Wednesday, October 3, 2018

स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए सिनेमा का शानदार दौर

अपनी फिल्म ‘उन्माद’ को लेकर एक्टर और फिल्मकार शाहिद कबीर इन दिनों चर्चा में हैं. दिल्ली के जामिया से सिनेमा में मास्टर डिग्री हासिल करनेवाले सहारनपुर के शाहिद कबीर लंबे समय से थियेटर करते आ रहे हैं और ‘इप्टा’ से जुड़े रहे हैं. बतौर निर्देशक ‘उन्माद’ उनकी पहली फिल्म है. थियेटर और सिनेमा के फर्क के साथ मौजूदा दौर की तकनीक और सिनेमाई स्वतंत्रता को भारतीय सिनेमा के लिए बेहतर माननेवाले शाहिद से मैंने लंबी बातचीत की... यह बातचीत प्रभात खबर में छपी है, जिसका लिंक इस पोस्ट के नीचे है। 


बतौर निर्देशक पहली फिल्म के रूप में एक संवेदनशील विषय पर ही ‘उन्माद’ क्यों?
Shahid Kabeer
हम जिस माहौल में जी रहे होते हैं, उसमें अगर आप कुछ ज्यादा संवेदनशील इंसान हैं, तो आपको संवेदनशील विषय ही पसंद आयेगा. मौजूदा माहौल को मैं जिस नजदीकी से देख रहा हूं, उसका परिणाम है ‘उन्माद’. जहां तक पहली फिल्म के रूप में ‘उन्माद’ ही क्यों का सवाल है, तो यह थियेटर से मेरा जुड़ाव का परिणाम कह सकते हैं. मैं एक लंबे अरसे से थियेटर करता रहा हूं. थियेटर में नाटकों के विषय बहुत संवेदनशीलता और गहराई लिये हुए होते हैं, क्योंकि थियेटर करनेवाले एक सीमित दर्शक के बीच अपनी प्रस्तुतियां देते हैं. ये दर्शक भी संवेदनशील होते हैं, इसलिए इसमें बेवजह का मनोरंजन नहीं रखा जा सकता. हां अगर रखा जाता है, तो उसमें भी सटायर का पुट ज्यादा होता है.
‘उन्माद’ को थियेटर प्रस्तुति दी जा सकती थी, बजाय सिनेमा के, क्योंकि यह थियेटर मटीरियल ज्यादा है. वहीं सिनेमा ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन (एंटरटेनमेंट) को लेकर चलता है.
हां, लेकिन मेरे ख्याल में इसका दूसरा पक्ष भी है. जाहिर है, थियेटर की पहुंच छोटी है और सिनेमा की पहुंच बड़ी है. अपना ख्याल ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए सिनेमा ही अच्छा माध्यम हो सकता है, बजाय थियेटर के. इसलिए मैंने ‘उन्माद’ को सिनेमा की शक्ल दी, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इस संवेदनशील विषय का संदेश पहुंच सके. जहां तक सिनेमा में मनाेरंजन का होना जरूरी है, यह बात सही है, लेकिन यह भी सही है कि सिनेमा ने बहुत से गंभीर विषयों को ज्यादातर लोगों तक पहुंचाया है. इसलिए मैंने माध्यम के रूप में फिल्म का रास्ता चुना, क्योंकि ज्यादातर लोग फिल्में ही देखते हैं. हालांकि, सिनेमा की अपनी जो प्रतिबद्धताएं होती हैं, उसे हमने ‘उन्माद’ में पूरा किया है, मसलन ‘उन्माद’ के जरिये हमने मीनिंगफुल एंटरटेनमेंट पेश किया है.
‘उन्माद’ का संदेश क्या है? मुझे लगता है कि यह एक राजनीतिक फिल्म है. क्या ऐसा है? 
