजसत्ता के दैवीय सिद्धांत के खंडन और सामाजिक समझौता सिद्धांत के प्रवर्तन के बाद से धर्म और राजनीति के रिश्तों में आम आदमी की उपेक्षा असंभव हो चुकी है। इस प्रकार धर्म और राजनीति के बीच तनावपूर्ण सहअस्तित्व का एक नया युग पिछली चार शताब्दियों से विस्तृत हो रहा है। इसका एक समाधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से तलाशा गया है। राज्य का धर्मों के प्रति सरोकार तटस्थता पर रखने की चेष्टा हो रही है। परस्पर जुड़ती दुनिया के दौर में अब कोई भी देश एकधर्मी नहीं रह पायेगा। एक से ज्यादा धर्मों के अनुयायी एक ही राष्ट्र-राज्य के नागरिक होंगे तो राज्य का धर्मों के बीच तटस्थता भाव ही सामाजिक शांति और राज्यसत्ता की प्रभावशीलता के लिए श्रेयस्कर मार्ग है, लेकिन राजनीति इस सिद्धांत का आचरण में ईमानदारी से कार्यान्वयन कठिन बनाती है। जनतांत्रिक राजनीति में बहुमत की कीमत मानी जाती है। बहुमत की वासना पारम्परिक आधारों पर स्थापित संख्याबल को राजनीतिकरण के लिए उकसाती है। आदर्श राजनीति में नागरिकता ही प्रथम और अंतिम आधार मानी गयी है, लेकिन नागरिकों के बीच की सांस्कृतिक विविधता इस एकता को तोड़कर गैर-राजनीतिक आधारों पर बहुमत रचना का अस्वस्थ रास्ता अपनाने का लालच पैदा करते हैं। इसमें भाषा, धर्म, रंगभेद और जातिभेद के दुरुपयोग का अंतहीन सिलसिला चल निकला है। इसको रोकने के लिए नागरिकों के चेतना-स्तर का उठाया जाना स्थायी समाधान है। लेकिन, नागरिक का निर्माण अपने आप में विषमतामय समाज में एक आधी-अधूरी प्रक्रिया होती है। बिना शिक्षा, आजीविका और सामाजिक न्याय के हम सिर्फ राजनीतिक नागरिकता यानी वोट के अधिकार को टिकाउ बना पाये हैं। जब नागरिक के निर्माण की प्रक्रिया ही आधी-अधूरी है, तो नागरिकों के चेतना-निर्माण और उसमें मानवमात्र के प्रति बंधुत्व का भाव पैदा करना बहुत दूर के लक्ष्य हैं। इसीलिए सारी दुनिया में पुरानी राजनीतिक व्यवस्था के खंडहर हो जाने के बावजूद नागरिक-एकता और लोकशक्ति की बुनियाद पर नयी राजनीति की रचना का काम अत्यंत मंथर गति से चल रहा है।
धर्म का राजनीतिकरण और राजनीति का धार्मिकरण हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में किस प्रकार की जीवनशैली का द्योतक है?
धर्म शुरू से विशिष्टजन और जनसाधारण की दो कोटियां बनाता आया है। जबकि जनतांत्रिक राजनीति में विशिष्टता के लिए एक नकारात्मकता का भाव है। यह राजनीतिक समता का दर्शन है और व्यक्तिमूलक जीवनशैली का समर्थक है। जहां धर्म में बिना पुरोहित के कोई सूत्रधार नहीं हो सकता, बिना आचार्यों के कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, बिना मठाधीशों के कोई प्रशिक्षण नहीं मिल सकता, बिना राजपुरुषों और लक्ष्मीपुत्रों के कोई प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता, वहीं जनतांत्रिक आदर्श को अपनाने के बाद से दुनिया के हर देश में राजनीतिक सत्ता