Wednesday, October 15, 2014

किसकी देन है इस्लामिक आतंकवाद?

Subhash Gatade
एसोसिएटेड प्रेस के लिए लिखी अपनी लेखों की शृंखला के लिए पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित पत्रकार एडम गोल्डमैन तथा माट अपुजो इन दिनों बेहद खुश होंगे। दरअसल, न्यूयार्क पुलिस महकमे द्वारा चलाए जा रहे विवादास्पद मुस्लिम जासूसी कार्यक्रम का सबसे पहले उन्होंने भंडाफोड़ किया था और अब खबर आई है कि न्यूयॉर्क शहर के पुलिस विभाग ने अपनी विवादास्पद हो चुकी जासूसी इकाई ‘डेमोग्रेफिक यूनिट’ को अंतत: बंद करने का निर्णय लिया है जो मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर काम करती थी। न केवल उसके एजेंट मुस्लिम छात्र समूहों का हिस्सा बनते थे, मस्जिदों में अपने नुमाइंदों को भेजते थे, रेस्तरां, जिम या सैलून में जारी बातचीत को गुपचुप टेप करते थे और इसी के आधार पर सूचनाओं का विशाल भंडार संग्रहित करने में लगे थे। सालों तक इन सूचनाओं को एकत्रित करने के बाद भी वह आतंकवाद को लेकर एक अदद मामले में सूत्र देने में नाकामयाब रहे। अंतत: उसने स्वीकार किया कि समुदाय विशेष को निशाना बनाकर चलाई गयी गतिविधियों में उन्हें आतंकवाद को लेकर कोई सूत्र नहीं मिल सके।
           इसे महज संयोग कहा जा सकता है कि बदनाम हो चुकी न्यूयॉर्क पुलिस की इस विवादास्पद योजना को लेकर निर्णय तभी सामने आया है, जबकि हम तमिलनाडु पुलिस द्वारा ‘आतंकवादी निर्माण’ में निभायी भूमिका को लेकर नए तथ्यों से रू-ब-रू  http://www.newindianexpress.com/states/tamil_nadu/Informer-Cop-Nexus-Behind-TN-Islamic-Fundamentalism/2014/04/11/article2161711.ece
  हैं। वैसे कितने लोगों को जनाब लालकृष्ण आडवाणी की तमिलनाडु की 2011 की यात्रा में उनके रास्ते में बरामद किए गए पाइप बम का किस्सा याद है? मदुराई में हुई इस घटना को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों को पकड़ा गया था और तमिलनाडु पुलिस ने यह दावा किया था कि उसने इस्लामिक अतिवादियों के एक बड़े नेटवर्क का पर्दाफाश किया है।
          फिलवक्त तमिलनाडु की उच्च अदालत में प्रस्तुत याचिका – जिसमें ऐसे तमाम बम धमाकों की उच्चस्तरीय जांच की मांग की गई है, पर तथा उसके लिए सबूत के तौर पर प्रस्तुत रिटायर्ड पुलिस अधीक्षक द्वारा भेजे गए गोपनीय पत्रों पर गौर करें तो एक अलग ही तस्वीर सामने आती है, जो मुस्लिम पुलिस मुखबिरों एवं गुप्तचर अधिकारियों के बीच मौजूद अपवित्र गठबंधन की तरफ इशारा करती है और उसी गठबंधन को इलाके में फैले इस्लामिक अतिवादी गतिविधियों का स्रोत बताती है। कुछ समय बाद ही न्यायमूर्ति सुबैया की अदालत इस याचिका को लेकर तथा इसमें पेश सबूतों पर गौर करने वाली है।
