Friday, April 22, 2011

खोखली बुनियादें

        
           संस्कृति, परंपरा, आदर्श, तहज़ीब, रीति रिवाज़ और शरियत जैसे बड़े वज़नदार शब्द सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं। और ये भी कि इनको शिद्दत से मानना चाहिए और इनका पालन करना चाहिए जिससे समाज में कोई बुराई जड़ न कर जाए। मगर यही शब्द कभी कभार जड़ता का रूप लेकर इंसानी जि़दगी में सड़ांध पैदा करने लगते हैं और इन शब्दों की आवाज़ तब इतनी बदबूदार हो जाती है कि इंसान अपने कान सिकोड़ने लगता है। ऐसे शब्दों को नहीं सुनना चाहता।

            उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक कस्बा है बहादुरगंज। वहां मुसलमानों की अक्सरियत है। हिंदू विरादरी भी है लेकिन बहुत कम। मुस्लिम बहुल इलाका होने की वजह से वहां इस्लामी तहजीब की झलक चारों तरफ दिखाई देती है, मगर वह तहजीब सिर्फ बाहरी आवरण भर है। उस तहजीब की बेरंग सूरतें तो उस आवरण के भीतर मौजूद हैं। और विडंबना देखिए कि इन सूरतों में एक भी सूरत किसी पुरूष की नहीं है। पुरूष सत्तात्मक इस समाज ने औरत के पैरों में धर्म और परंपरा की बेडि़यां डालकर उन्हें किस तरह तड़पने पर मजबूर कर दिया है, इसकी बानगी उस कस्बे के घरों की खिड़कियों से असहाय झांकते उन अबला चेहरों को पढ़कर देखा जा सकता है। वो चेहरे हैं उन लड़कियों के जिन्हें शादी के बाद या तो छोड़ दिया गया है या तलाक दे दिया गया है। उस कस्बे में 50 प्रतिशत ऐसी लड़कियां हैं, एक घर में चार लड़कियों में से दो लड़कियां तलाकशुदा हैं या उन्हें उनके पतियों द्वारा प्रताडि़त कर छोड़ दिया गया है। समाज के लोकलाज से डरी सहमी, अवसादग्रस्त ये लड़कियां अपने मायके में अपने छोटे बच्चों को लेकर किसी कैदी की तरह कैद हैं। भरी जवानी में तलाक का दंश झेल रही इन लड़कियों की पहाड़ सी जिंदगी सिर्फ अल्लाह मियां के भरोसे कैसे कट रही है, इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। और गरीब मां बाप के पास इतना पैसा नहीं कि वो अपनी बेटियों की मान मर्यादा के लिए केस लड़ सकें।
          कबीर दास जी कहते हैं  ‘‘खाला घरे बेटी ब्याहे, घरहीं में करे सगाई।’’ उन लड़कियों के हालात के मद्देनजर इन पंक्तियों की प्रासंगिकता यह है कि मुसलमानो में चार शादियां जायज हैं लेकिन इन चार शादियो के लिए कैसी कैसी कितनी सूरतें हैं, ये ज्यादातर मुसलमान या यूं कहें तो 90 प्रतिशत मुसलमान इसे नहीं जानते। और शरियत ये कि दूध के रिश्ते को छोड़कर किसी भी लड़की से शादी जायज मानी जाती है। ऐसी स्थिति में चाचा, मामा, बुआ, मौसी की लड़की या गांव की किसी और हमबिरादर लड़की से वहां का कोई भी लड़का शादी कर सकता है। इस्लामी शरीयत और तहजीब के चश्में से देखें तो यह अच्छा लग सकता है, लेकिन जब इसके सामाजिक परिणाम को देखते हैं तो गुस्सा फूट पड़ता है।
