Tuesday, November 5, 2013

चार दिनों का प्यार ओ रब्बा, बड़ी लंबी जुदाई...


Reshma Ji
अपनी मखमली आवाज के लिए पूरी दुनिया में मशहूर पाकिस्तानी गायिका रेशमा अब हमारे बीच नहीं रहीं रेशमा राजस्थान के चुरू के लोहा गांव में 1947 में पैदा हुईं थीं, लेकिन उनका गायन कभी सरहदों का मोहताज नहीं रहा। रेशमा ने बॉलीवुड में जब ‘लंबी जुदाई’ गाना गाया तो यह गाना लोगों की जुबान पर चढ़ गया। संगीत के कद्रदानों के लिए इस साल यह दूसरा झटका है पहले शहंशाह-गजल मेहंदी हसन विदा हुए और अब रेशमा ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया। जब रेशमा जी गाती थीं तो थार मरुस्थल का ज़र्रा-ज़र्रा कुंदन सा चमकने लगता था। पाकिस्तान के लाहौर में 3 नवंबर, 2013 को उनकी वफात पर अफसोस जाहिर करते हुए प्रभात खबर के लिए मशहूर शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल ने मुझसे बात की। 

Shubha Mudgal

बड़ी लंबी जुदाई दे गयीं रेशमा जी  

    सबसे पहले तो रेशमा जी को दिल से खिराज-ए-अकीदत! रेशमा जी का इस दुनिया से विदा लेना सिर्फ हम कलाकारों के लिए ही तकलीफदेह नहीं है, बल्कि सरहदों से बंटे मुल्कों में हर उस शख्स के लिए तकलीफदेह है, जो अलगाव के दर्द को समझते हैं और इस दर्द को कम करने के लिए रेशमा जी के नग्मों को गुनगुनाते हैं हम जैसे क्लासिकल और सूफियाना संगीत के आलम में खुद को डुबो देनेवालों के लिए तो यह बहुत ही अफसोस की बात है कि अब वह रेशमी आवाज फिर से कोई नग्मा नहीं छेड़ेगी उन्होंने यह साबित किया था कि फनकार किसी मुल्क का नहीं होता, बल्कि वह पूरी कायनात का होता है कलाकारों के लिए कोई सरहद नहीं हुआ करती और रेशमा जैसी सरबलंद आवाज की गायिका के लिए तो और भी नहीं
       इस दुनिया में जितने भी कलाकार-फनकार हैं, उनका अपना एक खास लहजा और अंदाज होता है, जिससे उनकी पहचान बनती है हालांकि यह कोई जरूरी नहीं कि सभी का अंदाज इतना पुरअसर हो कि दुनियाभर के लोगों के दिलों में घर कर जाये लेकिन रेशमा जी की आवाज में वह तासीर थी, वह कशिश थी, एक खनक थी, जिसकी बदौलत वे सुनने वाले हर खास-ओ-आम के दिल में सीधे उतर जाती थीं सबसे बड़ी खासियत यह है कि उनकी आवाज में कोई बनावटीपन नहीं था लफ्जों की अदायगी का एक खालिस फोक (गंवई) अंदाज था. जब भी उनका नग्मा, ‘लंबी जुदाई...’ कहीं बजता है, तो उसे सुनते हुए सचमुच हमारे दिल के गोशे तक किसी से गहरे जुदाई का, महबूब से बिछड़ने का, रुसवा होने का, किसी अपने से बहुत दूर चले जाने का एक दर्द भरा एहसास होने लगता है ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके गले में एक रूहानी तासीर थी, जिसे कहीं से सीखा या बनाया नहीं जा सकता 
       रेशमा जी की फनकारी ईश्वर की अमानत है, गुरुओं की दुआएं हैं कोई शख्स किसी चीज को सीखने के लिए लाख कोशिश कर ले, लेकिन जब तक उसके अंदर वह ‘गॉड गिफ्टेड’ चीज न हो, तो उसकी सारी कोशिश बेकार हो सकती है उनका गाया नग्मा ‘अंखियां नू रहने दे अंखियों दे कोल कोल...’ को आप सुनिए, ऐसा लगता है कि कितनी निडर और अपनी ओर बरबस ही खींच लेने वाली आवाज नजर आती है रेशमा जी की आवाज की वह तासीर ही थी, जिसके लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने उनको ‘सितारा-ए-इम्तियाज’ और ‘लेजेंड्स आफ पाकिस्तान’ के लकब से नवाजा सचमुच एक लंबी जुदाई दे गयी हैं रेशमा जी ऊपर वाला उनकी रूह को बेशुमार इज्जत से नवाजे

