मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।
*पास उसके एक चेहरा-ए-चांद भी है,
चांदनी जिसके रुखसार से निकलती है।
टिमटिमाते हैं निगाहों के दो ताबिश तारे,
हर तसादुम पे शब-ए-आरजू मचलती है।।
उसके गेसू जो ढलकते हैं कभी शानों पर,
पिघलकर शाम बे-अंदाज हुआ करती है।
मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।
*वो नकूश गो शबाब-ए-शौक-ए-अंगड़ाई,
वो जिस्म है कि बादलों की तर्जुमानी है।
वो हुस्न-ए-मुजस्सम, वो तब-ओ-ताब-ए-बदन,
वो लोच है या किसी बर्क की जवानी है।।
दो लब कि जैसे शोखी-ए-गुल-ए-नग्मा,
गर खुलें तो गजल ठहर जाया करती है।
मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।
मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
ReplyDeleteआजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।
वाह...बहुत खूब....