Tuesday, January 17, 2012

मशहूर अदीब चित्रा मुदगल साहिबा से एक मुलाक़ात


जब हम घर से दूर होते हैं तो हमारा घर हमें अपनी तरफ खींचता है... ऐसा क्यों?
          जब मैं मुंबई में रहती थी, तब ऐसा लगता था कि वहां मनाया जाने वाला कोई भी त्यौहार मुझे अपने घर वापस जाने के लिए कह रहा हो. गणेश उत्सव चल रहा है, लोग पूजनोत्सव में लगे हुए रहते थे, मगर मेरा मन मेरे गांव की ओर भागता था. मैं यही सोचती थी कि मेरे घर पर भी आज गणेश पूजनोत्सव की धूम होगी और मेरे सभी घर वाले एक साथ मिलकर पूजन कर रहे होंगे. उस वक्त मेरे घर की सभी पुरानी यादें ताजा हो जाती थीं और मैं बिल्कुल उदास हो जाती थी. इसका एक ही कारण है, यह कि मेरी यादों में संस्कृति की जड़ें बहुत गहरी थीं. सचमुच संस्कृति और परंपराएं हमें अपनी जड़ों से बांधे रखती हैं.

हमारी यादों के लिए हमारी प्रकृति कितनी जिममेदार होती है?
             मनुष्य एक ऐसा सामाजिक प्राणी है, जो सामाजिकता से विच्छिन्न होकर जीने की ललक खोने लगता है. क्योंकि जिस समाज में वह जीता है, वहां की प्रकृति के साथ उसका साहचर्य होता है, एक गहरा नाता होता है. उस प्राकृतिक परिवेश में रहते हुए जो संस्कार उसके अंदर आते हैं, वही उसकी सांस्कृतिक जडें होती हैं. हालांकि, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एकांतवासी होते हैं, लेकिन जनविहीनता की स्थिति में वे भी अवसादग्रस्त हो जाते हैं. उनके अवसादग्रस्त होने का कारण यह है कि उनकी संस्कृति उन्हें अपनी जड़ों की ओर खींचती तो है, लेकिन वह उससे जुड़ नहीं पाता है. हमारी संस्कृति ही हमें बांधे रखती है. 

शहर और गांव की संस्कृति में बुनियादी फर्क क्या है?
             भारतीय जनमानस अपनी सामाजिकता को कहीं न कहीं सांस्कृतिक पक्ष के भीतर महसूस करता है. क्योंकि हमारी जड़ें हमारे परिवार में होती हैं. भारतीय परिवार की संस्कृति एक साझी संस्कृति है. इस ऐतबार से दो बातें हो सकती हैं. एक तो भारतीय शहरों में संस्कृति तो है, लेकिन साझी संस्कृति नहीं है. जबकि, भारत का ग्रामीण व्यक्ति साझी संस्कृति की विरासत को जीता है. वह उससे दूर होते ही छटपटाने लगता है. यही छटपटाहट उसे उसके घर-परिवार की ओर खींचती हैं. वह खुद को उस अविच्छिन्नता के परिवेश से बाहर निकालने की सोचने लगता है. इसी सोचने के बीच एक ऐसा मौका आता है जब उसे घर जाने की जरूरत बड़ी शिद्दत से महसूस होती है, तब वह भाग के घर पहुंच जाता है. 

हमारी संस्कृति और परम्पराएं खोती जा रही हैं. वजह क्या है?
            आज का भारत एक ऐसा भारत है जिसमें उदारीकरण, वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के पैबंद लग गये हैं. इन्हीं कारणों के चलते हम किसी गांव यह शहर के नहीं रह गये हैं. हमारी संस्कृति में बाहरी संस्कृतियों का ऐसा फ्यूजन हो गया है जिससे हम खुद से जरा सा दूर होने लगे हैं. यहीं रहते हुए हम खुद को तलाशने लगे हैं कि आखिर हम हैं कहां? यह फ्यूजन की ऐसी स्थिति है जिससे हम एक विकल्प तो जरूर ढूंढ लेते हैं, लेकिन विडंबना देखिये कि हम उनके साथ भी नहीं हो पाते. क्योंकि तब हम अपनी सामाजिकता से कट जाते हैं. हम अपनी सांस्कृतिक विरासत से विमुख हो जाते हैं. यह तो जगजाहिर है कि दूरी चाहे जिस चीज की हो, यादों को जन्म देती है. इन यादों में सबसे पहले आता है हमारा घर-परिवार. उसके बाद वहां की प्रकृति, संस्कृति, परंपरा और पास-पड़ोस के भाई-बंधु. हिंदुस्तान अब धीरे-धीरे एक कंक्रीट के जंगल में तब्दील होता जा रहा है. इससे हमारे समाज में जो सबसे बडा नुकसान हुआ है, वह है संवेदना का क्षरण. संवेदना का क्षरण समाज में कई तरह की विकृतियों को जन्म देता है. इससे जड़ें कमजोर होती हैं और हमारे काम करने की ऊर्जा घटने लगती है. इसलिए जरूरी है कि हमारी संवेदनशीलता बरकरार रहे. हम इसे बरकरार रखकर ही अपनी संस्कृति को बचाये रख सकते हैं. 

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