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बुकशेल्फ में प्रदर्शन के लिए लगी किताबों में लिजेंड्री सत्यजीत रे पर सबसे ज्यादा किताबें मौजूद थीं. क्लासिक सिनेमा की दृष्टि से भारतीय सिनेमा में रे का महत्वपूर्ण स्थान रहा है. जिस तरह से बालीवुड में क्लासिक सिनेमा को अपने साहित्यिक योगदान से गुरु रवींद्र नाथ टैगोर और प्रेमचंद ने प्रभावित किया है, ठीक वैसे ही सत्यजीत रे ने भी किया है. आक्सफोर्ड प्रेस की 'फिल्मिंग फिक्शन-टैगोर, प्रेमचंद एंड रे' नामक किताब को खरीदने और उसकी उपलब्धता के लिए दर्शक मेला व्यवस्थापकों से आग्रह करते नजर आये. सत्यजीत रे की फिल्मी जिंदगी के अनछुए पहलुओं को बयां करती किताब 'स्पीकिंग आफ फिल्म्स' सुधी पाठकों के हाथों में बारहा आ जाती थी. इसी सिलसिले में एक दूसरी किताब 'डीप फोकस-रिफ्लेक्शन आन सिनेमा' में सत्यजीत रे की सिनेमाई कलात्मकता और दूरदर्शिता का जिक्र शामिल है. इसकी भूमिका मशहूर निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल की कलम से है. हिंदी सिनेमा की बात हो और गुरुदत्त का जिक्र न आये, ऐसा कैसे हो सकता है. 'लीजेंड आफ इंडियन सिनेमा-गुरुदत्त' नामक किताब में गुरुदत्त की शख्सियत और अदाकारी की तमाम बारीकियां मौजूद हैं, जिसके लिए उन्हें भारतीय सिनेमा का लिजेंड्री कलाकार माना जाता है. गुरुदत्त की शख्सीयत को हिंदी सिनेमा के कवि के रूप में भी जाना जाता है, जिसे बालीवुड को करीब से देखने वाली लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर ने अपनी किताब में बहुत बारीकी से बयां किया है. ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार, सदाबहार हीरो देवानंद, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और कई फिल्मी हस्तियों के जीवन को दर्शाती किताबें खासा आकर्षित करती रहीं और दर्शक उनसे रूबरू होकर खुशी का एहसास करते रहे.
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कहते हैं कि बेहतर जिंदगी का रास्ता बेहतर किताबों से होकर जाता है, क्योंकि किताबें देशकाल और समाज का आईना होती हैं, जिसमें उसका इतिहास-भूगोल नजर आता है. किताबें अपने पाठकों से संवाद करती हैं. हालांकि, यही किताबें जब सिनेमा के परदे पर उतरती हैं तो ये भी अपने देखने वालों से संवाद ही करती हैं, लेकिन माध्यमों के फर्क के कारण कई दृश्य पाठकों तक हू-ब-हू पहुंच नहीं पाते. सिनेमा की इसी नाकामी में एक तरह से किताबों की कामयाबी छिपी है. सिनेमा में जो छूट जाता है उसे किताबें बयां करती हैं और उससे जुडे अनछुए पहलुओं को हमारे सामने लाती हैं.
इसे इत्तेफाक ही कहा जा सकता है कि इस साल की शुरुआत में हमने दिल्ली के भारत की राजधानी बनने के सौ साल पूरा होने का जश्न मनाया था और अब इसी साल के अंत में हिंदी सिनेमा के भी सौ साल पूरे हो जायेंगे. इस ऐतबार से 2012 हिंदी सिनेमा का शताब्दी वर्ष भी है. इसीलिए इस बार दिल्ली में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित 20वें अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले का थीम ’भारतीय सिनेमा‘ रखा गया था. एशिया के सबसे बड़े प्रदर्शनी स्थल-प्रगति मैदान, दिल्ली में 25 फरवरी से 4 मार्च तक चले इस मेले में भारतीय सिनेमा और सिनेमा पर आयी किताबों की अद्भुत छटा देखने को मिली. भारत में सिनेमा और साहित्य के बीच एक अनूठे संबंध को दर्शाती भारतीय सिनेमा पर तकरीबन 80 प्रकाशकों की हिंदी, अंगरेजी, उर्दू एवं अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में चुनिंदा 400 किताबों का प्रदर्शन किया गया. सिनेमा को केंद्र में रखकर हाल नंबर सात में थीम पवेलियन बनाया गया था, जहां इन किताबों के साथ-साथ सिनेमा संबंधी उपकरण-कैमरा, लाइट, रील, छतरी, प्लेयर, रिकार्ड, ग्रामोफोन और भारतीय फिल्मों के ब्लैक एंड व्हाइट पोस्टरों को सलीके से सजाया गया था. मोबाइल, हैंडी कमरे, लैपटाप और सीडी-डीवीडी के इस दौर के दर्शकों के लिए थीम पवेलियन के वे उपकरण किसी अद्भुत नजारे से कम नहीं थे. दर्शकों के बीच सरगोशियां भी हो रही थीं कि शायद हमारी अगली पीढ़ी इस अद्भुत नजारे से महरूम रहेगी. उन दर्शकों में किताबों के शौकीन विदेशी मेहमान भी शामिल थे. सिनेमा थीम की जानकारी पाकर जर्मनी से आये भारतीय फिल्मों के दीवाने स्टीफेन हाक और कैटी हाक दंपति ने बताया कि, 'भारतीय फिल्मों को देखकर हमने भारतीय सिनेमा यानि बालीवुड के बारे में उतना नहीं जाना, जितना उसके बारे में आयी किताबें पढकर जाना.'
