Tuesday, December 7, 2010

यूनिकविता: संवाद ज़रूरी है

Monday, December 06, 2010



जरूरी संवादों के संग नवंबर यूनिप्रतियोगिता के परिणाम

   संक्रामक गति से से बढते बाजारीकरण के बीच जहाँ कि हमारे जीवन की मूलभूत चीजें भी उत्पादों मे तब्दील होती जा रही हों और आर्थिक ताकतें हमारे विचारों पर भी कब्जा जमाती जा रही हों, वहाँ साहित्य बाजारवाद के इन बढ़ते खतरों से परे नही है। पठनीयता के क्षरण के इस दौर मे जबकि सार्थक लेखन हाशिये पर धकेला जा रहा है, शब्दों का अपने अस्तित्व के प्रति संघर्ष और ज्यादा अहम होता जा रहा है। साहित्य की तमाम विधाओं के संग कविता भी बाजारी-अतिक्रमण के इसी संकट से जूझ रही है। नितदिन बढ़ती चुनौतियों के बीच तमाम गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं का कोमा मे पहुँचते जाना, समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं मे कविता के सिकुड़ते कॉलम, कविता-संग्रहों के संस्करणों के घटते प्रकाशन और साहित्यिक मंचों पर लोकप्रिय कविताओं का जमीनी सरोकारों से परे होते जाना कविता के इसी संक्रमण-काल के संकेत हैं।
    घटती पठनीयता के इस दौर मे इंटरनेट संचार और संवाद के सबसे त्वरित और ग्लोबल माध्यम के रूप मे उभरा है। हिंद-युग्म पर हमारा प्रयास इंटरनेट की इसी ताकत का सहारा लेते हुए सामयिक साहित्य को आम पाठक से जोड़े रखने का रहा है। हमारी मासिक यूनिप्रतियोगिता इसी की एक कड़ी है जिसकी लोकप्रियता ही इसकी सफ़लता का सबूत है। प्रतियोगिता को हर माह तमाम प्रतिभागियों और पाठकों से मिलता समर्थन हमारे लिये अत्यधिक उत्साह की बात है। यह इंटरनेट के वैश्विक पाठक वर्ग के बीच हिंदी के प्रचार के हमारे प्रयासों के सफ़लता ही है कि हिंद-युग्म के कविता पृष्ठ को प्रतिदिन एक हजार से कहीं अधिक हिट्स मिलते हैं।  मगर इंटरनेट पर सार्थक पठनीयता की मशाल जलाये रखने के लिये और वर्तमान कविता के अपने समय के साथ आम आदमी और उसके सरोकारों से जुड़े रहने के इन प्रया्सों के लिये हमारे पाठकों का समर्थन और सक्रिय मार्गदर्शन सबसे जरूरी शर्त है।

   इस बार यूनिप्रतियोगिता के नवंबर-2010 संस्करण के परिणाम ले कर हम उपस्थित हैं। परिणामों पर जाने से पहले हम सभी प्रतिभागियों और सारे पाठकों का आभार प्रकट करना चाहेंगे जिनके निरंतर समर्थन और मार्गदर्शन से यूनिप्रतियोगिता अपने 47 संस्करण निर्बाध पूरे कर सकी है। नवंबर माह मे कुल 41 कवियों ने भाग लिया। पिछले माहों की तरह इस बार भी अंक-निर्धारण दो चरणों मे किया गया। इस बार कविताओं की कुल संख्या भले ही पिछले महीनों से कुछ कम रही हो, मगर एक साथ कई समान रूप से अच्छी कविताएँ आने से निर्णायकों का काम कुछ मुश्किल रहा और कविताओं के बीच अंकों का अंतर भी कम रहा। पहले चरण के 3 निर्णायकों के दिये अंकों के आधार पर कुल 21 कविताएं दूसरे चरण मे गयीं। दूसरे चरण मे दो निर्णायकों ने उन कविताओं को उनके शिल्प, विषय की सामयिकता, कथ्य की नवीनता और स्रजनशीलता जैसे मानकों पर आँक कर उन्हे अंक दिये। इस तरह अंतिम वरीयता के आधार पर कुल 14 कविताएं हिंद-युग्म पर प्रकाशन के लिये छाँटी गयीं। नवंबर माह के यूनिकवि का सम्मान वसीम अकरम को मिला जिनकी कविता ’संवाद जरूरी है’ इस माह की यूनिकविता बनी है।

