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Inauguration of Jashn-e-Rekhta |
उर्दू शायरी से मुहब्बत का जश्न
किसी मुल्क को अगर बहुत ही नज़दीक और गहराई से जानना हो, वहां की अवाम के दिलों में मचलते जज़्बात से राब्ता कायम करना हो, उसकी सियासत, अदबी नफासत, दीनी रवायत और इल्मी नज़ाकत से रूबरू होना हो, तो सबसे पहले उसकी ज़बान को जानिए, समझिए और हो सके तो उसके लहजे़ में पूरी तरह से उतर जाइए। इस बात से सिर्फ हमीं नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम दानिशवर भी बड़ी ही शिद्दत से इत्तेफाक रखते हैं। कुछ तो ऐसे भी हैं जो सिर्फ इत्तेफाक ही नहीं रखते, बल्कि उससे बेपनाह मुहब्बत भी करते हैं। उन्हीं चंद मुहब्बत करने वाले लोगों में एक नाम संजीव सराफ का भी आता है, जिन्होंने नोएडा में रेख़्ता फाउंडेशन की नींव रखी और उर्दू ज़बान को शिद्दत से महसूस करने वालों के लिए https://rekhta.org/ नाम की वेबसाइट की बुनियाद डाली। खुद संजीव सराफ की ज़ुबां में- ‘‘रेख़्ता, मेरी उर्दू से मुहब्बत का एक हसीन-ओ-तरीन नज़राना है।’’
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Inaugural speech of Sanjeev Saraf in Jashn-e-Rekhta |
कभी उर्दू और फारसी के उस्ताद शायर ‘मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ग़ालिब’ ने मीर तकी मीर की एक ग़ज़ल को सुनकर कहा था ‘‘रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं ग़ालिब। कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।।’’ ज़ाहिर है तब ग़ालिब ने मीर और उनकी शायरी की तारीफ की थी और यह शे’र कहा था, लेकिन आज संजीव सराफ को उनकी उर्दू शायरी से बेपनाह मुहब्बत के लिए कहा जा सकता है कि आज वे सचमुच में ‘रेख़्ता’ के उस्ताद हैं। संजीव सराफ ने बिना किसी मुनाफे के रेख़्ता वेबसाइट के ज़रिये उर्दू शायरी को तीन ज़बानों (उर्दू, देवनागरी और रोमन लिपियों में) में पेश कर न सिर्फ दुनिया भर में उर्दू के दायरे को बढ़ाया है, बल्कि नुक्ता और इज़ाफत के सही-सही इस्तेमाल के साथ बेहतरीन उर्दू बोलने और समझने को लेकर एक उम्दा पहचान भी बनायी है। संजीव सराफ यहीं नहीं रुके, बल्कि इसे और आगे ले जाने के लिए ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ नाम से एक दोरोज़ा प्रोग्राम का ऐलान भी कर दिया, जो गुजिश्ता 14 और 15 मार्च को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आइआइसी) में बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में अपने कामयाब अंजाम को पहुंचा।
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Javed Akhtar and Rakshanda Jaleel in Jashn-e-Rekhta |
