Sunday, October 30, 2011

अब एक और नज्म *शब*


न शब-ए-वस्ल, न शब-ए-फिराक, न शब-ए-फुरकत
न शब-ए-गम, न शब-ए-उफ, न शब-ए-हिजरत।
न शब-ए-जां, न शब-ए-जाना, न शब-ए-जान-ए-जहां
न शब-ए-दम, न शब-ए-खम, न शब-ए-कुरबत।।

न शब-ए-इश्क, न शब-ए-मुश्क, न शब-ए-आरजू
न शब-ए-उन्स, न शब-ए-शौक, न शब-ए-जुस्तजू।
न शब-ए-यार, न शब-ए-प्यार, न शब-ए-आशना
न शब-ए-ऐर, न शब-ए-गैर, न शब-ए-तू-ही-तू।।

न शब-ए-हर्फ, न शब-ए-लफ्ज़, न शब-ए-तहरीर
न शब-ए-आस, न शब-ए-प्यास, न शब-ए-तदबीर।
न शब-ए-रंग, न शब-ए-नूर, न शब-ए-हिकमत
न शब-ए-आह, न शब-ए-अश्क, न शब-ए-तकदीर।।

वल्लाह कुछ भी नहीं, फिर भी ये बदगुमानी क्यों?
तू गर मिसाल है तो मिसाल-ए-नातवानी क्यों?
तू गर हुस्न है तो है बेनकाब क्यों आखिर?
तू गर इश्क है तो बे-फैज-ए-याब क्यों आखिर?

Saturday, October 29, 2011

एक और नज़्म *शब*


मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


   *पास उसके एक चेहरा-ए-चांद भी है,
     चांदनी जिसके रुखसार से निकलती है।
     टिमटिमाते हैं निगाहों के दो ताबिश तारे, 
     हर तसादुम पे शब-ए-आरजू मचलती है।।

               उसके गेसू जो ढलकते हैं कभी शानों पर,
               पिघलकर शाम बे-अंदाज हुआ करती है।
               मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
               आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


   *वो नकूश गो शबाब-ए-शौक-ए-अंगड़ाई,
     वो जिस्म है कि बादलों की तर्जुमानी है।
     वो हुस्न-ए-मुजस्सम, वो तब-ओ-ताब-ए-बदन,
     वो लोच है या किसी बर्क की जवानी है।।

               दो लब कि जैसे शोखी-ए-गुल-ए-नग्मा,
               गर खुलें तो गजल ठहर जाया करती है।
               मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
               आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


Thursday, October 27, 2011

शब-ए-दिवाली




शब-ए-दिवाली है या फिजा-ए-आतिश-ए-शब है।
ये आतिशबाजियां है या तेरा हुस्न जगमगाता है ।।

मिला जो शब से आब, हुआ शबाब मुकम्मल।
तेरा शुक्र तु शब है, तो मुझे भी आब बना दे।।


दिल तंग चरागों के पुरनूर रहे शब भर
पर देख उजालों को बेनूर सुबह दम थे।
समझे थे जिन्हें मोती हम शब के अंधेरे में
देखा जो सुबह तो सब कतरा-ए-शबनम थे।।

Saturday, October 22, 2011

एक नज़्म ‘शब’


न तो इकरार की ‘शब’ है न तो इनकार की ‘शब’ है।
वल्लाह ‘शब’ है या कि इश्क-ए-बेकरार की ‘शब’ है।।

     तुम्हारे शहर से तो बच के अब जाना नहीं मुमकिन।
     ये खंजरों का दिन और ये तलवार की ‘शब’ है।।

घनेरी जुल्फ में रोशन रुख-ए-महताब की चमक।
नूर की बूंद है या कि गुल-ए-रुखसार की ‘शब’ है।।

     निगाह-ए-नाज पे पल्कों का झिंगुर गीत गाता है।
     के जैसे छुट्टियों की सुरमयी बुधवार की ‘शब’ है।।

छुपी शीशे के परदे में कयामतखेज सी आंखें।
उठे तो इश्क की सुबह, झुके तो प्यार की ‘शब’ है।।

     मैं शहर में उसके एक दहकते दिन की तरह हूं।
     और वो खयाल में मेरे एक आबशार की ‘शब’ है।।

ये चांदनी का बदन और उसपे शोखी-ए-खुश्बू।
मचल रही है गोया बादे-नौ-बहार की ‘शब’ है।।

     यूं इश्क की रुसवाइयों का मुन्तजिर होकर।
     मैं तन्हा ही बहुत खुश हूं कि इंतजार की ‘शब’ है।।

ये लब हैं या कि ‘अकरम’ की गजल के एक-दो मिसरे।
ये लरजिश है या आहट सी कोई इजहार की ‘शब’ है।।

Wednesday, October 19, 2011

कबसे हसरत थी


कबसे हसरत थी मुझे


एक मासूम सी ख्वाहिश थी

एक अदना सा तकाजा था

एक छोटी सी इल्तिजा थी

एक बोसीदा सा तसव्वुर था

एक सहमी सी आरजू थी

एक ठहरा सा वलवला था


कि तुम किसी ‘शब’

मेरी महफिल-ए-नाज में

यूं भी आते

यूं भी आते और

अपनी गुदाज बाहों में भरकर

मेरे रूहानी लम्स को जीते।


या किसी ‘शब’ तुम 

यूं भी आते और 

रूखी सी फिजा को छूकर

उसे ‘नम’ करते।


तो मुझे

अपने जिस्म-ओ-जां की

सभी राहतें

तुम्हें सौंप देने में

तकल्लुफ न होता जरा भी ।


कबसे हसरत थी मुझे

कबसे?

शायद! अभी से!

शायद! कल से!

या शायद! अजल से!


कबसे हसरत थी मुझे...

प्रभात खबर 15 अक्तूबर, कमर आगा का इंटरव्यू


Monday, October 3, 2011

जेहनो-दिल का रावण


इस बार दशहरे में फिर
हम जलायेंगे रावण
शायद इस बार
भ्रष्टाचार रूपी रावण की बारी है
उसे जलाकर हम मनायेंगे जश्न
बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न।

बुराई के बजाय
बुराई के प्रतीक को जलाकर
कितना खुश होते हैं हम
और अगली सुबह से ही
अपने कारोबार को फिर
जीने लगते हैं वैसे
जैसे रोज जिया करते थे इससे पहले, 
शराब पीकर सडक पर
बेवजह रिक्शे वाले को डांटकर
उसे अन्ना बनने का 
बेवकूफी भरा मशवरा दे डालते हैं।

खुद में बुराई ढूंढने की बजाय
दुनिया को बुरा कहने से 
कभी नहीं हिचकते हम
कंधे पर गुनाहों की पोटली लिये
दर-ब-दर भटकते हैं
मगर दूसरे को गाली देने से 
बाज नहीं आते कभी भी।

कागजी रावण तो
मर जाता है हर साल
मगर 
हमारे जेहनो दिल में रोज
जन्म लेता है एक रावण।

जिस दिन हम खुद को
गाली देना सीख लेंगे
उस दिन हमारे दिल का रावण भी
मर जायेगा खुद-ब-खुद।