Tuesday, December 11, 2012

नग्मानिगार इब्राहिम अश्क से एक छोटी सी गुफ्तगू

        रूमानी ज़ुबान के एक स्कूल हैं दिलीप साहब

आज दिलीप साहब की यौम-ए-पैदाइश का मुबारक दिन है। 90 साल के मरहले पर खड़े दिलीप साहब के बेमिसाल वजूद के वैसे तो बहुत सारे पहलू हैं। लेकिन उनमें से कुछ पहलू ऐसे हैं जिनके बारे में ये दुनिया बहुत कम जानती है। उन्हीं में से कुछ के बारे में वसीम अकरम को तफ्सील से बता रहे हैं बालीवुड के मशहूर नग्मानिगार इब्राहिम अश्क...



Ibrahim Ashk
        उर्दू एक शीरीं जबान है। एक ऐसी ज़बान जिसकी तासीर बहुत मीठी होती है। जाहिर है, जब ऐसी जबान किसी शख्सीयत का हिस्सा बनती है, तो वह शख्सीयत महज एक फनकाराना शख्सीयत भर नहीं रहती, बल्कि उसकी जिंदगी का वजूद "कम्प्लिटनेस" का एक पैमाना बन जाता है। इसी पैमाने की तर्जुमानी करते हैं मशहूर अदाकार दिलीप कुमार साहब।
         दिलीप साहब को उर्दू जबान से बेपनाह मुहब्बत है। वे जब किसी महफिल का हिस्सा बनते हैं और अपनी मुबारक जबान से लोगों से मुखातिब होते हैं, तो पूरी महफिल इस शिद्दत-ओ-एहतराम से उनको सुनती है, मानो सुनने में अगर एक भी लफ्ज छूट गया तो उसकी जिंदगी से एक वक्फा कम हो जायेगा। यही वजह है कि एक जमाने में उनके दीवानों में पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, प्रकाश चंद्र शेट्टी जैसी बडी सियासी शख्सीयतें भी शामिल रही हैं।
Dilip Kumar
         दिलीप साहब की इस शख्सीयत को समझने के लिए जरा पीछे जाकर तवारीख के कुछ सफहों पर नजर डालना जरूरी है, कि आखिर इस बेमिसाल वजूद की जड़ें क्या कहती हैं। दरअसल, दिलीप साहब का त'अल्लुक पाकिस्तान के पेशावर से है और उनका नाम मुहम्मद यूसुफ खान है। एक अरसा पहले मुंबई में आ बसे उनके वालिद का फलों का कारोबार था। उनकी परवरिश पूरी तरह से पेशावरी माहौल में हुई थी। दिलीप साहब भी कभी-कभार फलों के कारोबार को संभाला करते थे। लेकिन उनके अंदर एक फनकार उनसे गुफ्तगू करता था। तब के जमाने में मुंबई में कई थिएटर चलते थे, जहां ड्रामों में लोगों की बहुत जरूरत पड़ती थी। एक बहुत मशहूर थिएटर था "पारसी थिएटर", जहां सोहराब मोदी और आगा हश्र कश्मीरी के ड्रामे हुआ करते थे। इन ड्रामों की जबान उर्दू हुआ करती थी। आगे चलकर इन्हीं ड्रामों पर फिल्में बननी शुरू हुईं और यहीं से शुरू हुआ दिलीप साहब की फनकारी का सिलसिला। वैसे तो बतौर हीरो उनकी पहली फिल्म थी "ज्वार भाटा", जो चल नहीं पायी। लेकिन उन्होंने जब फिल्म "शहीद" में सरदार भगत सिंह का किरदार निभाया, तब तक उनके वालिद साहब को यह बात नहीं मालूम थी कि उनका बेटा एक अदाकार बन गया है। शहीद में दिलीप साहब के मरने का सीन देखकर उन्हें बड़ा दुख हुआ। लेकिन जैसे-जैसे दिलीप साहब की मकबूलियत बढ़ी, वालिद की नाराजगी कुछ कम हो गयी।
          तब के ड्रामों में कलाकार पुरजोर आवाज में चीख-चीख कर डायलाग बोला करते थे। क्योंकि दूर बैठे दर्शकों तक आवाज पहुंचाने की जिम्मेदारी होती थी। यही चलन फिल्मों में भी आया, लेकिन जब दिलीप साहब आये तो उन्होंने इस चलन को तोड़ दिया और बहुत नर्म लब-ओ-लहजे में, बहुत धीरे से रूमानी डायलाग बोलने की एक नयी रवायात कायम की, जो आज भी न सिर्फ जिंदा है, बल्कि इस अदायागी को बाकायदा एक मकबूलियत हासिल है। रूमानी ज़बान की यह रवायात एक स्कूल बन गयी, जिससे मुतास्सिर होने वालों में अमिताभ बच्चन, नसीरुद्दीन शाह, संजीव कुमार और इनके बाद की पीढ़ी शामिल है। यह दिलीप