Friday, January 13, 2012

मंडी हाउस की शाम


मंडी हाउस की शाम
रोज़ एक नया रंग लेके आती है
संगीत, साहित्य, कला
और संस्कृति के पैरोकार
रोज़ इकट्ठा होते हैं यहां
सुरों, लफ़्ज़ों, अदाकारी के
खूबसूरत पौदों को
दोस्तों के क़हक़हों से सींचते हैं
स्नैक्स और चाय की चुस्कियों से
क्कविता फूट के निकलती है जब
‘फिक्की’ सर उठाये सुनने लगता है
मगर गाडि़यों के शोर में
हर्फ नहीं पहुंच पाते उस तक
और कविता
वापस लौट आती है उनके होठों पर।

त्रिवेणी सभागार, एनएसडी और
रविंद्र भवन की कुर्सियों पर बैठकर कविता
खबरचियों से कहती है
कल ‘प्रेमचंद’ आये थे
अपने हाथों में ‘कफ़न’ और ‘गोदान’ लिये
आज शायद टैगोर आयेंगे
बंगाली मार्केट में काफी पीने
और कल हो सकता है
‘ग़ालिब के ख़याल’ की दावत है
तो वो भी आयें।

मंडी हाउस की शाम
सचमुच!
रोज़ एक नया रंग लेके आती है....


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