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सिनेमा पर किताबों की पठनीयता के बीच एक बात बहुत ही काबिलेगौर नजर आयी कि फिल्मी दर्शक जब पाठक बनते हैं, तो वे परदे पर नजर आने वाले नायाकों की अपेक्षा परदे के पीछे के तमाम किरदारों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर एक फिल्म के निर्माण में किन लोगों का कितना योगदान होता है. क्योंकि परदे पर दिखने वाले कलाकारों के बारे में उन्हें ज्यादा जानने की जरूरत नहीं होती. यही वजह है कि रूपा प्रकाशन के स्टाल पर हर वक्त फिल्म सेक्शन में खडे होने की जगह ही नहीं होती थी. धक्का-मुक्की के बीच लोग किताबों को खरीदने के लिए बेताब थे. क्योंकि रूपा ने परदे के पीछे काम करने वाले बालीवुड के लीजेंड निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार, गायक, पटकथा लेखक, कैमरामैन और तकनीशियन पर एक सीरीज प्रकाशित की है. इन शख्सीयतों की जिंदगी की ऐसी तसवीर, जिसे फिल्म देखते हुए ढूंढना बहुत मुश्किल है, को रूपा ने इस सीरीज में शामिल कर सिनेमा और साहित्य दोनों की दृष्टि से बहुत ही सराहनीय काम किया है. इसी कड़ी में इस साल उर्दू भाषा से भी कई किताबें आयी, जिनमें सज्जाद राशिद की 'इंडियन सिनेमा' खासी चर्चित रही. अवराक, अदबिस्तान और अर्शिया जैसे उर्दू के नये प्रकाशनों में बालीवुड पर कई किताबें देखने को मिलीं. उर्दू प्रकाशकों का कहना है कि कुछ साल पहले तक वे गजल, नज्म, कहानी और उपन्यासों के अलावा सिनेमा पर किताबें छापने से हिचकते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. उर्दू पाठकों को भी अब सिनेमा पर किताबें पसंद आने लगी हैं. 'जौहर-ए-अदाकारी' और 'उर्दू और बालीवुड' के स्टाक से बाहर होने से इस बात को समझा जा सकता है. उर्दू प्रकाशनों में एक खास बात यह नजर आयी कि वे सिनेमा के अंदर तहजीब और ज़ुबान को लेकर हमेशा संवेदनशील रहते हैं और उनको सजाने-संवारने की आवाज बुलंद करते रहते हैं.
साहित्य एक मौन अभिव्यक्ति है और सिनेमा एक ध्वनित अभिव्यक्ति है. साहित्य जब परदे पर चलता है, बोलता है और गाता है, तब यह सिनेमा बन जाता है. लेकिन यह कोई जरूरी नहीं कि सिनेमा की मौन अभिव्यंजना भी साहित्य बन जाये. सिनेमा की खामोशी का जिक्र हुआ नहीं कि 1931 में बनी पहली फिल्म 'आलम आरा' की तसवीर आंखों में मचल पड़ी. सिनेमा थीम पवेलियन में दाखिल होते ही गेट के ठीक ऊपर लगे फिल्म 'आलम आरा' के उस पोस्टर को देखकर उसकी अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है. भारतीय सिनेमा यानि बालीवुड का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है. ऐसे में जब हम उस तसवीर को देखते हैं तो सौ साल पहले शुरू हुई उस सिनेमाई परंपरा को देखते हैं, जिसके पहलू में क्लासिक फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है. इत्तेफाक देखिये कि उस क्लासिक जीनत को देखने के हम कितने शुक्रगुजार हैं, जिसका मुकाबला आज की अति आधुनिक और तकनीक से लबरेज फिल्म भी नहीं कर पाती.