साहब की उर्दू ज़बान से मुहब्बत ही थी, जो शीरीं जबान को रूमानी अंदाज में जीने के कायल थे। दिलीप साहब के जमाने में जो फिल्में लिखा करते थे, वे सब उर्दूदां थे और दुनिया की तमाम 'क्लासिक लिटरेचर' यानि आलमी अदब को जानने वाले हुआ करते थे। इसका उन पर बहुत असर हुआ। शुरू में तो नहीं, लेकिन अपनी मकबूलियत के बाद वे स्क्रिप्ट में कई बार तब्दीलियां करवाते थे, जब तक कि उस फिल्म इस्तेमाल उर्दू लफ्ज़ पूरी शिद्दत से उनके दिल में नहीं उतर जाते थे। आज भी बालीवुड यह एहसान मानता है की दिलीप साहब ने ही इंडस्ट्री को डायलाग बोलने की एक उम्दा रवायत दी।
          उर्दू की मेयारी शायरी के मुरीद दिलीप साहब को पढ़ने का बहुत शौक रहा है। खास तौर से ग़ज़लों और नज्मों को वे खूब पढ़ते हैं। उनके लिखने के बारे में तो कोई इल्म नहीं है, लेकिन उनकी जुबान से शे'र को सुनकर ऐसा लगता है कि वह शे'र किसी और का नहीं, बल्कि खुद उन्हीं का लिखा हुआ है। यह बहुत बड़ी फनकारी है कि किसी के अशआर को अपनी जुबां पर लाकर उसे अपना बना लिया जाये। यही नहीं दिलीप साहब को तकरीबन आठ से दस जबानें आती हैं। यह मिसाल ही है कि उन्हें किसी जबान को सीखने के लिए बहुत ज़रा सा ही वक्त लगता है। वे जहां भी जाते हैं, वहां के लोगों से कुछ ही देर की गुफ्तगू में उनकी ही जबान में बात करने लगते हैं। 
          एक वाकया मुझे याद है। मेरी ग़ज़लों के एल्बम, जिसे तलत अज़ीज़ ने गाया था, की लांचिंग के मौके पर वे आये थे। उन्हीं के हाथों से उस एल्बम की लांचिंग थी। जब दिलीप साहब ने माइक हाथ में लिया और कहा- "मेरे मोहतरम, बुजुर्ग व दोस्तों, ख्वातीन-ओ-हजरात, आदाब!" तो सारी महफिल एकदम खामोश हो गयी और ऐसा पुरसुकून मंजर ठहर गया गोया अब उनकी जबान से खूबसूरत लफ्जों की बारिश होने वाली है। उन्होंने जब आगे बोलना शुरू किया, तो उर्दू ग़ज़ल की तवारीख कुछ ऐसे बयान फरमाई, गोया कोई प्रोपेफसर अपनी क्लास में खड़ा लेक्चर दे रहा हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि दिलीप साहब किसी जबान को सिर्फ पढ़ते नहीं थे, बल्कि उसे अपने दिल में उतार लेते थे। एक बार लंदन के रायल अल्बर्ट हाल में लता जी के प्रोग्राम का आगाज करने के लिए उन्हें बुलाया गया था। उस प्रोग्राम की रिकार्डिंग को आज भी  रिवाइंड करके सुना जाता है। उनकी आवाज़ और ज़बान का जादू ही है कि जब वे किसी महफिल या प्रोग्राम की सदारत करते थे, तो उसकी जान बन जाते थे। शायरी को समझना और वक्त की नजाकत को देख उसका बेहतरीन इस्तेमाल करना बहुत बड़ी बात है। यह एक ऐसा फन है, जो शायर न होते हुए भी उनको एक शायर से ज्यादा मकबूल बनाता है। यही वजह है कि दिलीप साहब जब भी कोई शेर पढ़ते हैं, तो वे उस वक्त और मौजू को ताजगी बख्श देते हैं। उनकी जबान से आज तक कहीं भी सस्ती शायरी नहीं सुनी गयी है। वे बेहद दिलकश और पुरअसर अंदाज़ में शेर पढ़ते हैं।
          अरसा पहले जब मैं दिल्ली से निकलने वाली "शमा" मैगजीन में था, उस वक्त मुंबई से उनके खत आते थे। आपको यकीन नहीं होगा कि वे खत किसी कंपनी से बनी कलम से नहीं, बल्कि अपने हाथों से बनायी गयी बरू की लकड़ी की कलम को स्याही में डुबो कर उर्दू में ही लिखते थे। उनकी लिखावट ऐसी होती थी, गोया कैलीग्राफी की गयी हो। यह वही शख्स कर सकता है, जिसे ज़बान से बेपनाह मुहब्बत हो। दिलीप साहब का वजूद तमाम उर्दूदानों के लिए किसी कीमती सरमाये से कम नहीं।

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