भारत एक खूबसूरत लोकतंत्र है. यहां किसी गुनहगार को सजा देने के लिए बेहतर कानूनी प्रावधान हैं. उसके खिलाफ एफआई हो, फिर केस चले, फिर सारी सुनवाई के बाद सबूतों के आधार पर अदालत से फैसला आये. लेकिन, पिछले कुछ साल को देखें, तो यही नजर आया है कि अब जनता ही सड़क पर किसी को सजा देने लगी है. जनता का इस तरह हिंसक हाेना हमारे लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि इससे देश की प्रगति रुकती है. उन्माद का संदेश यही है कि हमें कानून अपने हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं है, सजा देने का काम अदालत का है. अब इस संदेश को बड़े पैमाने पर ले जाने के लिए फिल्म ही जरिया हो सकता है. जहां तक इसके राजनीतिक फिल्म होने का सवाल है, तो यह दर्शकों पर निर्भर करता है कि वे इसे किस नजरिये से देखते हैं.
थियेटर से फिल्म में आने में कैसी और कितनी मुश्किलें आयीं? 
ज्यादा मुश्किलें नहीं आयीं, क्योंकि सिनेमा के बारे में जामिया से मैंने पढ़ाई की है. मैं इन बारीकियों को जानता हूं कि थियेटर और सिनेमा के बीच क्या फर्क है.
मैंने यह सवाल इसलिए पूछा, क्योंकि आपकी फिल्म में थियेटर की झलक ज्यादा नजर आती है. क्या इससे बचने की कोई कोशिश हुई?
जिस तरह का विषय है, उसको इसी तरीके से फिल्म में ढाला जा सकता था, इसलिए ऐसा लग रहा है आपको. बचने की कोशिश का भी कोई सवाल नहीं था. दरअसल, हमारा पूरा सिनेमा ही पारसी थियेटर से आया है. इसलिए वास्तविक विषयों पर फिल्में थियेट्रिकल लगने लगती हैं.
यहां वास्तविक विषयों पर फिल्में बनती रही हैं, लेकिन उनका ट्रिटमेंट ज्यादातर सिनेमेटिक ही रहा है, क्योंकि एंटरटेनमेंट की दरकार जो होती है.
हां बात सही है, लेकिन हर निर्देशक का अपना एक तरीका होता है कि वह अपनी फिल्म को किस तरह से बनाये. मेरी कोशिश यह है कि मेरी फिल्म देखकर लोग यह कहें कि मैं तो फलां से प्रभावित लगता हूं. इसलिए मेरा प्रयोग कुछ अलहदा हो सकता है और भविष्य में भी अपनी सारी फिल्मों के साथ ऐसा करते रहने की कोशिश करूंगा. पहली बात तो यह कि मैं नहीं चाहता कि मुझ पर किसी की छाप नजर आये, और दूसरी बात यह है कि कहानी की जरूरत क्या है, इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर ही काम करना है.
अक्सर पहली बनाने से पहले फिल्मकार सोचता है कि उसकी पहली फिल्म सफल हो, क्योंकि एक तरफ पैसा मायने रखता है, तो दूसरी तरफ फिल्मकार का भविष्य क्या होगा, यह भी देखना होता है. क्या यह सब था आपके जेहन में? 
मेरे जेहन में सिर्फ एक ही चीज थी कि शुरुआत बिजनस के उद्देश्य से नहीं करनी है, बल्कि फिल्म का संदेश ज्यादातर लोगों तक पहुंचे, यह सोचा था. हालांकि, मुझे पता नहीं था कि यह सब कैसे होगा, लेकिन बनने की प्रक्रिया के दौरान सब होता गया. जहां तक पहली फिल्म सफल हो, इसका सवाल है, तो मैं समझता हूं कि भारत में अब सिनेमा का मूड बदल रहा है. बड़ी-बड़ी फिल्में भी असफल हो रही हैं, लेकिन वहीं कुछ छोटी फिल्में शानदार सफलता हासिल कर रही हैं. अब नये फिल्मकारों के पास ढेरों मौके हैं कि वे हर तरह के विषयों पर फिल्में बनायें और दर्शकों को ज्यादा दे सकें. ‘उन्माद’ जैसी फिल्मों को कॉरपोरेट सपोर्ट नहीं मिल पाता है, लेकिन मुझे मिला, क्योंकि मुझे उम्मीद थी कि हमने अच्छा काम किया है, तो सभी पसंद करेंगे.