Wednesday, July 24, 2013

दि मेकिंग आफ दि इंडियन नेशन

रेजिस्टिंग कोलोनियलिज्म एंड कम्यूनल पालीटिक्स: 
मौलाना आजाद एंड दि मेकिंग आफ दि इंडियन नेशन 
रिजवान कैसर 


           भारत रत्न, स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षामंत्री, एक महान कवि, लेखक, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद का नाम भारत की उन चुनिंदा शख्सियतों में शुमार किया जाता है जिन्होंने 20वीं शताब्दी की कमजोरियों को पहचान कर उसकी बुनियाद पर 21वीं शताब्दी की संभावनात्मक ताकतों की इमारत खडी करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मौलाना आजाद भारतीय कलाओं में छुपी इंसानियत और पश्चिमी सभ्यता के बुद्धिवाद का बेहतरीन संयोजन करते हुए आधुनिक, उदार एवं सार्वभौमिक शिक्षा के जरिये एक ऐसे प्रबुद्ध और सभ्य समाज का निर्माण करना चाहते थे, जिसके धर्मनिरपेक्ष ढांचे में सांप्रदायिक सौहार्द के मजबूत स्तंभ लगे हों।
          मौलाना आजाद की जिंदगी को एक किताब की शक्ल देना कोई आसान काम नहीं है, क्यूंकि भारत के निर्माण में मौलाना आजाद से जुडे बहुत से ऐसे राजनीतिक पहलू हैं, जिन पर इतिहास और इतिहासकार दोनों आज भी मौन हैं। साक्ष्यों का अभाव और कुछ पूर्वाग्रहों के चलते हम उनकी राजनीतिक जिंदगी को सही-सही जानने-समझने में नाकाम रहे हैं। इसकी दो वजहें बहुत ही अहम हैं। एक तो यह कि मक्का में पैदा होने के कारण मौलाना आजाद उर्दू नहीं जानते थे, जिससे उनके ख्यालात पूरी तरह से इतिहास के आईने में उतर नहीं पाये। राजनीतिक गतिविधियों को वे अंग्रेजी में करते थे और उस वक्त के लोगों में अंग्रेजी को लेकर इतनी जागरुकता नहीं थी। मगर साक्ष्यरहित इतिहास के उन्हीं धुंधले पन्नों से, मौलाना आजाद के बारे में उस वक्त छपे रिसालों और अखबारों के पीले पड चुके कतरनों से जामिया मिल्लिया इसलामिया के प्रोफेसर रिजवान कैसर ने उन हकीकतों को और सच्चाइयों को खोज निकाला है। इस किताब को पढकर मौलाना आजाद की जिंदगी से हम रूबरू तो होते ही हैं, साथ ही भारत निर्माण के इतिहास को बहुत करीब से देखने और समझने का एक बेहतरीन मौका भी पाते हैं।
         कमजोरी या पूर्वाग्रह चाहे जिस चीज की हो नुकसान पहुंचाती है। इन्हीं दो चीजों ने भारत की राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक राजनीति के बीच मौलाना आजाद की उपलब्धियों को अभी तक दबाये रखा है। लेकिन प्रोफ़ेसर रिजवान कैसर ने मौलाना आजाद की भाषाई कमजोरी और हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों के मौलाना आजाद के प्रति पूर्वाग्रह को न सिर्फ सामने लाया है, बल्कि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के वक्त मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी को चिन्हित करते हुए मौलाना आजाद की कारगुजारियों के आईने में मौजूदा वक्त की मुस्लिम राष्ट्रवाद की ऐसी हकीकत भरी तस्वीर पेश की है, जिसे देखने और जानने के बाद हम मौलाना अजाद पर लगने वाले सांप्रदायिक राजनीति करने के आरोप को सिरे से खारिज कर देते हैं। इस किताब ने यह बताने की पुरअसर कोशिश की है कि मौलाना आजाद ने किसी मुस्लिम राजनीति या सांप्रदायिक राजनीति की वकालत बिल्कुल नहीं की थी, बल्कि उन्होंने तो मुसमानों में राष्ट्रवाद की भावना को इस कदर प्रबल बनाया था, जो आज भी हमारे लिए किसी मिसाल से कम नहीं। भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद की जिंदगी और कारगुजारियों को सांप्रदायिक चश्में से देखने वालों को यह किताब एक बार जरूर पढ़नी चाहिए। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह आजाद की जिंदगी को बयान करती है, बल्कि इसलिए कि इस किताब की बदौलत हम इतिहास की उन सच्ची घटनाओं को जान सकेंगे, जिसे सांप्रदायिकता का अमली जामा पहनाकर हमारे सामने पेश किया जाता रहा है।