एक ज़माने में दिल्ली के मशहूर शायर ‘दाग़ देहलवी’ कहते हैं- ‘‘उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग़। सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।।’’ अरसा पहले यह शे’र हिंदुस्तान और उसकी एक मक़बूल ज़बान उर्दू की तर्जुमानी करता था, लेकिन गुजिश्ता वक्त के कुछ वक्फे में उर्दू पढ़ने और लिखने में आयी कमी से ऐसा महसूस होने लगा था कि शायद हमारी आगे आने वाली पीढ़ियां उर्दू ज़बान से महरूम रह जायें। इस मायूसी के आलम में रेख़्ता की शुरुआत और फिर जश्न-ए-रेख़्ता का एहतमाम इस बात की तस्दीक करता है कि हमारी आने वाली पीढ़ियां उर्दू ज़बान से मुहब्बत करती रहेंगी।
दो दिन तक चले जश्न-ए-रेख़्ता के खूबसूरत अदबी माहौल में हिंदुस्तान और दूसरे ममालिक पाकिस्तान, अमेरिका और कनाडा से आये तकरीबन 60 से ज्यादा शायरों, फनकारों, गुलोकारों, दानिशवरों और अदबी शख्सियतों ने अपनी शिरकत से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर को खुशरंग बना दिया था। प्रोग्राम के पहले दिन हिंदी फिल्मी दुनिया के मशहूर फिल्म लेखक, शायर और गीतकार जनाब जावेद अख़्तर से रख्शंदा जलील ने उर्दू शायरी के हवाले से खूब सारी गुफ्तगू की। उसके बाद ‘उर्दू और हिंदी: क़ुर्बतें और फासले’ मौजू पर हिंदी के अदीब अशोक बाजपेयी, सियासी दानिशवर पुरुषोत्तम अग्रवाल और उर्दू अदीब शमीम हनफी ने अपनी दिली बातों से वहां मौजूद लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर बेहतरीन दस्तक दी। शमीम हनफी ने कहा कि उर्दू हो या हिंदी इन दोनों ज़बानों को सियासत और मज़हब से बचाने की ज़रूरत है। हनफी ने बयान फरमाया कि मुल्क की आज़ादी के बाद से ही उर्दू ज़बान का वजूद ख़तरे में रहा है, क्योंकि कुछ लोगों ने इसे सिर्फ मुसलमानों की ज़बान मान ली है। ज़ाहिर है कि उर्दू हो या हिंदी, ज़बानें किसी मख्सूस कौम या मज़हब की नहीं होती हैं, बल्कि वे तो पूरे मुल्क की तर्जुमानी करती हैं।
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Shaam-e-Ghazal in Jashn-e-Rekhta |
शाम चार बजे ‘‘मुशायरे का बदलता रंग-रूप’’ में लोगों से रूबरू हुए एनडीटीवी के एंकर रवीश कुमार ने हिंदी कवि डाक्टर कुमार विश्वास, एहसासात की दुनिया के मशहूर शायर मुनव्वर राना और अमेरिका से आये सत्यपाल आनंद से अपने सहाफी अंदाज़ में ख़ूब गुफ्तगू की और लोगों को यह एहसास नहीं होने दिया कि वे जश्न-ए-रेख़्ता की डाइस पर हैं या फिर टीवी के परदे पर। अगले प्रोग्राम ‘‘उर्दू शायरी और तहज़ीब: एक ज़ाती तजुर्बा’’ में पाकिस्तानी अखबार डान के दिल्ली ब्यूरो के सहाफी सईद नकवी और ओबैद सिद्दीकी ने अपने-अपने तजुर्बात से लोगों को रूबरू कराया और फिर शाम सात बजे फिल्म गरम हवा की स्क्रीनिंग के बाद शाम नौ बजे ‘‘मुशायरा: बज़्म-ए-सुख़न’’ शुरू हुआ, जिसमें तशरीफ फरमां शायर थे- अमजद इस्लाम अमजद, अनवर शउर, अश्फाक़ हुसैन, फरहत एहसास, जावेद अख़्तर, मोहम्मद अल्वी, निदा फाज़ली और वसीम बरेलवी। इन सभी शायरों ने अपने शे’र-ओ-सुखन से ऐसा शमा बांधा कि जश्न-ए-रेख़्ता का मेयार इतनी उंचाई पर पहुंच गया, जहां से यही आवाज़ सुनायी दे रही थी कि ‘‘सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है...’’