पहली फिल्म के बाद फिल्मकार के रूप में आपकी जो पहचान बनी है, उसमें आगे क्या-क्या शामिल करना है?
हर तरह की फिल्में बनाने का इरादा है. वह कॉमेडी भी हो सकती है और इश्क-प्यार-मुहब्बत भी. लीक से हटकर भी हो सकती है और मुख्यधारा की फिल्म भी. लेकिन, इन सबमें एक केंद्रीय भाव रखने की कोशिश होगी कि मीनिंगफुल फिल्म हो, न कि माइंडनेस फिल्म.
मौजूदा दौर में किस फिल्मकार ने आपको ज्यादा प्रभावित किया है? 
वैसे तो सभी नये फिल्मकार अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन लीक से हटकर काम करनेवालों में मुझे अनुराग कश्यप बहुत पसंद हैं. सबसे अच्छी बात यह है कि एक स्वतंत्र फिल्मकार के लिए यह बहुत शानदार दौर है. नयी तकनीकों ने छोटी-छोटी कोशिशों से बनी शानदार फिल्मों काे बहुत दूर तक पहुंचा दिया है, जो पहले संभव नहीं हो पाता था. सिनेमाई स्वतंत्रता का दायरा तेजी से बढ़ रहा है. सिनेमा का यह नया और स्वतंत्र दौर जरूर बाॅलीवुड के सफर में एक नया आयाम स्थापित करेगा, मुझे इसकी पूरी उम्मीद है.

http://epaper.prabhatkhabar.com/1837297/Surbhi/Surbhi#page/4/2

https://www.prabhatkhabar.com/news/bollywood/shahid-kabir-will-be-debut-with-unmaad-in-bollywood/1211128.html

Friday, June 15, 2018

ईद-उल-फित्र की अहमियत

मजहब-ए-इस्लाम में सिर्फ दो त्योहारों का ही ज़िक्र मिलता है- ईद-उल-फित्र और ईद-उल-अज़हा। इसके अलावा सालभर में बाकी जो दूसरे त्योहार मुसलमान मनाते हैं, वे सब अलग-अलग मुल्कों में उनकी अपनी-अपनी तहज़ीब और संस्कृतियों का हिस्साभर होते हैं।
       चांद के हिसाब से चलने वाले हिज्री कैलेंडर के नौवें महीने ’’रमज़ान’’ के पूरे होने के बाद दसवें महीने ’’शव्वाल’’ की पहली तारीख को ईद-उल-फित्र का त्योहार मनाया जाता है। और इसके ठीक सत्तर दिन बाद ईद-उल-अज़हा का त्योहार आता है। ईद का दिन एक प्रकार से शुक्राने का दिन है कि अल्लाह ने महीने भर के रोज़ों के बाद अपने बंदों पर यह करम फरमाया है कि वे सभी इकट्ठा होकर अल्लाह का शुक्र अदा कर सकें और यह अहद कर सकें कि जिस तरह से पूरे महीने वे तमाम बुराइयों से दूर रहे, उसी तरह से उनकी बाकी ज़िंदगी भी अल्लाह की रहमत के साये में गुज़रे और बरकतों की बेशुमार बारिश हो।
       हिज्री कैलेंडर के बारे में इस्लाम के दूसरे खलीफा हज़रत उमर इब्न अल-खत्ताब ने पहली दफा सन 638 में बताया था। हालांकि, हिज्री कैलेंडर की शुरुआत उससे तकरीबन डेढ़ दशक पहले 622 में ही हो चुकी थी। इसे इस्लामी कैलेंडर भी कहा जाता है। हिज्री कैलेंडर का पहला महीना ’मुहर्रम’ है और आखिरी महीना ’जिलहिजा’ है। 16 जुलाई, 622 को हिज्री कैलेंडर के पहले साल के पहले महीने मुहर्रम की पहली तारीख थी। यहीं से हिज्री कैलेंडर यानी इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है। हिज्री कैलेंडर के दिन-महीने-साल सभी चांद की चाल के हिसाब से तय होते हैं। इसमें हर महीने में 29.53 दिन होते हैं और इस ऐतबार से एक साल में कुल 354.36 दिन होते हैं। यही वजह है कि अंग्रेजी साल (जनवरी से दिसंबर) के मुकाबले हिज्री कैलेंडर का साल तकरीबन दस-ग्यारह दिन छोटा होता है।