यूनिकवि: वसीम अकरम

   वैसे हिंद-युग्म के नियमित पाठकों के लिये वसीम अकरम कोई नया नाम नही हैं। इससे पहले इनकी दो कविताएं हिंद-युग्म पर प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी पहली कविता ’खाप सरपंच’ मई माह मे चौथे स्थान पर रही थी, फिर जून माह मे इनकी कविता ’दहशतगर्दी’ भी बारहवें स्थान पर प्रकाशित हुई थी। वसीम अकरम का जन्म उत्तर प्रदेश के मऊ जनपद मे हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से साहित्यिक अंग्रेजी मे स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल करने वाले वसीम बचपन से ही पठन-पाठन मे सक्रिय रहे हैं। इन्होने गज़ल, कविता, लेख, कहानी आदि कई विधाओं मे हाथ आजमाया है और इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित भी होती रही हैं। इनकी रुचि लेखन के अलावा गायन मे भी रही है और इनके शब्दों और सुरों से सजा हुआ एक एलबम ’नैना मिला के’ भी रिलीज हो चुका है और एक अन्य एल्बम पर काम चल रहा है। अभी दिल्ली मे स्वतंत्र पत्रकार की हैसियत से कार्य कर रहे हैं और मयूर विहार, दिल्ली मे निवास कर रहे हैं। इनके लेख तमाम समाचार पत्रों मे आते रहते हैं।
वसीम अकरम की ज्यादातर कविताएं हमारे बीच मौजूद सामयिक समस्याओं को अपना विषय बनाती हैं और सामाजिक विसंगतियों के मुकाबिल अपनी आवाज बुलंद करती हैं। प्रस्तुत कविता भी शोषण के खिलाफ़ वंचितों के संघर्ष के इसी स्वर को परवाज देते हुए हमारे समय के सबसे जरूरी प्रश्नों को टालने की बजाय उनका सामना करने की जरूरत पर बल देती है।
संपर्क: 9899170273


यूनिकविता: संवाद ज़रूरी है

संवाद ज़रूरी है
सुबह, शाम और रात के उन लम्हों से
जो ख़ूबसूरत होते हुए भी
कुछ के लिए
किसी भयानक टीस की तरह हैं।

संवाद ज़रूरी है
उन मुट्ठियों से
जो हक़ के लिए तनने से पहले ही
डर जाती हैं कि कहीं
पूरा हाथ ही न काट दिया जाये।

संवाद ज़रूरी है
उस घर से
जिस घर में "युवराज" के
छद्म कदम तो पड़ते हैं
मगर रोटी के चंद टुकड़ों के
लड़खड़ाते क़दम भी नहीं पड़ते।

संवाद ज़रूरी है
उस पैसे से
जो अनाज के दानों पर लिखे
ग़रीब, मज़दूर के नामों को काट कर
उस पर अमीरों का नाम लिख देता है।

संवाद ज़रूरी है
उन आर्थिक नीतियों से
जो देश को महाशक्ति तो बनाती हैं
मगर भूखों के पेट में
दो दाने भी नहीं उड़ेल पातीं।

संवाद ज़रूरी है
धर्म के उन ठेकेदारों से
जो ईंट, पत्थर से बनी बेजान इमारतों के लिए
इंसान को इंसान के ख़ून का
प्यासा बना देते हैं।

संवाद ज़रूरी है
उस आधी दुनिया से
जिसका दामन हक़ से खाली है,
और जो बाजारवाद की बलिबेदी पर
मजबूर है चढ़ने के लिए।

संवाद ज़रूरी है
उन ग़रीब के बच्चों से
जिनकी आंखों में
आसमां छूने का ख़्वाब तो है
मगर जूठे बरतन धोने के सिवा
कोई पंख नहीं है उनके पास।

संवाद ज़रूरी है
हर उस शय से
जिसकी ज़द में आकर
तहज़ीब, रवायत और इंसानियत
सब अपना वजूद खो रहे हैं।
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पुरस्कार और सम्मान-   विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता तथा हिन्द-युग्म की ओर से प्रशस्ति-पत्र। प्रशस्ति-पत्र वार्षिक समारोह में प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति मे प्रदान किया जायेगा। समयांतर में कविता प्रकाशित होने की सम्भावना।