‘‘उर्दू अदब की तानीसी आवाज़’’, ‘‘उर्दू-इनसानी वहदत की ज़बान’’, ‘‘इंटरनेट की दुनिया में उर्दू’’, ‘‘उर्दू में जासूसी अदब’’, ‘‘अख़्तरी: ए ट्रिब्यूट टू बेग़म अख़्तर’’ जैसे कई और खूबसूरत प्राग्रामों का हिस्सा बनने के लिए लोग बेक़रार नजर आ रहे थे और शायद यही वजह रही कि इंडिया इंटरनेशनल के आडीटोरियम, कान्फरेंस रूम, फाउंटेन लान्स और मल्टपरपज हाल की सभी सीटें भर चुकी थीं।
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Ravish kumar and Munawar Rana in Jashn-e-Rekhta |
जश्न-ए-रेख़्ता के दूसरे दिन की शुरुआत ‘‘टेटवाल का कुत्ता’’ नाटक से हुई। और फिर ‘‘ग़ज़ल: अहद बा अहद’’, ‘‘फिल्मों की ज़बान उर्दू’’, ‘‘तर्जुमा: हासिल और लाहासिल’’, ‘‘लाल क़िले का आखि़री मुशायरा’’, ‘‘दास्तानगोई’’, ‘‘क़व्वाली’’, से होते हुए और तकरीबन नौ बजे शाम-ए-ग़ज़ल ‘‘साज़-ओ-आवाज़’’ पर आकर जश्न-ए-रेख़्ता का दोरोज़ा सफर अपने अंजाम को पहुंचा। इस पूरे दो दिन के दौरान आइआइसी का गोशा-गोशा उर्दू ज़बान की मुहब्बत का गवाह बना। मेरी खुशक़िस्मती थी, कि दिल्ली में पिछले दस सालों से रहने के दौरान उर्दू ज़बान को लेकर किसी प्रोग्राम के हवाले से यह पहला ऐसा मौक़ा था, जिसका मैं गवाह बना। जश्न में शामिल और भी बहुत सी हस्तियां थीं, मसलन- मशहूर फिल्मकार मुज़फ्फर अली, गीतकार इरशाद कामिल, प्रोफेसर सीएम नईम, इंतिज़ार हुसैन, गोपीचंद नारंग, अभिनेत्री नंदिता दास, खालिद जावेद, कवि केदारनाथ सिंह, सलमा सिद्दीकी, ज़ियाउस्सलाम, बारान फारूक़ी, तरन्नुम रियाज़, शम्सुर्रहमान फारूक़ी, शम्सुल हक़ उस्मानी और अबुल करीम कासमी के अलावा और भी दिगर शख़्सियतें मौजूद थीं।
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Prof Waseem Barelavi in Jashn-e-Rekhta |
जश्न-ए-रेख़्ता के हवाले से यह कहने में कितना फख्र महसूस हो रहा है कि सिर्फ एक शख़्स को उर्दू से इस क़दर बेपनाह मुहब्बत हो गयी कि उसने उसे पूरी दुनिया में फैलाने का बीड़ा उठा लिया और वह इस काम में एक हद तक कामयाब भी हो गया। तो यहां सोचिए और गौर कीजिए कि अगर तमाम उर्दू पढ़ने, बोलने, समझने वाले लोग उर्दू से या हिंदी से या अपनी सभी ज़बानों से ऐसी ही बेपनाह मुहब्बत करें, तो मैं समझता हूं कि वह दिन दूर नहीं, जब लोगबाग़ यह कहना बंद कर देंगे कि अंग्रेज़ी सभी ज़बानों पर भारी पड़ रही है। उर्दू हिंदुस्तान में ही पैदा हुई है, इसलिए इसके साथ बेअदबी करना तो खुद के साथ बेअदबी करने जैसा है। उर्दू, हिंदी की छोटी बहन है और ये दोनों ज़बानों ने मिलकर हमें गंगा-जमुनी तहज़ीब दी है, जिसकी मिसाल पूरी दुनिया में बड़े ही ऐहतराम के साथ दी जाती है। हालांकि सियासत और मज़हब ने ज़बानों का बड़ा ही नुकसान किया है और शायद यही वजह भी है कि उर्दू को मुसलमानों की ज़बान और हिंदी को हिंदुओं की ज़बान मान ली गयी है। लेकिन हमें मशकूर होना चाहिए संजीव सराफ का जिन्होंने रेख़्ता की नींव रखते वक्त मज़हब और सियासत को आड़े नहीं आने दिया और आड़े आते भी कैसे उर्दू से उनकी बेपनाह मुहब्बत जो मौजूद थी। संजीव की उर्दू से मुहब्बत, शुरू हुई रेख़्ता की अदबी रवायत और गंगा-जमुनी तहज़ीब की विरासत के हवाले से यह कहना लाज़मी होगा कि- ‘‘उर्दू हमारे मुल्क की वाहिद ज़बान है। गंगा की जिसमें रूह तो जमुना की जान है।।’’