          गौरतलब है कि मदुराई जिले के पूर्व पुलिस अधीक्षक वी. बालाकृष्णन द्वारा इन गोपनीय पत्रोंं को डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस और अतिरिक्त डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस के नाम मार्च 2013 तथा अगस्त 2013 में अनुक्रम से भेजा गया था। अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह में उच्च अदालत के सामने इन पत्रों को पेश किया गया। याचिकाकर्ता के वकील पीटर रमेश द्वारा मदुराई में हुए तमाम बम धमाकों की सीबीआई जांच की मांग की गई है। 29 मार्च 2013 को भेजे गए पत्र में पुलिस अधीक्षक महोदय ने सबूत पेश करते हुए कहा है कि किस तरह दो अभियुक्तों  सैयद वहाब और इस्मथ, दोनों के खिलाफ अवनीयापुरम पुलिस स्टेशन ने फिरौती का मामला दर्ज किया था- उसके चन्द रोज बाद ही इस मामले में भी उन्हें अभियुक्त बनाया गया, किसी विजय पेरूमल नामक हेडकांस्टेबल का उल्लेख करते हुए – जो मदुराई की सिटी इंटेलीजेंस विंग से जुड़ा है – पत्र में यह भी लिखा गया है कि किस तरह उसने वहाब के साथ मिलकर रियल इस्टेट के कुछ विवादास्पद मसलों में मध्यस्थता की थी और उन्हें निपटाया था।
           पुलिस अधीक्षक महोदय ने अगस्त 2013 में एक अन्य गोपनीय पत्र अतिरिक्त डीजीपी को भी भेजा था, जिसमें मन्दिरों की इस नगरी में इस्लामिक अतिवादियों द्वारा कथित तौर पर बम रखने की घटनाओं की जांच में मुब्तिला स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम के एक इंस्पेक्टर के तबादले का विरोध किया गया था। याचिकाकर्ता के वकील का कहना था कि यह घटनाएं इसी बात का प्रमाण पेश करती हैं कि किस तरह भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से ही ऐसी घटनाएं हो रही हैं और उन्हीं की दखलंदाजी के कारण असली मुजरिम पकड़े नहीं जा सके हैं।
          निश्चित ही गुप्तचर अधिकारियों या पुलिस के लोगों द्वारा मुखबिरों के इस्तेमाल का यह कोई पहला प्रसंग नहीं है। याद कर सकते हैं कि मालेगांव 2006 का शबे बारात के दिन का वह बम विस्फोट, जिसमें कई निरपराध लोग मारे गए थे और इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कई मुस्लिम युवकों को छह साल से अधिक वक्त जेल की सलाखों के पीछे गुजारना पड़ा था। इस पूरे प्रसंग में अबरार अहमद नामक एक व्यक्ति की ‘गवाही’ सबसे अहम मानी गई थी, जो उस वक्त पुलिस के लिए काम करता था। बाद में उसने शपथपत्र देकर यह बताया कि किस तरह उसी ने इन लोगों को फंसाया है। इसके बावजूद उन निरपराधों को जेल से बाहर निकलने तथा उन पर लगाए गए मुकदमे समाप्त होने में दो साल से अधिक वक्त लगा था। एक क्षेपक के तौर पर यह बताया जा सकता है कि इस अपराध के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक असीमानंद तथा अन्य हिंदुत्व आतंकवादियों पर मुकदमे कायम हो चुके हैं।
          अभी पिछले ही साल प्रख्यात खोजी पत्रकार आशीष खेतान द्वारा डब्लू डब्लू डब्लू गुलैल डाट कॉम पर प्रस्तुत रिपोर्ट भी महत्त्वपूर्ण है, जिसमें इस बात का दस्तावेजीकरण किया गया है कि ‘गोपनीय फाइलें इस तथ्य को उजागर करती हैं जिसका मुसलमानों को पहले से संदेह रहा है : यही कि राज्य जान-बूझकर निरपराधों को आतंकवाद के आरोपों में फंसा रहा है।‘ जबकि इलाकाई मीडिया में या उर्दू मीडिया में इस रिपोर्ट को काफी अहमियत मिली, मगर राष्ट्रीय मीडिया ने एक तरह से खेतान के इस खुलासे को नजरअंदाज किया कि किस तरह आधे दर्जन के करीब आतंकवाद विरोधी एजेंसियों के आंतरिक दस्तावेज इस बात को उजागर करते हैं कि राज्य जान-बूझकर मुसलमानों को आतंकी मामलों में फंसा रहा है और उनकी मासूमियत को परदा डाले रख रहा है।
