Wednesday, June 26, 2013

समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन का इंटरव्यू

Shiv Viswanathan

देश की जो मौजूदा हालत है, उसे देखते हुए कुछ लोगों का कहना है कि हम एक अघोषित आपातकाल के दौर से होकर गुजर रहे हैं। क्या ऐसा सचमुच है, इसी मसले पर मैंने प्रभात खबर के लिए बात की देश के मशहूर समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन से। पेश है बातचीत का मुख्य अंश...



बेशक! ऐसा माना जा सकता है कि आज हम जिस हिंदुस्तान में रह रहे हैं, वह अपनी छवि से अब तक कि सबसे भ्रष्ट लोकतंत्र होने की कगार पर खड़ा है, लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता कि इस हिंदुस्तान को किसी भी तरह से किसी आपातकाल की जरूरत है, जैसा 1975 में हुआ था। अगर हम आज के अराजक माहौल को देख रहे हैं और आपातकाल जैसे हालात की संभावनात्मक बातें कर रहे हैं तो हमें इसकी भी चर्चा करनी चाहिए कि वास्तव में उस दौर में आपातकाल से हमें किन-किन चीजों का नुकसान उठाना पडा था। आपातकाल के तकरीबन वह डेढ महीने भारत के आधुनिक इतिहास के नजरिये से न सिर्फ काले दिनों के रूप में दर्ज है, बल्कि हमारे लिए और किसी भी बडे लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश के लिए एक सबक भी है। जाहिर है, किसी हादसे से मिली सबक से हम सीख लेना बेहतर समझते हैं, बजाय इसके कि उस सबक को ही दोहराया जाये।
वैसे तो आपातकाल खामियों से भरा हुआ है। लेकिन इसकी सबसे बडी खामी की बात की जाये तो यह कि इसने तमाम संवैधानिक संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया था। एक नजर से देखें तो संजय गांधी ने लोकतंत्र की सभी आधारस्तंभ संस्थाओं पर ऐसा कुठाराघात किया, जिससे कि लोकतंत्र की सारी मर्यादाएं शर्मसार हो गयी थी। प्लानिंग को उसने व्यक्तिगत बना दिया था, मानो लोकतंत्र न हो, कोई राजतंत्र हो। हालांकि राजतंत्र भी जनता के अधिकारों का ख्याल करता है। किसी भी लोकतंत्र में उसकी संवैधानिक संस्थाओं का आधारस्तंभ के रूप में बने रहना निहायत ही जरूरी होता है। इस नजरिये से देखें तो आज के हालात को जब हम आपातकाल की संज्ञा देने की अर्थहीन कोशिश करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि अभी भी इसी अव्यवस्था में कई संवैधानिक संस्थाएं मौजूदा सरकार से पूरी शिद्दत से लड रही हैं। 
आपातकाल को मैं ‘फाल्स नोशन आफ गवर्नेंस’ की संज्ञा देता हूं। यह वो स्थिति है, जो अराजकता को जन्म देती है, हिंसा को जन्म देती है, आपराधिक प्रवृत्तियों को जन्म देती है, लोगों में विक्षोभ को जन्म देती है, कुप्रबंधन और अव्यवस्था को जन्म देती है, अराजकता को बढावा देती है और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीन लेती है। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र एक पिंजरे में बंद हो गया है और वहीं से देश को किसी आटोक्रेटिक फेनोमेना में जकडे हुए बेबसी से देख रहा है। गवर्नेंस को लोकतांत्रिक होना चाहिए, न कि टेक्नोक्रेटिक या आटोक्रेटिक। गवर्नेंस तभी लोकतांत्रिक रह सकता है, जब उसकी सभी संवैधानिक संस्थाएं ईमानदारी से अपना काम करें। सरकार की एनार्की का मुकाबला करें और जनता के अधिकारों का ज्यादा से ज्यादा ख्याल रखें। 
लोगों में अगर ऐसी अवधारणा पल रही है कि इस देश की स्थिति आपातकाल जैसी हो गयी है, तो उन्हें अब यह सोचना शुरू कर देना चाहिए कि अब इस देश में गवर्नेंस की एक नयी अवधारणा की दरकार है। यह नयी अवधारणा दिल्ली से तो नहीं पैदा हो सकती, क्योंकि मौजूदा हालात में व्यवस्था का जो केंद्रीयकरण हुआ है, उसके लिए यह दिल्ली ही जिम्मेदार है। अब चीजों का विकेंद्रीकरण जरूरी हो गया है, तभी इस नयी अवधारणा को बल मिलेगा। अब दिल्ली से काम चलाना मुश्किल है। ऐसा लग रहा है कि देश साउथ ब्लाक से गवर्न हो रहा है। ऐसे में राज्यों और लोकजन के अधिकारों का हनन तो होगा ही। यह अधिकारों का हनन ही है जो आपातकाल जैसी अवस्था को सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। जनअधिकारों को लेकर लोगों में खीज और गुस्सा बढ रहा है। यमुना की सफाई भी इन्हीं अधिकारों में से एक है। अगर देश में विकेंद्रीकरण हो तो यमुना जैसी तमाम नदियों को साफ और स्वच्छ रखना आसान हो जायेगा। दिल्ली यह काम नहीं कर सकती, वह सिर्फ लोकतंत्र और गुड गवर्नेंस की दुहाई देते हुए जनता के सभी बुनियादी मसलों पर राजनीति कर सकती है। देश के हर चीज का विकेंद्रीकरण होना जरूरी, तभी देश के आखिरी सिरे पर बैठे लोगों तक उनके मूलभूत अधिकार पहुंच पायेंगे। फिर कोई आपातकाल की बात नहीं करेगा।
हर अच्छे बुरे दौर को हमें सिर्फ याद करने की या उसको सही गलत ठहराने की बात नहीं करनी चाहिए। हमें चाहिए कि उससे सबक सीखें और प्रयासरत रहें कि लोकाधिकारों का हनन न हो। जब जब लोकाधिकारों का हनन होगा, जय प्रकाश नारायण जैसे लोकनायकों का जनम होगा और क्रांति होगी जो संपूर्ण क्रांति की मांग करेगी। आज संपूर्ण क्रांति की बात भले ही न हो, लेकिन गुड गवर्नेंस की एक नयी अवधारणा का विकसित होना बहुत जरूरी है।

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