का सूत्रधार बनने के लिए आम आदमी और आम औरत के मन में प्रबल आवेग घर कर चुका है। राजसत्ता के दैवीय सिद्धांत के खंडन और सामाजिक समझौता सिद्धांत के प्रवर्तन के बाद से धर्म और राजनीति के रिश्तों में आम आदमी की उपेक्षा असंभव हो चुकी है। इस प्रकार धर्म और राजनीति के बीच तनावपूर्ण सहअस्तित्व का एक नया युग पिछली चार शताब्दियों से विस्तृत हो रहा है। इसका एक समाधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से तलाशा गया है। राज्य का धर्मों के प्रति सरोकार तटस्थता पर रखने की चेष्टा हो रही है। परस्पर जुड़ती दुनिया के दौर में अब कोई भी देश एकधर्मी नहीं रह पायेगा। एक से ज्यादा धर्मों के अनुयायी एक ही राष्ट्र-राज्य के नागरिक होंगे तो राज्य का धर्मों के बीच तटस्थता भाव ही सामाजिक शांति और राज्यसत्ता की प्रभावशीलता के लिए श्रेयस्कर मार्ग है, लेकिन राजनीति इस सिद्धांत का आचरण में ईमानदारी से कार्यान्वयन कठिन बनाती है। जनतांत्रिक राजनीति में बहुमत की कीमत मानी जाती है। बहुमत की वासना पारम्परिक आधारों पर स्थापित संख्याबल को राजनीतिकरण के लिए उकसाती है। आदर्श राजनीति में नागरिकता ही प्रथम और अंतिम आधार मानी गयी है, लेकिन नागरिकों के बीच की सांस्कृतिक विविधता इस एकता को तोड़कर गैर-राजनीतिक आधारों पर बहुमत रचना का अस्वस्थ रास्ता अपनाने का लालच पैदा करते हैं। इसमें भाषा, धर्म, रंगभेद और जातिभेद के दुरुपयोग का अंतहीन सिलसिला चल निकला है। इसको रोकने के लिए नागरिकों के चेतना-स्तर का उठाया जाना स्थायी समाधान है। लेकिन, नागरिक का निर्माण अपने आप में विषमतामय समाज में एक आधी-अधूरी प्रक्रिया होती है। बिना शिक्षा, आजीविका और सामाजिक न्याय के हम सिर्फ राजनीतिक नागरिकता यानी वोट के अधिकार को टिकाउ बना पाये हैं। जब नागरिक के निर्माण की प्रक्रिया ही आधी-अधूरी है, तो नागरिकों के चेतना-निर्माण और उसमें मानवमात्र के प्रति बंधुत्व का भाव पैदा करना बहुत दूर के लक्ष्य हैं। इसीलिए सारी दुनिया में पुरानी राजनीतिक व्यवस्था के खंडहर हो जाने के बावजूद नागरिक-एकता और लोकशक्ति की बुनियाद पर नयी राजनीति की रचना का काम अत्यंत मंथर गति से चल रहा है।
धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर आपकी राय?
धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल अर्थात् धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उपेक्षा, संदेह और घृणा के आधार पर समाज में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक विषमता पर से ध्यान हटाना एक असामाजिक रास्ता है। इसका चुनाव के जरिये समाधान नहीं हो पा रहा है। चुनाव ने तो सांप्रदायिकता ही नहीं, जातिवाद और क्षेत्रीयता की आग में भी घी का काम किया है और इन्हें नयी प्रासंगिकता दी है।
आज विज्ञान का युग है। फिर भी क्या वजह है कि लोग जितना ही आधुनिक होते जा रहे हैं, उतनी ही अंधभक्ति भी बढ़ रही है?