          पत्रकार ने ‘आतंकवाद केंद्रित तीन मामलों की-7/11 ट्रेन बम धमाके, पुणे; पुणे जर्मन बेकरी विस्फोट और मालेगांव धमाके 2006 की जांच की है और पाया है कि इसके अंतर्गत 21 मुसलमानों को यातनाएं दी गईं, अपमानित किया गया और बोगस सबूतों के आधार पर उन पर मुकदमे कायम किए गए। जब उनकी मासूमियत को लेकर ठोस सबूत पुलिस को मिले, तब भी अदालत को गुमराह किया जाता रहा।’
          हमारे अपने वक्त में सूबा गुजरात आतंकवादियों की बरामदगी के बारे में नए-नए रिकॉर्ड कायम कर चुका है।  गुजरात पुलिस विभाग के डीआईजी बंजारा के नेतृत्व में तो ऐसे तमाम ‘आतंकवादियों’ को पकड़कर पुलिस ने मार गिराया, जिनके बारे में कहा गया कि यह लोग मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को मारने के लिए पहुंचे थे। उदाहरण के लिए जिन दिनों बंजारा डीआईजी पद पर विराजमान थे, उन दिनों मोदी सरकार द्वारा ‘आतंकवाद विरोध’ के नाम पर तय की गई कार्रवाई योजना/एक्शन प्लान का खुलासा हुआ था, इसका स्वरूप ऐसा था कि गुजरात पुलिस की इस योजना ने प्रदेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को नए सिरे से आतंकित किया था।
          बंजारा के कार्यकाल में 9 मुठभेड़ों में पंद्रह लोग मारे गए थे। सोहराबुद्दीन शेख-कौसर बी के फर्जी एनकाउंटर में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप में जब विशेष कार्य बल ने जांच की तो यह बात सामने आई कि किस तरह मेडल और ट्राफियां बटोरने के लिए जनाब बंजारा और गुजरात एवं राजस्थान पुलिस के उनके समानधर्मा अफसरों ने ऐसे कई कांडों को अंजाम दिया था।
           इन्हीं मुठभेड़ों में एक चर्चित किस्सा था मार्च 2003 में गुजरात पुलिस के हाथों मारे गए एक साधारण शख्स सादिक जमाल की मौत का, जिसे ‘लश्कर-ए-तय्यबा’ का आतंकवादी कहकर – जो कथित तौर पर मोदी, तोगड़िया और आडवाणी को मारने के लिए पहुंचा था – गुजरात पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। जांच में पता चला कि सादिक के हाथों से जो पिस्तौल बरामद दिखाई गई थी वह .32 बोर की थी, जबकि इस पिस्तौल से कथित तौर पर जो गोलियां पुलिस पर चलाई गई थीं वे .38 बोर के पिस्तौल से निकली गोलियां थीं। सादिक के शरीर पर यातना दिए जाने के निशान मौजूद थे, उसके शरीर पर कुछ घाव भी बने थे जिन्हें बिना इलाज के छोड़ा गया था।
          यह जानी हुई बात है कि बंजारा एवं उसके सहयोगी 31 अन्य पुलिस अफसर उन 15 फर्जी मुठभेड़ों के चलते जेल की सलाखों के पीछे हैं, जिन्हें गुजरात पुलिस ने 2004 से 2007 के दरम्यान अंजाम दिया। गौरतलब है कि इन्हें अंजाम देने का तरीका एक जैसा ही था, फिर चाहे इशरत जहां एवं उसके साथ मारे गए तीन अन्य लोगों की हत्या हो; सोहराबुद्दीन शेख की हत्या हो या फिर सादिक जमाल मेहतर की हत्या। यह सभी मुठभेड़ें  रात के वक्त हुईं और ‘आतंकियों’ के तमाम ‘आधुनिक ऑटोमेटिक हथियारों से लैस होने’ के बावजूद (जैसा कि बाद में बताया गया) पुलिस बल को खरोंच तक नहीं आई। ऐसी हर मुठभेड़ के बाद यही बताया गया कि यह लोग जनाब मोदी एवं उनके सहयोगियों को खत्म करने के लिए आए थे।
