कबसे हसरत थी
कबसे हसरत थी मुझे
एक मासूम सी ख्वाहिश थी
एक अदना सा तकाजा था
एक छोटी सी इल्तिजा थी
एक बोसीदा सा तसव्वुर था
एक सहमी सी आरजू थी
एक ठहरा सा वलवला था
कि तुम किसी ‘शब’
मेरी महफिल-ए-नाज में
यूं भी आते
यूं भी आते और
अपनी गुदाज बाहों में भरकर
मेरे रूहानी लम्स को जीते।
या किसी ‘शब’ तुम
यूं भी आते और
रूखी सी फिजा को छूकर
उसे ‘नम’ करते।
तो मुझे
अपने जिस्म-ओ-जां की
सभी राहतें
तुम्हें सौंप देने में
तकल्लुफ न होता जरा भी ।
कबसे हसरत थी मुझे
कबसे?
शायद! अभी से!
शायद! कल से!
या शायद! अजल से!
कबसे हसरत थी मुझे...
वाह...
ReplyDeletehasaraton se itne wayade nahi kiya karte bhai dard dil ke karib hota hai....
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