Thursday, July 18, 2013

अमानुल्लाह कुरैशी उर्फ अमान फैजाबादी की एक गजल


 रोजा बगैर लीडर! 
Amaan Faizabadi

  

रोजा बगैर लीडर अफ्तार कर रहे हैं। 
अफ्तार की नुमाइश जरदार कर रहे हैं। 

मुफलिस घरों से अपने आला मिनिस्टरों का 

खुशआमदीद कहकर दीदार कर रहे हैं।

कमजर्फियों से होती महफिल की सारी जीनत

रोजा नमाज घर में खुद्दार कर रहे हैं।
  
नाम व नमूद शोहरत मिलती है महफिलों से
उम्मीद आखिरत की बेकार कर रहे हैं।

महफिल का हुस्न कोई कैसे खराब कर ले

बेवा यतीम शिकवा बेकार कर रहे हैं। 

Wednesday, June 26, 2013

समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन का इंटरव्यू

Shiv Viswanathan

देश की जो मौजूदा हालत है, उसे देखते हुए कुछ लोगों का कहना है कि हम एक अघोषित आपातकाल के दौर से होकर गुजर रहे हैं। क्या ऐसा सचमुच है, इसी मसले पर मैंने प्रभात खबर के लिए बात की देश के मशहूर समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन से। पेश है बातचीत का मुख्य अंश...