       ईद के माने होते हैं- खुशी। एक महीने रमज़ान के रोज़े रखने के बाद अल्लाह ने रोज़ेदारों के लिए यह इंतज़ाम किया है कि पूरे एक महीने तक दिन में हर तरह के ज़ायके और पानी से महरूम बंदों को खुशी का एक तोहफा मिले, ताकि वे आपस में प्यार-मुहब्बत के साथ खुशियां मना सकें। ईद का त्योहार इस्लामी ज़िंदगी के दो अलग-अलग पहलुओं को हमारे सामने रखता है, जिसे हम सभी को समझना चाहिए। इस्लाम के मुताबिक, हमारी ज़िंदगी की दो मियाद (कालचक्र) है। पहली मियाद, हमारे पैदा होने से लेकर मौत तक की हमारी ज़िंदगी है, और दूसरी मियाद, मौत के बाद की हमारी दूसरी ज़िंदगी है, जिसे आखिरत यानी हमेशा-हमेश की ज़िंदगी कहते हैं। अगर हम अपनी पहली ज़िंदगी में अल्लाह के बताए रास्ते पर चलते हैं, तो दूसरी ज़िंदगी में हमें उसका इनाम मिलेगा। इस्लाम की यही सीख रमज़ान और ईद में देखने को मिलती है। रमज़ान का महीना हमारी पहली ज़िंदगी की तरह है, जिसमें भूख और प्यास की शिद्दत लिये जद्दो-जहद के साथ जीना है, तो वहीं ईद हमारी दूसरी ज़िंदगी के शक्ल में एक इनाम है। यानी तस्दीक के साथ ईद एक अलामत है कि अल्लाह के बताए रास्ते पर चलने का इनाम खुशियों से भरा होता है।
       एक रवायत में आता है कि शव्वाल महीने का चांद (जिसे ईद का चांद भी कहते हैं) देखकर इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने कहा- ’’ऐ अल्लाह! इस चांद को अमन का चांद बना दे।’’ इसका माना यह हुआ कि ईद अमन की अलामत है, शांति की पहचान है और हमारे जम्हूरी समाज में इसकी बड़ी ही अहमियत है। इस्लामी तारीख में यह दर्ज है कि हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने सन 624 में हुए जंग-ए-बदर के बाद पहली दफा ईद मनायी थी और तब से ही ईद मनाने की यह इस्लामी रवायत आज तक कायम है। जंग के बाद अरबी समाज में शांति और सामुदायिक सौहार्द के लिए ही ईद-मिलन की बुनियाद पड़ी। ईद-मिलन जैसी शब्दावली से यह बात समझी जा सकती है कि समाज में भाईचारा बढ़ाने के लिए ईद का बड़ा ही अहम किरदार है, जहां दुश्मन को माफ करके उससे गले मिलने तक के वाकये नज़र आते हैं। दरअसल, ईद के दिन दुश्मन भी जब एक-दूसरे से हमकलाम होकर एक-दूसरे को मुबारकबाद और तोहफे देते हैं, तो इससे एक भाईचारे से भरा राबता यानी संवाद कायम होता है और यही संवाद हमारे समाज में शांति और सौहार्द का नेतृत्व करता है।