धर्म के संदर्भ में विज्ञान और आधुनिकीकरण दो महत्वपूर्ण प्रतिरोधक तत्व हैं। इनसे धर्म के प्रवक्ताओं और प्रचारकों को लगातार असुविधाजनक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वैसे भी धर्म की सत्ता में हमेशा राजसत्ता के साथ अनुकूलता के दायरों की तलाश जारी रही है। प्रायः राजसत्ता धर्मसत्ता के लिए सहयोगी की भूमिका में रहती है। जनतांत्रिक क्रांतियों के बाद से धर्म के पारम्परिक आधारों में असुरक्षा का भाव जगा है, अधूरापन का भाव है। समाज के प्रति आशंकाएं हैं। वैज्ञानिकता और आधुनिकता में जीवन और मृत्यु के प्रति मानव समाज की दृष्टि में बुनियादी परिवर्तन शुरू किये हैं। असुरक्षा भाव के समाधान के लिए धार्मिक कर्मकांडों की तुलना में वैज्ञानिक निदानों का महत्व बढ़ा है। अब जीवन में सफलता के लिए लोग धर्माचार्यों के पांव पूजने के बजाय, दुनिया भर में बढ़ रहे विद्या केंद्रों में ज्ञान-साधना के लिए जाने लगे हैं। अस्वस्थता के समाधान के लिए धर्मालयों की जगह चिकित्सालयों में भीड़ दिखती है। निजि जीवन और सामुदायिक जीवन के विवादों में भी लोग मठ, मस्जिद और गिरिजाघर की बजाय न्यायालयों में समाधान तलाश रहे हैं। इस गिरावट की दशा में कई धर्माचार्य स्वयं धर्म की आड़ में चल रहे मिथ्याचार को अस्वीकार रहे हैं। उदाहरण के लिए दलाई लामा अपने अनुयायियोें से नये मठों की बजाय विद्यालय और चिकित्सालय बनाने की सलाह देते हैं। इसी प्रकार विश्व भर में हर धर्म के प्रवक्ताओं पर नर-नारी समता के आधार पर नयी सामाजिकता की जरूरत पर बल देने का दबाव साफ दिखता है। गरीबी को भी ईश्वर की निकटता का आधार बताने वालों की तुलना में गरीबी से मुक्ति के लिए जींस परिवर्तन से लेकर धर्म परिवर्तन तक का रास्ता दिखाने वालों के प्रति ज्यादा आकर्षण दिखता है। कुल मिलाकर, धर्म की दुनिया में फैल रहा असुरक्षा भाव नये आधारभूमि की तलाश का उकसावा है। इस क्रम में राजनीति के इस्तेमाल की राह भी एक उपाय दिखता है। इसलिए यूरोप से शुरू सांप्रदायिकता की राजनीति स्वतंत्रता और जनतंत्र के नये प्रभावक्षेत्र अर्थात् एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के नवस्वाधीन देश और समाज में नये आवेग के साथ सक्रिय हैं। धर्म और राजनीति दोनों में अपने प्रभावक्षेत्र में सद्गुण और दुर्गुण दोनों को बढ़ावा देने की अद्भुत क्षमता है। अगर साम्राज्यवाद की पीड़ा से मुक्ति के लिए चले जनांदोलनों का इतिहास देखा जाये, तो धर्म में निहित सात्विकता और राजनीति में निहित सामुहिकता का योगदान बुनियादी महत्व का महा पाया जायेगा। लेकिन स्वाधीनोत्तर समाज में विकसित हुई राजनीति की पड़ताल करने पर सात्विकता की जगह स्वार्थ और संकीर्णता का विस्तार दिखता है। इससे बंटवारे, गृहयुद्ध और नये तरह के अन्यायों एवं असमानताओं का विभत्स सच सामने आता है। दुर्भाग्य से इस अंधेरे दौर की रचना में राजनीतिज्ञों द्वारा धर्म के दुष्टतापूर्ण इस्तेमाल का सच छिपाये नहीं छिपता।
ऐसी स्थिति में आपकी नजर में क्या उपाय बचता है?
इससे परेशान समाज में कई तरह के प्रयास समाधान के लिए उभर चुके हैं। पहला रास्ता अस्वीकार का है। धर्म और राजनीति के तामसिक गठजोड़ से घबराये लोगों में धर्म की स्वयंसिद्ध सामाजिकता और राजनीति की सर्वव्यापी प्रासंगिकता दोनों को इनकारने का भाव पैदा हुआ है। प्रायः पढे़-लिखे मध्यम वर्गीय लोग अपने अराजनीतिक होने की दावे को बड़े गर्व से पेश करते हैं, जबकि अराजनीतिक होना अंततः राजनीतिक यथास्थिति का समर्थन करता है, परिवर्तन को रोकता है। अन्याय के प्रति मौन और तटस्थ बनाता है। ऐसे पढे़-लिखे लोगों का समझदार होने का दावा दुखों से जूझ रहे करोड़ों लोगों को अस्वीकार है। दूसरी तरफ, जन्म से लेकर मृत्यु तक हर मोड़ पर धर्म के द्वारा बनी परम्पराओं, संस्कारों और कर्मकांड के बीच जीने के सच के बावजूद आधुनिकता की दुनिया में जीने वाले लोग बड़ी मासूमियत से यह यकीन करते पाये जाते हैं कि उनका धर्म से कोई वास्ता नहीं रह गया है, क्योंकि वह नवरात्र का व्रत या रमजान के रोजे नहीं रखते हैं। निश्चित तिथियों से जुड़ी तीज-त्योहारों को वे नहीं मानते। तीर्थ यात्राओं के बजाय आनंद, विलास विहार के केंद्रों जैसे हांगकांग, सिंगापुर, हाॅलीवुड आदि में ज्यादा रुचि रखते हैं।
क्या धर्म और राजनीति का तामसिक संगम सिर्फ सत्ता के पायों को ही मजबूत करता है या यह लोक के लिए भी कोई जगह मुहैया कराता है, जिससे कि राष्ट्र निर्माण को मजबूती मिल सके?
