Saturday, May 9, 2015

मां के हाथों की मस

चाहे जितनी भी ने’अमतें भर लूं
चाहे जितना सिकमसर हो लूं
निवाला पेट से आगे नहीं जा पाता कोई
और न पेट ही भरता है ख़ुद से खाने में

उम्र बढ़ने का ये ख़सारा है
कि बरकतें घटती गयी हैं दिन-ब-दिन
निवाले की बड़ी साइज़ भी अब
भूख की शिद्दत का पास नहीं रख पाती

मेरी ज़ुबां में ‘नामू-नामू’ कहते हुए
मां खिलाती थी जब बचपन में
तो जिस्म के सारे हिस्से
रोग़न हो जाया करते थे एक निवाले से

आखि़री निवाले के बाद जब कहती थी मां
चल उठ, खड़ा हो जा तो ज़रा
कि खाना हाथ-पांव तक चला जाये
तो हड्डियों को मेरी एक उम्र मिल जाती थी जैसे

मां के हाथों की मस थी कि हाथी-घोड़े तक के
सारे निवाले चट कर जाता था पल में
लेकिन अब तो, ख़ुद के निवाले भी नहीं खा पाता
और न पेट ही भरता है खुद से खाने में

        चाहे जितना सिकमसर हो लूं
        निवाला पेट से आगे नहीं जा पाता कोई...



Friday, May 8, 2015

मदर्स डे पर एक कविता

अंतिम जन के फरवरी अंक में छपी मेरी कविता