मेट्रो पर एक उदास लड़की को
देखकर ये ख़याल आता है
चांद से उसके हंसी चेहरे पर
क्यों ये रंग-ए-मलाल आता है
ज़ुल्फ़ को शानों पे गिराये हुए
कोई नंबर मिला रही है कहीं
ऐसे अंदाज़ में परीशां है
जैसे ख़ुद को भुला रही है कहीं
खोई-खोई सी आलम-ए-नौ में
जाने वो क्यों उदास बैठी है
या किसी कि तलाश है उसको
होके वो बेशनास बैठी है
कान में नगमा-ए-साहिर की धुन
कह रही बात एक ज़रूरी है
अजनबी बनने का तकाज़ा है
पर मुलाक़ात एक ज़रूरी है
कौन है, कैसा है, ये क्या मालूम
के जिसे अजनबी बनाना है
बस एक बार जिससे मिलना है
आखि़री वादा एक निभाना है
सोचता हूं कि पूछ लूं उससे
ये इंतज़ार का आलम क्यों है
जिसके होठों पे फूल खिलते हों
आंख उसकी ये पुरनम क्यों है
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