हम इसे गांधी के धार्मिक विश्वास से समझते हैं। गांधी
का रास्ता आधुनिक दौर की
विडम्बनाओं से जूझते हुए बना
है। इसमें सव-धर्म
उदासीनता की बजाय सर्वधर्म-समभाव
का आग्रह है। एकल सत्ता के
बजाय लोकशक्ति और लोकसंघ में
योगदान की प्रतिबद्धता है।
स्वधर्म की प्रतिष्ठा की आड़
में अन्य मतावलम्बियों के
साथ भेदभाव और दुव्र्यवहार
का निषेध है। देशकाल और पात्र
से उपर उठकर सभी धर्मों के
श्रेष्ठ तत्वों के निरंतर
स्मरण और सचेत अनुकरण की
जीवनशैली है। इसमें पूरे
दुनिया के मुक्तिकामियों ने
अनुकरणीय समाधान माना है।
अमेरिका के ईसाई धर्मगुरु
मार्टिन लूथर किंग से लेकर
तिब्बत के बौद्ध धर्मगुरु
दलाई लामा तक ने इसे अपनाया
है। इसी तरह से दक्षिण अफ्रीका
के मार्कसवादी क्रांतिकारी
नेलसन मंडेला से लेकर म्यांमार की लोकतांत्रिक क्रांति की
नायिका आंग सान सू ची तक इसमें
प्रकाश पा चुके हैं। लेकिन,
यह
आधुनिक जीवन की दो मूल प्रवृत्तियों
के निषेध के कारण फिलहाल भारत
के राजनेताओं और धर्मगुरुओं
दोनों के लिए अस्वीकार्य है।
गांधी का धर्म और राजनीति
सम्बंधी मानव केंद्रित सात्विकता
का रास्ता धर्मगुरुओं के
रीति-रिवाजों
का निषेध करता है। गांधी का
राम मंदिरों में अपार सम्पत्ति
संचित कर रहे पंडे-पुजारियों
का राम नहीं है। इसमें धर्म
परिवर्तन के लिए कोई आग्रह
नहीं है। इसमें दरिद्र नारायण
ही दुनिया का सबसे बड़ा देवता
है। फिर गांधी के मार्ग में
भोगवाद का पूर्ण निषेध है।
अब अगर भोगवाद की अनुमति नहीं
है,
तो
राजनीति में कौन कूदना चाहेगा।
अगर राजनीति रचना और संघर्ष
के दो पहियों पर चलने वाला
महायान है,
तब
सत्ता के लिए राजनीति का चोला
पहनने वालों को इसमें कहां
से आनंद मिलेगा। लेकिन,
आज
इस दुनिया में वसुधैव कुटुम्बकम
का भाव ही एक मात्र निदान है।
देश के सुदूर कोनों में घटने
वाली शर्मनाक घटनाएं सबका
सरोकार बन चुकी हैं। इसमें
धर्म और राजनीति का तामसिक
संगम सबसे खतरनाक माना जा रहा
है। इससे तात्कालिक सफलता
मिलने की गारंटी है,
तो
दीर्घकालीन अमिट कलंक का भी
सच जुड़ा हुआ है। आज धर्म और
राजनीति का गलत संयोग करके
सत्ता पाना अधर्म और असामाजिकता
का सबसे निंदनीय उदाहरणा बन
चुका है। इसलिए तात्कालिकता
के आवेग के बावजूद हमें कालचक्र
के महासत्य का ध्यान रखना
होगा। सांप्रदायिकता की
राजनीति से सीटें जीती जसकती
हैं,
सरकार
भी बनायी जा सकती है,
लेकिन
राष्ट्र-निर्माण
असम्भव है,
सभ्यता
का विकास तो हो ही नहीं सकता।
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