Wednesday, December 1, 2010

प्रभात खबर १७ नवंबर, मौलाना वहीदुद्दीन खान का इंटरव्यू

प्रभात खबर २७ नवंबर,अनवर पाशा का इंटरव्यू

मजाज को नज्र एक नज़्म

तू दर्दे-दिल को आईना बना लेती तो अच्छा था
मोहब्बत की कशिश दिल में सजा लेती तो अच्छा था

बचाने के लिए तुम खुद को आवारा-निगाही से 
निगाहे-नाज को खंजर बना लेती तो अच्छा था

तेरी पल्कों के गोशे में कोई आंसू जो बख्शे तो
उसे तू खून का दरिया बना लेती तो अच्छा था

सुकूं मिलता जवानी की तलातुम-खेज मौजों को
किसी का ख्वाब आंखों में बसा लेती तो अच्छा था

ये चाहत है तेरी मरजी, मुझे चाहे न चाहे तू
हां, मुझको देखकर तू मुस्कुरा देती तो अच्छा था

तुम्हारा हुस्ने-बेपर्दा कयामत-खेज है कितना
किसी के इश्क को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

तेरी निगहे-करम के तो दिवाने हैं सभी लेकिन
झुका पल्कें किसी का दिल चुरा लेती तो अच्छा था

किसी के इश्क में आंखों से जो बरसात होती है
उसी बरसात में तू भी नहा लेती तो अच्छा था

तेरे जाने की आहट से किसी की जां निकलती है
खुदारा तू किसी की जां बचा लेती तो अच्छा था.


Sunday, November 28, 2010

मरासिम

Raghu Rai's
कभी-कभी 
एक ही तस्वीर में 
कितनी और तस्वीरें नज़र आती हैं 
एक जिंदगी के 
कई मायने हों जैसे 
और उन तस्वीरों में शक्लें 
एक दूसरे से अलग होकर भी 
कैसे जुडी होती हैं आपस में 
गोया मरासिम के लिए 
सिर्फ जिंदगी की नहीं 
जिंदगी के मायने की ज़रूरत होती है.

वक़्त


कभी वक़्त के साथ 
तो कभी वक़्त के खिलाफ
 चलता रहा,
जीता रहा जिंदगी को.
.......अब सोचता हूँ 
कि मैं वक़्त से खेलता रहा 
या वक़्त मुझसे?

Sunday, November 21, 2010

ज़रूरत

Raghu Rai's
हर एक माँ का दूध
सफ़ेद होता है क्यों? 

शायद !

हर बच्चे की जरूरत 
एक सी होती है...



Saturday, November 20, 2010

खाप सरपंच

कानून और संविधान को
ठेंगे पर रखकर
फैसला सुनाते हो तुम
मानो किसी की जिंदगी 
तुम्हारे ही हाथ में हो जैसे।

नये हो तुम
मगर तुम्हारे लिबास
बर्बर परंपराओं के 
रूढ़ धागों से बने हैं,
तुम इन्हें नहीं उतारते
कहीं तुम आदमी न बन जाओ
तुम इन्हें नहीं फेंकते
कहीं तुम आधुनिक न हो जाओ
वो इसलिए कि फिर
पुरातनपंथी और रुढ़ियों की
बंजर हो रही तुम्हारी दुकान
कौन चलायेगा तुम्हारे बाद।

सगोत्र विवाह की सज़ा के नाम पर
उस लड़की के साथ
सामूहिक बलात्कार करते हो तुम
और ये भूल जाते हो
कि वो तुम्हारे ही गांव की
तुम्हारे ही गोत्र की 
तुम्हारी ही बहन है।

यह कैसी ठेकेदारी है
परंपरा की और धर्म की 
जहां किसी ग़लती की सज़ा 
सामूहिक बलात्कार के बाद 
सरे आम मौत है।

Friday, November 19, 2010

दहशतगर्दी



अभी तो शहर को पूरी तरह से शहर होना था
अभी तो रौनक़े-बाज़ार मुग्रो-सहर होना था

अभी तो धूप की तासीर का आगाज़ होना था
अभी तो रुख़ हवा का और बेअंदाज़ होना था

अभी तो शाम के सारे मनाजिर रक्स करने थे
अभी तो माहो-अख़्तर के दिलों में रंग भरने थे

अभी तो बुलबुलों के परों का परवाज़ बाक़ी था
अभी तो शहरे-मौसिक़ी का हसीं साज़ बाक़ी था

