Friday, October 10, 2014

नोबेल शांति विजेता कैलाश सत्यार्थी का इंटरव्यू

साल 2012 में प्रभात खबर के बचपन बचाओ कॉलम के लिए कैलाश सत्यार्थी से एक छोटी सी बात की थी। कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को नोबेल शांति पुरस्कार दिये जाने की घोषणा के साथ ही उन्हें ढेरों मुबारकबाद देते हुए उनका इंटरव्यू साझा कर रहा हूं।

हमारे वर्तमान समाज में बच्चों के प्रति मां-बाप का रवैया असहिष्णु होता जा रहा है. अभिभावकों में मित्रभाव का अभाव बच्चों को उनसे दूर ही नहीं, उनका बचपन छीन रहा है. हालांकि इसके समाजार्थिक कारण ये हैं कि मध्यवर्गीय तबके में एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, जिससे बच्चे एकाकीपन के शिकार होकर हिंसा की ओर बढ़ने लगे हैं. स्कूल से आने के बाद वे घर में अकेले होते हैं तो सिर्फ टीवी देखते हैं या फिर विडियोगेम खेलते हैं. यह सिर्फ भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में इस पर बहस जारी है. आज अमेरिका, नीदरलैंड, आॅस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश भी इस बात से बेहद चिंतित हैं कि उनके बच्चे क्यों बड़ों जैसे व्यवहार कर रहे हैं. और क्यों वे छोटी सी उम्र में ही इतने हिंसक हो रहे हैं. मसला यह है कि एकाकीपन बढ़ने से बच्चों में संवादहीनता बढ़ रही है. बच्चों के न बोल पाने से उनके साथ हुई हिंसा को भी वे किसी से शेयर नहीं कर सकते. यही उनके मन में कहीं घर की हुई रहती है जो एक वक्त आने पर बाहर आ जाती है. ऐसे में बचपन बचाने की मुहिम के मद्देनजर पूरी दुनिया ने जो महसूस किया है वह है बुजुर्गों की हमारे घरों में मौजूदगी की जरूरत.
आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि भारत के मध्यवर्ग में ज्यादातर एकल परिवार हैं. वे अपने बुजुर्गों को गांव या पुश्तैनी जगहों पर छोड़ देते हैं और घर में एक नौकर रख लेते हैं. वह नौकर, लड़का हो या लड़की, जो आर्थिक तंगी का शिकार होता है, उसके साथ बच्चा अपनी बात कैसे शेयर कर सकता है. इसलिए जरूरी है कि हम अपने बुजुर्गों की ओर लौटें. किसी भी घर के लिए बुजुर्गों का साथ बच्चों को मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सुरक्षा दे सकता है. इसे हमें बहुत गौर से सोचने की जरूरत है. और कोई चारा नहीं है जिससे हम अपने बच्चों का मासूम बचपन संभाल सकें. क्योंकि बच्चे और बूढ़े दोनों की संवेदनाएं कहीं न कहीं मिलती हैं, जो उन्हें एक दूसरे की संवेदनाओं को शेयर करने में मदद करती हैं. बुजुर्ग अच्छी चीज को अपनाने और बुरी चीज को नकारने की सलाह देते हैं.

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