बेशक! ऐसा माना जा सकता है कि आज हम जिस हिंदुस्तान में रह रहे हैं, वह अपनी छवि से अब तक कि सबसे भ्रष्ट लोकतंत्र होने की कगार पर खड़ा है, लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता कि इस हिंदुस्तान को किसी भी तरह से किसी आपातकाल की जरूरत है, जैसा 1975 में हुआ था। अगर हम आज के अराजक माहौल को देख रहे हैं और आपातकाल जैसे हालात की संभावनात्मक बातें कर रहे हैं तो हमें इसकी भी चर्चा करनी चाहिए कि वास्तव में उस दौर में आपातकाल से हमें किन-किन चीजों का नुकसान उठाना पडा था। आपातकाल के तकरीबन वह डेढ महीने भारत के आधुनिक इतिहास के नजरिये से न सिर्फ काले दिनों के रूप में दर्ज है, बल्कि हमारे लिए और किसी भी बडे लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश के लिए एक सबक भी है। जाहिर है, किसी हादसे से मिली सबक से हम सीख लेना बेहतर समझते हैं, बजाय इसके कि उस सबक को ही दोहराया जाये।
वैसे तो आपातकाल खामियों से भरा हुआ है। लेकिन इसकी सबसे बडी खामी की बात की जाये तो यह कि इसने तमाम संवैधानिक संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया था। एक नजर से देखें तो संजय गांधी ने लोकतंत्र की सभी आधारस्तंभ संस्थाओं पर ऐसा कुठाराघात किया, जिससे कि लोकतंत्र की सारी मर्यादाएं शर्मसार हो गयी थी। प्लानिंग को उसने व्यक्तिगत बना दिया था, मानो लोकतंत्र न हो, कोई राजतंत्र हो। हालांकि राजतंत्र भी जनता के अधिकारों का ख्याल करता है। किसी भी लोकतंत्र में उसकी संवैधानिक संस्थाओं का आधारस्तंभ के रूप में बने रहना निहायत ही जरूरी होता है। इस नजरिये से देखें तो आज के हालात को जब हम आपातकाल की संज्ञा देने की अर्थहीन कोशिश करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि अभी भी इसी अव्यवस्था में कई संवैधानिक संस्थाएं मौजूदा सरकार से पूरी शिद्दत से लड रही हैं। 
आपातकाल को मैं ‘फाल्स नोशन आफ गवर्नेंस’ की संज्ञा देता हूं। यह वो स्थिति है, जो अराजकता को जन्म देती है, हिंसा को जन्म देती है, आपराधिक प्रवृत्तियों को जन्म देती है, लोगों में विक्षोभ को जन्म देती है, कुप्रबंधन और अव्यवस्था को जन्म देती है, अराजकता को बढावा देती है और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीन लेती है। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र एक पिंजरे में बंद हो गया है और वहीं से देश को किसी आटोक्रेटिक फेनोमेना में जकडे हुए बेबसी से देख रहा है। गवर्नेंस को लोकतांत्रिक होना चाहिए, न कि टेक्नोक्रेटिक या आटोक्रेटिक। गवर्नेंस तभी लोकतांत्रिक रह सकता है, जब उसकी सभी संवैधानिक संस्थाएं ईमानदारी से अपना काम करें। सरकार की एनार्की का मुकाबला करें और जनता के अधिकारों का ज्यादा से ज्यादा ख्याल रखें। 
लोगों में अगर ऐसी अवधारणा पल रही है कि इस देश की स्थिति आपातकाल जैसी हो गयी है, तो उन्हें अब यह सोचना शुरू कर देना चाहिए कि अब इस देश में गवर्नेंस की एक नयी अवधारणा की दरकार है। यह नयी अवधारणा दिल्ली से तो नहीं पैदा हो सकती, क्योंकि मौजूदा हालात में व्यवस्था का जो केंद्रीयकरण हुआ है, उसके लिए यह दिल्ली ही जिम्मेदार है। अब चीजों का विकेंद्रीकरण जरूरी हो गया है, तभी इस नयी अवधारणा को बल मिलेगा। अब दिल्ली से काम चलाना मुश्किल है। ऐसा लग रहा है कि देश साउथ ब्लाक से गवर्न हो रहा है। ऐसे में राज्यों और लोकजन के अधिकारों का हनन तो होगा ही। यह अधिकारों का हनन ही है जो आपातकाल जैसी अवस्था को सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। जनअधिकारों को लेकर लोगों में खीज और गुस्सा बढ रहा है। यमुना की सफाई भी इन्हीं अधिकारों में से एक है। अगर देश में विकेंद्रीकरण हो तो यमुना जैसी तमाम नदियों को साफ और स्वच्छ रखना आसान हो जायेगा। दिल्ली यह काम नहीं कर सकती, वह सिर्फ लोकतंत्र और गुड गवर्नेंस की दुहाई देते हुए जनता के सभी बुनियादी मसलों पर राजनीति कर सकती है। देश के हर चीज का विकेंद्रीकरण होना जरूरी, तभी देश के आखिरी सिरे पर बैठे लोगों तक उनके मूलभूत अधिकार पहुंच पायेंगे। फिर कोई आपातकाल की बात नहीं करेगा।
हर अच्छे बुरे दौर को हमें सिर्फ याद करने की या उसको सही गलत ठहराने की बात नहीं करनी चाहिए। हमें चाहिए कि उससे सबक सीखें और प्रयासरत रहें कि लोकाधिकारों का हनन न हो। जब जब लोकाधिकारों का हनन होगा, जय प्रकाश नारायण जैसे लोकनायकों का जनम होगा और क्रांति होगी जो संपूर्ण क्रांति की मांग करेगी। आज संपूर्ण क्रांति की बात भले ही न हो, लेकिन गुड गवर्नेंस की एक नयी अवधारणा का विकसित होना बहुत जरूरी है।