अभी तो वक्त के सारे तकाज़े आने थे बाक़ी
अभी तो लम्हों-लम्हों के जनाज़े आने थे बाक़ी

के तुमने ख़ुश हवा में ज़हर बमों का मिला डाला
ये गलियों में मिला डाला,वो कूचों में मिला डाला

लगाकर मौत का सामान ख़ुद परवाज़ कर बैठे
बहाकर ख़ून इंसां का ख़ुदी पर नाज़ कर बैठै

न तुमने ये कभी सोचा कि ख़ूं इंसान का होगा
न तो हिंदू का ख़ूं होगा न मुसलमान का होगा

बिछाकर मज़हबी शतरंज चाल दहशत की चलते हो
जेहादी नाम से इंसानियत का सर कुचलते हो

मासूमियत का तुम जो क़त्लेआम करते हो
ख़ुदा वाले ख़ुदा की ज़ात को बदनाम करते हो

ख़ून मज़लूम का हो ये मेरा ईमां नहीं कहता
करो तुम दीन को रुसवा कोई कुर्‌आँ नहीं कहता

इस जेहाद से रब की मुहब्बत मिल नहीं सकती
बहाकर ख़ून इंसां का वो जन्नत मिल नहीं सकती

  २६-११- २००८  को मुंबई हादसे के बाद 

हम भारत के लोग तो हम हैं! – वसीम अकरम




दुनिया का कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र को भौगोलिक रूप से गुलाम बनाना नहीं चाहता, क्योंकि हर एक राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय कानून, मानवाधिकार और राष्ट्राधिकार के तहत अधिकार की बात करते हैं, जिससे जवाबदेही तय होती है। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है, वो ये कि आर्थिक रूप से गुलाम बना दो। पिछले दो सौ सालों की गुलामी के बाद भारत 63 सालों से आज़ाद है, लेकिन इन 63 सालों में आज भी वो मानसिक गुलामी लोगों के मन में है जो देश के प्रधानमंत्री के उस बयान के रूप में कभीकभार बाहर आ जाती है, जब ब्रिटेन यात्रा के दौरान मनमोहन सिंह ब्रिटेन की तारीफ करते हुए ये कहते हैं कि, 'ब्रिटिश हुकूमत ने भारत को बहुत कुछ दिया है।’ ये 'बहुत कुछ’ दो साल की गुलामी पर भारी पड़ जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा को लेकर जो हो हल्ला मचा रहा, वह भी हमारी उसी विरासत की देन है जहां गुलाम मानसिकता की ेर सारी परतें तहबद्ध हैं. दरअसल हम भारतीयों की आदत में मांगने की फितरत शुमार है. हम अपने फैसले खुद नहीं लेते. पता नहीं क्यों दूसरों पर निर्भर रहने की हमारी आदत जाती ही नहीं.
मिसाल के तौर पर, ओबामा के आने के पहले की भारतीय राजनीति और जनमानस की तस्वीरों पर गौर करें तो इस आदत की इबारत बिल्कुल साफ समझ में आ जायेगी. ''यूनियन कार्बाइड, डाउ केमिकल के खिलाफ कार्रवाई करें ओबामा. 26/11 के दोषियों को सज़ा दिलायें ओबामा। संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सीट दिलायें ओबामा. इरान पर ठोस कार्रवाई करें ओबामा. कश्मीर मसले पर मध्यस्थता करें ओबामा. पाकिस्तान में आतंकवाद पर रोक लगायें ओबामा. पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करे ओबामा. वर्ल्ड तिब्बत कांग्रेस की मांगचीन पर अंकुश लगायें ओबामा. संसद पर हमले के आरोपी को फांसी दिलायें ओबामा. सिख समुदाय की मांग 1984 के सिख दंगों के आरोपियों को न्याय के दायरे में लायें ओबामा.’’ ये हमारी मांगने की आदतों की ऐसी तस्वीरें हैं जिसे देखसमझकर आसानी से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम अपने राष्ट्र को समर्पित अपनी जिम्मेदारियों के प्रति कितने वफादार हैं.