         पिछले साल बंजारा ने जेल से ही इस्तीफे की घोषणा करते हुए एक पत्र जारी किया था। अपने दस पेज के इस्तीफे के पत्र में जनाब बंजारा ने कई महत्त्वपूर्ण बातें कहीं थीं। कहीं भी वह इन हत्याओं पर पश्चात्ताप प्रकट नहीं करते, बल्कि यकीं करते हैं कि इन्हीं के चलते गुजरात में बाद में आतंकी हमले नहीं हुए। उनके मुताबिक ‘गुजरात के विकास मॉडल’ की कामयाबी ‘वे और उनके अफसरों की कुर्बानी पर ही टिकी है।‘
          इस अभूतपूर्व परिस्थिति पर अपनी राय प्रकट करते हुए कि उनके सहयोगी 31 अन्य पुलिस अधिकारी जेल की सलाखों के पीछे हैं, जिनमें से कई आईपीएस रैंक के भी हैं, वह बताते हैं कि 2002 से 2007 के दरम्यान वे या उनके जैसे अधिकारियों ने ‘सरकार की सचेत नीति के अनुरूप ही काम किया’ और इसके बावजूद उनके राजनीतिक आंकाओं ने उनके साथ विश्वासघात किया। पत्र में नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह – जो गृहराज्यमंत्री रह चुके हैं – को निशाना बनाया गया है। इसमें भले ही अमित शाह पर अधिक गुस्सा प्रकट होता दिखता है, मगर मोदी को लेकर भी उसमें कोई मुगालता नहीं है। कभी मोदी को ‘खुदा’ समझने वाले बंजारा उन पर खुलकर हमला करते हुए कहते हैं कि ‘वे दिल्ली की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।‘ जेल में बंद उन पुलिस अधिकारियों के बारे में बिना सोचे, जो उनके आदेशों का ही पालन कर रहे थे।
          सोहराबुद्दीन, तुलसीराम, सादिक जमाल और इशरत जहां मुठभेड़ मामलों की जांच में मुब्तिला सीबीआई जांच अधिकारियों को चाहिए कि वह उन नीति-निर्माताओं को भी गिरफ्तार करें, जिनकी सचेत नीति को हम अधिकारी अमल में ला रहे थे… मेरा साफ मानना है कि इस सरकार की जगह गांधीनगर में होने के बजाय तलोजा सेंट्रल जेल या साबरमती सेंट्रल जेल में होनी चाहिए।
          इसमें कोई दोराय नहीं कि इस पत्र के अचानक नमूदार होने से मोदी एवं अमित शाह दोनों ही बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर हैं। अपनी तुरंत प्रतिक्रिया में सीबीआई ने भले ही कहा हो कि इस इस्तीफे का ‘राजनीतिक मूल्य’ है, मगर उसने इस बात पर गौर नहीं किया है कि बंजारा का बयान अभियोजन पक्ष को और मजबूत बना सकता है। इस पत्र की कॉपी सीबीआई को भी भेजी गई है और वह चाहेगी तो पत्र में किए गए आरोपों को लेकर स्पष्टीकरण के लिए वह बंजारा को बुला सकती है, ताकि यह जाना जा सके कि आखिर हुकूमत में बैठे लोग किस तरह इन मुठभेड़ों में ‘शामिल’ थे। एक क्षेपक के तौर पर यहां यह बताया जा सकता है कि कुछ समय पहले जब इशरत जहां का मामला सुर्खियों में था, तब सीबीआई ने बताया था कि उसके पास एक अभियुक्त पुलिस अधिकारी का बयान मौजूद है, जिसमें टेप पर यह दावा किया गया है कि  बंजारा ने उन्हें बताया था कि मामले की जानकारी सफेद दाढ़ी (संकेत मोदी की तरफ) और काली दाढ़ी (संकेत अमित शाह) को दी गई है।