Sunday, March 31, 2013

तीसरा आदमी कौन है

एक आदमी खुद को 

सर्वोच्च ज्ञानी मानता है
कभी किसी से नहीं मिलता
वह कविता करता है
अपनी कविता में 
बात करता है जनसरोकारों की 
बजाता है क्रांति का बिगुल

एक दूसरा आदमी है
जो सबको साथ लेकर चलता है
उच्चता का घमंड नहीं करता
बातें करने के बजाय
निभाता है जन के प्रति सरोकारों को 
लेकिन हां
वह कविता नहीं लिखता

एक तीसरा आदमी भी है
जो न कविता लिखता है
और न ही किसी
जनसरोकार की बात करता है
वह कविता और जनसरोकार दोनों से 
जैसे चाहता है, खेलता है

जनता पूछ रही है
यह तीसरा आदमी कौन है
देश का मीडिया मौन है

Monday, March 11, 2013

कहानी की खुश्बू को किशोर चौधरी ने याद दिलायी




कहानी की जमीन सतही नहीं होती, खुरदुरी होती है, जहां पहले से मौजूद शिल्प और कथ्य रूपी घास-फूस, झाड़-झंखाड़ को उखाड़ कर एक नये उपजाउ शिल्प की जमीन तैयार की जाती है। इस जमीन से ही यथार्थ के पौधे निकलते हैं और सृजनशीलता को एक नया आयाम देते हैं। कुछ ऐसी ही कोशिश की है राजस्थान के बाड़मेर स्थित आकाशवाणी में उद्घोशक किशोर चौधरी ने। कुल 14 कहानियों के इस संकलन में किशोर ने अलग-अलग कई ऐसे बिंबों को स्थापित किया है जिससे वे किसी श्रेणी के रचनाकार तो बिल्कुल नहीं, लेकिन अपनी अलहदा श्रेणी के रचनाकार बन जाते हैं। आध्यात्मवेत्ता स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘हम कोई नया ज्ञान नहीं उत्पन्न करते, बल्कि ज्ञान तो हर जगह है, हम सिर्फ उसे तलाश करते हैं।’ कुछ ऐसा ही कहानी-खुश्बू बारिश की नहीं... में किशोर कहते हैं- ‘अरे पगली! ये मिट्टी की खुश्बू है, बारिश ने तो सिर्फ याद दिलाई है।’ इसी तरह कहानी की खुश्बू को किशोर चौधरी ने याद दिलायी है। सचमुच खुश्बू तो हमारे जीवन में भी है, जिसे हम किसी फूल से तलाश लेते हैं या फिर रिश्तों की गहराई से।
हिंदी किताबों के लिए बेस्ट सेलर जैसा कोई कांसेप्ट नहीं है। किसी किताब को हाथोंहाथ लिये जाने और महीने दो महीने में पहले संस्करण की सारी प्रतियों के बिक जाने के बाद दूसरे संस्करण की तैयारी के मद्देनजर अंग्रेजी से उधार लेकर ही सही अब इस शब्दावली का प्रयोग होने लगा है। होना भी चाहिए। पिछले साल अक्टूबर में हिंद युग्म प्रकाशन से छपे किशोर चैधरी के कहानी संग्रह ‘चौराहे पर सीढि़यां’ को पाठकों ने अपने हाथों और पठनीयता के जरिये बुकसेल्फ में सजाकर दिसंबर की शुरूआत में महज दो महीने में ही हिंदी का बेस्ट सेलर बना दिया। 
