Saturday, October 29, 2011

एक और नज़्म *शब*


मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


   *पास उसके एक चेहरा-ए-चांद भी है,
     चांदनी जिसके रुखसार से निकलती है।
     टिमटिमाते हैं निगाहों के दो ताबिश तारे, 
     हर तसादुम पे शब-ए-आरजू मचलती है।।

               उसके गेसू जो ढलकते हैं कभी शानों पर,
               पिघलकर शाम बे-अंदाज हुआ करती है।
               मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
               आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


   *वो नकूश गो शबाब-ए-शौक-ए-अंगड़ाई,
     वो जिस्म है कि बादलों की तर्जुमानी है।
     वो हुस्न-ए-मुजस्सम, वो तब-ओ-ताब-ए-बदन,
     वो लोच है या किसी बर्क की जवानी है।।

               दो लब कि जैसे शोखी-ए-गुल-ए-नग्मा,
               गर खुलें तो गजल ठहर जाया करती है।
               मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
               आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।


1 comment:

  1. मेरे दरीचे में अब जरा संभलकर झांकना।
    आजकल यहां एक *शब* रहा करती है।।
    वाह...बहुत खूब....

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