सिनेमा थीम पवेलियन में तीन चीजें बहुत अहम थीं, जिसको लेकर दर्शक खासे उत्साहित रहे. एक तो एरीफ्लेक्स-2सी माडल कैमरा, जिससे तपन सिन्हा, सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और उत्तम कुमार जैसे लिजेंड्री निर्माता-निर्देशकों ने कालजयी फिल्मों का निर्माण किया था. दूसरी खास बात थी, एक दर्जन क्लासिक फिल्मों का प्रदर्शन. उसके साथ ही मेले में हर रोज बालीवुड की हस्तियों की शिरकत भी काबिलेगौर थी. तीसरी चीज थी बाइस्कोप.
बहरहाल, पहले कैमरे की बात करते हैं. इमेज इंडिया फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने इस कैमरे का निर्माण 50 के दशक में किया था. एरीफ्लेक्स-2सी माडल के उस कैमरे में रील की मैगजीन का इस्तेमाल होता था. एक मैगजीन की समयावधि साढ़े चार से पांच मिनट की होती थी. इसे चलाने के लिए 18 वोल्ट की बैटरी का इस्तेमाल होता था, जिससे तकरीबन 10 मैगजीन यानि 40 से 50 मिनट तक की शूटिंग पूरी होती थी. यह वही कैमरा था, जिससे सत्यजीत रे ने 'सिक्किम- डाक्यूमेंट्री, 'सीमाबद्ध्', 'गोपीगाईन', 'जनारण्य' और 'घरे-बाहिरे' जैसी कालजयी फिल्मों की परिकल्पना को सेलुलाइड के परदे पर उतारा था. डिस्को डांसर मिथुन चक्रवर्ती का फिल्मी कॅरियर भी 1976 में इसी कैमरे से शुरू हुआ था. वह फिल्म थी मृणाल सेन की 'मृगया', जिसके लिए मिथुन को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला. उत्तम कुमार की 'सन्यासी', ऋत्विक घटक की 'पुरुलिया छोऊ', तपन सिन्हा की 'हास्पीटल' और 'महतो' आदि फिल्मों के बेहतरीन शाट भी इसी कैमरे से लिये गये थे. हालांकि प्रदर्शन के लिए रखे गये इस कैमरे को दर्शकों के लिए छूना मना था, लेकिन दर्शकों की ख्वाहिशें इस कैमरे को छूने के लिए मचल रही थीं. इसके आस-पास पुरानी बिखरी हुई रील की मैगजीन और उसमें इस्तेमाल किये जानेवाले उपकरणों को तरतीब से सजाया गया था.
60 सीटों वाले उस थिएटर जैसे हाल में मेले के दौरान एक दर्जन फिल्में दिखायी गयीं. इन फिल्मों की सबसे खास बात यह थी कि ये सभी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी थीं. पहले ही दिन 1955 में आयी सत्यजीत रे की फिल्म 'पाथेर पांचाली' का प्रदर्शन किया गया. विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास 'पाथेर पांचाली' पर बनी यह फिल्म भारतीय सिनेमा की एक क्लासिक फिल्म है. दूसरे दिन 1962 में प्रदर्शित फिल्म 'साहिब बीबी और गुलाम', विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित थी. 1905 में छपे मिर्जा हादी रुसवा के उपन्यास 'उमराव जान अदा' पर 1981 में मुजफ्फर अली ने 'उमराव जान' बनायी. यह फिल्म लखनवी तहजीब को नायाब तरीके से बयां करती है. इसके गीत आज भी संगीत प्रेमियों की जुबान पर मकबूलियत पाते हैं. इसके बाद के एल सहगल अभिनीत फिल्म 'देवदास' का भी प्रदर्शन किया गया. आरके नारायण की कहानियों पर बने धारावाहिक 'मालगुडी डेज' को भी दिखाया गया, जिसमें प्रख्यात रचनाकार गिरीश कर्नाड ने भी भूमिका निभायी थी. इसी सिलसिले में फिल्म 'सूरज का सातवां घोडा', 'माटी माय', 'चारूलता', 'उसकी रोटी' और 'अतिथि' आदि फिल्मों ने भी दर्शकों के बीच अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करायी. साथ ही तरक्की पसंद शायरी को मकबूलियत दिलाने वाले शायर और बालीवुड के गीतकार साहिर लुधियानवी की 91वीं जयंती पर 'साहिर लुधियानवी की याद में' नामक कार्यक्रम का आयोजन भी हुआ और उन पर एक डाक्यूमेंट्री भी दिखायी गयी. उस दौरान साहिर की किताब 'तल्खियां' की कुछ नज़्मे पढ़ी और गायी गयी. शेर-ओ-शायारी के उस कार्यक्रम में किसी मुशायरे की सी कशिश महसूस करते हुए दर्शक तालियों से दाद और नवाजिश भेज रहे थे. मेले की थीम सिनेमा होने से इस बार दर्शकों की संख्या में 2010 के मुकाबले इजाफा दर्ज किया गया, जिसकी बदौलत यह मेला बहुत ही कामयाब रहा.
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