जरा गौर करें तो आज किताबों से दूर भागने और इलेक्ट्रानिक माध्यमों के दौर की इस पीढ़ी में कहानी पढ़ने का साहस पैदा करना और उन्हें साहित्य की ओर खींचना कितना मुश्किल काम है। लेकिन यह भी गौर करने वाली बात है कि यह काम किसी ऐसे रचनाकार ने नहीं की है, जो मुख्यधारा के साहित्य सृजनशीलता से जुड़ा हुआ हो। दरअसल, किशोर चैधरी मौजूदा साहित्यकारों, रचनाकारों की तरह छपास रोग से बहुत दूर हैं। वे अंतर्जालीय रचनाकार हैं। वे एक ब्लागर हैं और जब भी जो कुछ भी लिखते हैं, उसे अपने ब्लाग ‘हथकढ़’ पर दे मारते हैं। नेटीजनों के बीच में उनकी रचनाएं पहुंचती हैं और सराही जाती हैं। यही वजह है कि हिंद युग्म प्रकाशन किशोर की रचनाओं को किताब की शक्ल में लाने के लिए विवश हो गया, जिसका आज दूसरा संस्करण भी सबके सामने है। वेब बुक स्टोर फ्लिपकार्ट और इन्फीबीम पर इसकी बिक्री आज भी जारी है और लोग प्रीबुकिंग के जरिये इसे मंगा रहे हैं। किताबों के आनलाइन होने का एक फायदा यह है कि हिंदी के लोग जो कहीं किसी दूसरी भाषा में रहते हैं, दूसरे मुल्क में रहते हैं, उन तक ये आसानी से पहुंच बना लेती हैं।
किशोर चौधरी की कहानियों की दुनिया साहित्यिक यथार्थ की नहीं, बल्कि मानवीय यथार्थ की दुनिया है। साहित्यिक यथार्थ कहीं न कहीं किताबों की ओर ले जाती है, लेकिन मानवीय यथार्थ किताबों से दूर हकीकत की ओर ले जाती है। इसकी बानगी वहां से मिलती है जब इस संग्रह के शीर्शक वाली कहानी-चैराहे पर सीढि़यां में वे कहते हैं, ‘आदमी को कभी ज्यादा पढ़ना नहीं चाहिए। पढ़ा लिखा आदमी समाज की नींव खोदने के सिवा कोई काम नहीं करता। किताबें उसकी अक्ल निकाल लेती हैं।’ क्या ही सच है कि हमारे समाज में एक से बढ़कर एक पढ़े-लिखे लोग हैं, विद्वान हैं, धर्माचार्य हैं, लेकिन फिर भी आज हमारे समाज का वैचारिक स्तर अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच चुका है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि लोगों ने किताबों को सिर्फ व्यवसाय से जोड़ा, जीवन से नहीं। ऊंचे पदों से जोड़ा, लेकिन इंसानी रिश्तों से नहीं। चैराहे पर सीढि़यां से ही- ‘लोग रिश्तों को सीढ़ी बनाकर चढ़ जाते हैं और फिर वापस लौटना भूल जाते हैं।’ यह आज के दौर का कटु सत्य है और जग जाहिर है लोग इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि अपने अहबाबों से भी साथ रहने का मानसिक किराया वसूल करते हैं।