हाल ही में हुए भारतअमेरिका के सामरिक समझौते के मद्देनजर भरत को कोई ऐसा फायदा नहीं होने वाला जिससे कि भारत की गरीबी के आंकड़ों में कुछ कमी आ जाये. यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है जो इस बात की गवाही देता है कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों के लिए वादों को तोड़ना उनकी पुरानी फितरत रही है और ओबामा ने ही इसे ही सिद्ध किया है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किसी तरह का गठजोड़ या समझौता हमेशा बरकरार नहीं रह सकता. ओबामा की नाकामयाबी की एक लम्बी फेहरिस्त है. मसलन, ओबामा चाहे होते तो अपने 27 फरवरी 2009 के उस बयान ''अमेरिका 31 अगस्त 2010 तक इराक से अपने सारे सैनिक वापस बुला लेगा’’ पर कायम रह सकते थे, मगर नहीं रह सके. जो देश ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करता हो और ग्लोबल वार्मिंग के लिए विकासशील राष्ट्रों को जिम्मेदार ठहराता हो, उसके इस रवैये से समझना चाहिए कि वो सिर्फ अपना हित देखता है. ओबामा अफगान में भी विफल रहे क्योंकि आज भी वहां अमेरिकी सेना की जमातें गश्त कर रही हैं, जबकि राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने कहा था कि वो 16 महीनों के भीतर अपने सारे सैनिकों को वापस बुला लेंगे.
ओबामा के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बनने की बुनियाद को देखें तो अंदाजा लगाया जा रहा था कि अब अमेरिका में कालेगोरे का भेद खत्म होने वाला है. अमेरिका में 14 प्रतिशत के करीब अश्वेत हैं. ओबामा ने इन अश्वेतों के लिए कुछ भी नहीं किया जिससे कि गैलाप की एक ताजा रिपार्ट के मुताबिक ओबामा की स्वीकार्यता का आंकड़ा 2008 के 31 प्रतिशत के मुकाबले 13 प्रतिशत रह गयी है. इस गिरावट का कारण पैंथर्स पार्टी से जुड़े एक अश्वेत पत्रकार मुमिआ अबु जमाल का जेल में होना है जिन्हें फिलाडेल्फिया में एक गोरे पुलिस अधिकारी डेनियल फक्नर की हत्या के झूठे केस में फांसी की सज़ा सुनायी जा चुकी है. मुमिआ को अमेरिका में बेज़ुबानों की ज़बान का दर्जा प्राप्त है. हालांकि, जनदबाव के कारण ये फांसी अभी तक नहीं हो सकी है. अहम बात ये है कि अमेरिका जिस आर्थिक मंदी से जूझ रहा है, वहां बेरोजगारी ब़ रही है, इसके लिए ओबामा कोई जरूरी कदम तक नहीं उठा पाये. अब अगर वो ये कहें कि वो दुनिया को आर्थिक मंदी से मुक्त करना चाहते हैं तो ये बहुत ही हास्यास्पद लगता है. लेकिन इसके बावजूद भी हम तो हम हैं. विशुद्ध भारतीय! जिसके बारे में बहुत पहले साहित्य पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद ने कहा था कि ''हम भारतीय रेलगाड़ी के डब्बे हैं जिन्हें कोई इंजन खींचता है’’.
बुश हो या ओबामा अमेरिकी नीतियां हमेशा अमेरिकी हितों के रूप में कार्य करती हैं. यही कारण है कि अमेरिका के लिए दूसरे राष्ट्रों से सामरिक, आर्थिक समझौतों की ये नीतियां सिर्फ उन्हीं के लिए तर्क संगत लगती हैं. ऐसे में भारत अमेरिका के लिए एक बाजार है, जहां वो अपनी सौदागरी करना चाहता है, न कि साझेदारी. साझेदारी शब्द का प्रयोग तो कूटनीतिक है जिसे अमेरिका शाब्दिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता चला आ रहा है. आज भारत ये मानता है कि अमेरिका से हमारे रिश्ते इस सौदेबाजी से मजबूत होंगे, तो शायद गलत होगा, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संबंध अपनेअपने देशों के हितों पर निर्भर करता है. अमेरिका अपना हित साधने के लिए ही भारत, पाकिस्तान और अमेरिका के मजबूत रिश्तों की दुहाई देता है, क्योंकि वो जानता है कि जिस तरह से चीन की ताकत ब़ढ रही है, उसके मद्देनजर पाकिस्तान ऐसा देश है जहां से वो अपनी सैनिक गतिविधियों को अंजाम दे सकता है. यही कारण है कि ओबामा ने भारत यात्रा के दौरान पाकिस्तान के कामयाब राष्ट्र बनने की बात भारत के हित में की.