सही कहा तुमने
अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी
और न फिर से
कोई दीन-ए-इलाही पैदा होगा
जहां धर्मों से ऊपर होता है एक इंसान।
मगर मेरे दोस्त, तुम यह भूल गये
के फिर कोई हुमायूं
किसी कर्मावती की हिफाज़त की
कसम नहीं खायेगा कोई
और न फिर कहीं किसी
रक्षाबंधन की बुनियाद ही पड़ेगी...
सही कहा कि अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी।
सिकंदर अपनी बेटी तुम्हें दे जायेगा या नहीं
यह तो मुझे नहीं मालूम
पर इतना जरूर मालूम है कि तुम्हारी बेटियां
भले ही आसाराम जैसों की शिकार हो जायें
उन्हें उस राक्षस के पास भेजने में
तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा
क्योंकि वह नुमाइंदा है तुम्हारे धर्म का।
बलत्कृत हो रही हैं
तो होती रहें ये लड़कियां
तुम्हारे मंदिर-ओ-मस्जिद तो सलामत हैं!
खुदकुशी कर रही हैं, तो करती रहें
तुम्हारे दीन-ओ-धरम तो सालिम हैं!
तुम्हारे खुद के हाथों
अगर वो मर रही हैं, तो मरती रहें
तुम्हारे किताबों पर तो कोई आंच नहीं!
उनके मरने, लुट जाने से
तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़नेवाला
क्योंकि यह तुम्हारे धर्म का मामला नहीं है।
दरअसल, ग़लती तुम्हारी नहीं है
क्योंकि, तुम्हारी धर्म की ठेकेदारी
औरत की इज्ज़त पर ही टिकी है
तुम्हारे लिए औरतें और लड़कियां
महज आलू-प्याज़ की ऐसी बोरियां हैं
जिन्हें तुम अपने मन-भाव में
धर्म-जाति, शरिया-गोत्र की मंडियों में
बेझिझक बेच सकते हो
जो चाहे, क़ीमत लगा सकते हो उनकी
और इसी क़ीमत से तुम
पुरुष सत्ता के भुरभुरे खंभों को
मज़बूत बनाते रहने की
नाकाम कोशिशें करते रहते हो।
कितने ओछे और कमज़ोर हैं तुम्हारे धर्म
जो मासूम प्रेम की चुनौती भी स्वीकार नहीं कर पाते
और गिरने लगते हैं भरभराकर
तुम इसमें दब के मर न जाओ
इसलिए औरत का सहारा लेते हो
कितनी कमज़र्फ है तुम्हारी मर्दानगी
जिसकी इज्ज़त की हिफाज़त भी नहीं कर सकती
उसी के सहारे
तुम अपने धर्मों की ठेकेदारी करते हो।
बिल्कुल सही कहते हो तुम मेरे दोस्त
अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी...
अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी
और न फिर से
कोई दीन-ए-इलाही पैदा होगा
जहां धर्मों से ऊपर होता है एक इंसान।
मगर मेरे दोस्त, तुम यह भूल गये
के फिर कोई हुमायूं
किसी कर्मावती की हिफाज़त की
कसम नहीं खायेगा कोई
और न फिर कहीं किसी
रक्षाबंधन की बुनियाद ही पड़ेगी...
सही कहा कि अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी।
सिकंदर अपनी बेटी तुम्हें दे जायेगा या नहीं
यह तो मुझे नहीं मालूम
पर इतना जरूर मालूम है कि तुम्हारी बेटियां
भले ही आसाराम जैसों की शिकार हो जायें
उन्हें उस राक्षस के पास भेजने में
तुम्हें कोई ऐतराज़ नहीं होगा
क्योंकि वह नुमाइंदा है तुम्हारे धर्म का।
बलत्कृत हो रही हैं
तो होती रहें ये लड़कियां
तुम्हारे मंदिर-ओ-मस्जिद तो सलामत हैं!
खुदकुशी कर रही हैं, तो करती रहें
तुम्हारे दीन-ओ-धरम तो सालिम हैं!
तुम्हारे खुद के हाथों
अगर वो मर रही हैं, तो मरती रहें
तुम्हारे किताबों पर तो कोई आंच नहीं!
उनके मरने, लुट जाने से
तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़नेवाला
क्योंकि यह तुम्हारे धर्म का मामला नहीं है।
दरअसल, ग़लती तुम्हारी नहीं है
क्योंकि, तुम्हारी धर्म की ठेकेदारी
औरत की इज्ज़त पर ही टिकी है
तुम्हारे लिए औरतें और लड़कियां
महज आलू-प्याज़ की ऐसी बोरियां हैं
जिन्हें तुम अपने मन-भाव में
धर्म-जाति, शरिया-गोत्र की मंडियों में
बेझिझक बेच सकते हो
जो चाहे, क़ीमत लगा सकते हो उनकी
और इसी क़ीमत से तुम
पुरुष सत्ता के भुरभुरे खंभों को
मज़बूत बनाते रहने की
नाकाम कोशिशें करते रहते हो।
कितने ओछे और कमज़ोर हैं तुम्हारे धर्म
जो मासूम प्रेम की चुनौती भी स्वीकार नहीं कर पाते
और गिरने लगते हैं भरभराकर
तुम इसमें दब के मर न जाओ
इसलिए औरत का सहारा लेते हो
कितनी कमज़र्फ है तुम्हारी मर्दानगी
जिसकी इज्ज़त की हिफाज़त भी नहीं कर सकती
उसी के सहारे
तुम अपने धर्मों की ठेकेदारी करते हो।
बिल्कुल सही कहते हो तुम मेरे दोस्त
अब कोई जोधाबाई
किसी अकबर के घर नहीं जायेगी...
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