पहले, शब के अंधेरे से
डर लगता था मुझे,
पर अब, नहीं लगता।
पहले, एक जुंबिश सी उठती थी
तनहाई की,
पर अब नहीं उठती।
पहले, शाम के बेनूर साये
मेरी शब-ए-आरजू को
तारीक बना देते थे,
पर अब नहीं बनाते।
पहले, मेरी रूह
मेरा दिल और मेरा जिस्म
अलग-अलग
टुकड़ों में रहा करते थे,
पर अब नहीं रहते।
पता है क्यों?
कल शब एक ‘शब’ ने
चुपके से कह दिया मुझसे-
'तुम मेरे दिन के ऐसे ‘सूरज’ हो
जिस पर अपनी जुल्फें डाल कर
बहुत खूबसूरत , बधाई.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.