किशोर की कहानियों में जीवन के हर रंग तो मौजूद हैं, लेकिन उन रंगों की लयात्मकता सामान्यता से कुछ अलग नजर आती है। उनके सोचने का नजरिया बिल्कुल अलग है। धर्म और आस्था तर्कों की कसौटी पर कसे गये हैं, लेकिन किशोर इसे नकारते हुए कहानी ‘सड़क जो हाशिए से कम चैड़ी थी’ में कहते हैं- ‘आस्था और तर्क बिना किसी सुलह के विपरीत रास्ते पर चल देते हैं।’ यह विपरीत रास्ता हमारे समाज के खांचों में ही कहीं न कहीं मिल जाता है तो हमारे सोच का फलक कुछ और हो जाता है। कहानी ‘रात की नीम अंधेरी बाहें’ में किशोर का खुद के सोचने के बारे में एक मासूम सा बयान देखिए- ‘मैं दूसरों के बारे में इसलिए सोचता हूं कि खुद के बारे में सोचने से तकलीफ होती है। खुद के बारे में सोचते हुए मैं जीवन दर्शन में फंस जाता हूं। मेरा अज्ञान मुझे डराने लगता है। मैं इस संसार को मिथ्या समझने लगता हूं। जबकि कुछ ही घंटों बाद जीवन को जीने के लिए दफ्तर जाना जरूरी होता है। दफ्तर न जाओ तो ये मिथ्या संसार हमें भूख का आईना दिखाता है। कहता है बाबूजी यही दुनिया सत्य है, यहां मिथ्या कुछ भी नहीं।’ 
जीवन के हर एक रंग को अलग-अलग बिंबों में पेश करने वाले किशोर चैधरी की कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि हम किसी कथ्य या किरदार को नहीं, बल्कि अनायास होती घटनाओं को पढ़ रहे हैं जो हमारे जीवन से ही जुड़ी हुई होती हैं। हालांकि कहीं-कहीं छिटकती भी हैं, लेकिन फिर वापस आकर जुड़ भी जाती हैं। रूढ़ीवादी तत्वों से किशोर ने इनकार नहीं किया, लेकिन लिखते हुए कुछ ऐसा शिल्प गढ़ते हैं कि पाठकों को उन तत्वों से इनकार कर आधुनिकता की ओर जाने के लिए मजबूर कर देते हैं। कहानी ‘एक अरसे से’ में- ‘लोग कहते थे कि बड़ी गलती की, दरवाजे के ठीक सामने दरवाजा बनाया। भाग घर के पार हो जायेगा। सौभाग्य को कैद करने के लिए जरूरी था कि आर-पार दरवाजे न हों।’ बेहद छोटे-छोटे वाक्यों और आम बोलचाल के शब्दों का इस्तेमाल करने वाले किशोर को पढ़ना साहित्य के एक नये आयाम को समझना नहीं है, लेकिन एक वर्तमान साहित्य के बीच एक चुनौती की तरह जरूर देखना है, जिस पर किशोर खरा उतरने के काबिल हैं।

Friday, February 22, 2013

वे नहीं मरे अभी


हर बार की तरह इस बार भी
कुछ इंसान ही मरे हैं
और आगे भी यही मरते रहेंगे

वो नहीं मरे
जिन्हें मरना चाहिए था
वे भी नहीं
Hyderabad Blast
जिन्हें मर जाना चाहिए

सुना है उनके पास
कोई खुदा, कोई ईश्वर है
बड़ा ताकतवर है वो
वही इंसानों को मारने की
नसीहत देता है

उस खुदा या उस ईश्वर को
मैं बिल्कुल नहीं जानता
अच्छा है जो मैं
ऐसे खुदा, ऐसे ईश्वर को
बिल्कुल भी नहीं मानता...

प्रोफेसर रिजवान कैसर और तहसीन मुनव्वर का इंटरव्यू