Friday, November 4, 2011

शब-ए-आरजू



पहले, शब के अंधेरे से 
डर लगता था मुझे,
पर अब, नहीं लगता।
पहले, एक जुंबिश सी उठती थी
तनहाई की,
पर अब नहीं उठती।
पहले, शाम के बेनूर साये
मेरी शब-ए-आरजू को
तारीक बना देते थे,
पर अब नहीं बनाते।
पहले, मेरी रूह
मेरा दिल और मेरा जिस्म
अलग-अलग
टुकड़ों में रहा करते थे,
पर अब नहीं रहते।
पता है क्यों?
कल शब एक ‘शब’ ने
चुपके से कह दिया मुझसे-
'तुम मेरे दिन के ऐसे ‘सूरज’ हो
जिस पर अपनी जुल्फें डाल कर
मैं ‘शब’ बनी हूं...'



1 comment:

  1. बहुत खूबसूरत , बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.

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