          यह 90 के दशक के मध्य में महाराष्ट्र में कायम शिवसेना-भाजपा हुकूमत का किस्सा है, जब पुलिस ने एक ‘पाकिस्तानी एजेंट’ को पकड़कर मीडिया के सामने पेश किया था और यह दावा भी किया था कि उपरोक्त व्यक्ति बाल ठाकरे की हत्या करने के लिए आया था। यह जुदा बात है कि इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद ‘एशियन एज’ के एक पत्रकार को यह बात याद रही कि इसी शख्स को कुछ ही दिन पहले ठाणे की स्थानीय अदालत में हत्या के एक मामले में अभियुक्त के तौर पर पेश किया गया था। अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उसने पुलिस प्रवक्ता से इस संबंध में कुछ प्रश्न भी पूछे। लाजिम था कि प्रवक्ता हक्का-बक्का रह गया था। बाद में इस मामले को गुपचुप दफना दिया गया और जनतंत्र का प्रहरी होने का दावा करने वाले मीडिया ने भी इस मसले पर खामोशी बरकरार रखी।
                                                                                                        समयांतर से साभार

Friday, October 10, 2014

नोबेल शांति विजेता कैलाश सत्यार्थी का इंटरव्यू

साल 2012 में प्रभात खबर के बचपन बचाओ कॉलम के लिए कैलाश सत्यार्थी से एक छोटी सी बात की थी। कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को नोबेल शांति पुरस्कार दिये जाने की घोषणा के साथ ही उन्हें ढेरों मुबारकबाद देते हुए उनका इंटरव्यू साझा कर रहा हूं।

हमारे वर्तमान समाज में बच्चों के प्रति मां-बाप का रवैया असहिष्णु होता जा रहा है. अभिभावकों में मित्रभाव का अभाव बच्चों को उनसे दूर ही नहीं, उनका बचपन छीन रहा है. हालांकि इसके समाजार्थिक कारण ये हैं कि मध्यवर्गीय तबके में एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, जिससे बच्चे एकाकीपन के शिकार होकर हिंसा की ओर बढ़ने लगे हैं. स्कूल से आने के बाद वे घर में अकेले होते हैं तो सिर्फ टीवी देखते हैं या फिर विडियोगेम खेलते हैं. यह सिर्फ भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में इस पर बहस जारी है. आज अमेरिका, नीदरलैंड, आॅस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश भी इस बात से बेहद चिंतित हैं कि उनके बच्चे क्यों बड़ों जैसे व्यवहार कर रहे हैं. और क्यों वे छोटी सी उम्र में ही इतने हिंसक हो रहे हैं. मसला यह है कि एकाकीपन बढ़ने से बच्चों में संवादहीनता बढ़ रही है. बच्चों के न बोल पाने से उनके साथ हुई हिंसा को भी वे किसी से शेयर नहीं कर सकते. यही उनके मन में कहीं घर की हुई रहती है जो एक वक्त आने पर बाहर आ जाती है. ऐसे में बचपन बचाने की मुहिम के मद्देनजर पूरी दुनिया ने जो महसूस किया है वह है बुजुर्गों की हमारे घरों में मौजूदगी की जरूरत.
आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि भारत के मध्यवर्ग में ज्यादातर एकल परिवार हैं. वे अपने बुजुर्गों को गांव या पुश्तैनी जगहों पर छोड़ देते हैं और घर में एक नौकर रख लेते हैं. वह नौकर, लड़का हो या लड़की, जो आर्थिक तंगी का शिकार होता है, उसके साथ बच्चा अपनी बात कैसे शेयर कर सकता है. इसलिए जरूरी है कि हम अपने बुजुर्गों की ओर लौटें. किसी भी घर के लिए बुजुर्गों का साथ बच्चों को मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा दे सकता है. इसे हमें बहुत गौर से सोचने की जरूरत है. और कोई चारा नहीं है जिससे हम अपने बच्चों का मासूम बचपन संभाल सकें. क्योंकि बच्चे और बूढ़े दोनों की संवेदनाएं कहीं न कहीं मिलती हैं, जो उन्हें एक दूसरे की संवेदनाओं को शेयर करने में मदद करती हैं. बुजुर्ग अच्छी चीज को अपनाने और बुरी चीज को नकारने की सलाह देते हैं.