       ज़ाहिर है, रोज़े पूरे होने के बाद ईद का दिन आता है। रमज़ान और ईद ये दोनों इस्लाम की दो खासियतों की तरफ इशारा करते हैं। एक रवायत में आता है कि हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने कहा था- ’’रोज़ों का महीना सब्र का महीना है।’’ यानी इस सब्र का मीठा फल ईद है। ज़ाहिर है, रमज़ान जैसे सब्र का फल तो ईद की खुशी ही हो सकती है। यानी एक तरफ खाने-पीने से मुंह मोड़कर सब्र रखते हुए अल्लाह की इबादत में दिन गुज़ारना ही रमज़ान का मकसद है, तो वहीं दूसरी तरफ ईद की शक्ल में अल्लाह की तरफ से मिलने वाला एक नायाब तोहफा है। कुरान में अल्लाह फरमाता है- ’’ऐ फरिश्तों! तुम इस बात की गवाही देना कि मैंने यह तय किया है कि आखिरत में रोज़ेदारों के लिए जन्नत ही ठिकाना होगा।’’ इसलिए सभी मुसलमान रमज़ान के रोज़े रखकर अल्लाह से अपनी मुहब्बत का इज़हार करते हैं और रमज़ान के तीन अशरों (रहमत, मगफ़िरत और निजात) में खूब दुआएं करते हैं कि अल्लाह उनके सारे गुनाहों को माफ़ फ़रमाए। तमाम गुनाहों की माफ़ी के साथ रमज़ान का महीना दुआ की मक़बूलियत का भी महीना है।
       ईद के दिन सुबह में नये-नये कपड़े पहनकर मुसलमान कोई मीठी चीज़ खाकर ईद की दो रक़ात नमाज़ अदा करने के लिए घर से ईदगाह की तरफ जाते हैं। ईद की नमाज़ से पहले हर मुसलमान मर्द और औरत पर यह फर्ज़ है कि वे सदका-फितरा अदा करें और ग़रीबों को दें, ताकि ग़रीब और ज़रूरतमंद लोग भी सबके साथ ईद की खुशियां मना सकें। यानी ईद वह त्योहार है, जो समाज में हर इंसान के बराबर होने की तस्दीक करता है, ताकि कोई किसी को ऊंच-नीच न समझे और एक साथ ईद की खुशी में शामिल होकर अल्लाह की रहमत का हक़दार बने।
       ईद की नमाज़ ‘‘दोगाना’’ के बाद यह दुआ की जाती है कि समाज में मानवता का बोलबाला बढ़े, शांति, सौहार्द और आध्यात्मिकता का विकास हो और सबकी ज़िंदगी में हमेशा ईद जैसी खुशी शामिल रहे। ईद की नमाज़ के बाद सभी एक-दूसरे को बधाइयां देते हैं, अपने घर दावत पे बुलाते हैं, दूसरे के घर भी जाते हैं, अच्छी-अच्छी चीज़ें खिलाते हैं और दुआएं करते हैं कि हम सभी पर अल्लाह की रहमत बरकरार रहे।
       सामान्यतः ईद-उल-फित्र को मीठी ईद भी कहा जाता है, जिसमें सबसे ज़्यादा एहतमाम सेवइयों का होता है। हालांकि, इस्लामी नज़रिये से सेवई या ईद के दिन का खान-पान वगैरह इस्लाम का हिस्सा नहीं है, लेकिन हां, यह समाज, संस्कृति और जगहों की अपनी तहज़ीब का हिस्सा है। जब हम किसी को मीठी चीज़ खिलाते हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हम खुशी और प्यार बांटते हैं। ईद का मतलब भी यही है कि समाज में ज़्यादा से ज़्यादा खुशी, प्यार और सौहार्द को बढ़ावा दिया जाए। आप सब भी ईद की खुशियों को मिल-जुलकर एक-दूसरे के साथ मुहब्बत से मनाएं, ताकि मुल्क में अमन का माहौल बने और समाज में सौहार्द को बढ़ावा मिले।
ईद मुबारक!