        दरअसल इसके पीछे एक जबरदस्त कारण है मुस्लिमों का अशिक्षित होना। मुसलमानों में साक्षरता की दर बहुत ही कम है। अगर वो पढ़ते भी हैं तो सिर्फ अपनी धार्मिक किताबो और शरीयत को ही पढ़ते हैं। इनके अंदर दुनिया, समाज की समझदारी कम है और रूढि़वादिता, कट्टरता ज्यादा है, जिसके परिणाम स्वरूप चार शादी को जायज मानकर तीन को तलाक देकर उनकी जिंदगी बद से बदतर बनाने जैसा घृणित काम करते हुए ये बिल्कुल नहीं सकुचाते, बल्कि ये कहते हैंदृ हम धर्म पे हैं क्योंकि हम जायज पे हैं। मगर तलाक के बाद की नाजायज होने वाली चीजें ये नहीं समझ पाते। यहां तक कि एक घर में जिसने तीन शादियां कर सबको छोड़ दिया है उसी की तीन बहने तलाक लिए बैठी हैं। अब आप सोच सकते हैं कि जहां इस तरह की तहजीब होगी वहां का माहौल क्या होगा? एक तो इनमे शिक्षा की वैसे ही कमी है, दूसरे दारूल ओलूम के मुफ्ती मुल्ला रोज़ कोई न कोई फतवा देते रहते हैं। अभी पिछले दिनो एक फतवा आया था कि ‘‘ मुस्लिम महिलाओं का मर्दों के साथ काम करना गैरइस्लामी है।’’ क्या ये बताएंगे कि तलाक देकर या छोड़कर उन लड़कियों की जिंदगी बरबाद करना कितना इस्लामी है, जिनकी गोद में एक दो बच्चे हैं। ये ओलमा बहादुरगंज या उस जैसे सैकड़ों गांवों और कस्बों की लड़कियों, औरतों के हालात पर क्यों कुछ नहीं बोलते? क्या सारे फतवे औरतो के लिए है, मर्दों के लिए कुछ नहीं? क्या इन्हें इन सब बातों का इल्म नहीं? है। क्योंकि बहादुरगंज जैसे सैकड़ों गांवों और कस्बों के कुछ लोग ही सही उसी दारूल ओलूम में पढ़ाई करते हैं।
  ये सारे ओलमा भी एक तरह से सत्ताभोगी हैं, जो धार्मिक लबादा पहने अपने मतलब की शरई सियासत करते हैं। मुसलमान गरीब हैं, अशिक्षित हैं, बेरोजगार हैं और लाचार हैं मगर इन मुल्लाओं को इनकी चिंता नहीं है। ये तो बस तब्लीग की दावत देते हैं और बड़ी बड़ी किताबी, शरई बातें करना जानतेे हैं। ये हाईटेक ओलमा अपनी दुकान चलाने के लिए टीवी पर आकर सानिया मिर्जा की शादी पर और उसके स्कर्ट पर तो ख़ूब बोलते हैं, मगर उन अबलाओं, तलाकशुदा लड़कियों की जिंदगी को देखते हुए, जानते हुए भी कुछ नहीं बोलते। हिन्दुस्तान में आज 90 प्रतिशत मुसलमानो को ये नहीं पता कि मानवाधिकार क्या है? महिला आयोग क्या है? ये खुद के लिए भी कोई कानूनी लड़ाई से डरते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप हमेशा दबे कुचले रहते हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ इनमे कट्टरता ऐसी है कि अपने नजदीकी मस्जिदों में नमाज भले न पढ़ें मगर बाबरी मस्जिद बनवाकर वहां नमाज पढ़ने की ख्वाहिश पाल रखे हैं।
देखा जाए तो मुसलमानो के लिए हिन्दुस्तान से सुरक्षित जगह पूरी दुनिया में कहीं नहीं, लेकिन फिर भी अपने आस पड़ोस की बुराईयों को नजरअंदाज कर दूसरे मुल्कों के मुसलमानों की हालत पर तरस खाकर कहते हैंदृ‘‘हमें सताया जा रहा है।’’ इन तमाम मौलवी, मुफ्ती, मुल्लाओं को ये सोचना चाहिए कि मुसलमानो में शिक्षा का विस्तार कैसे हो, तभी बहादुरगंज जैसी जगहों पर लड़कियों के साथ हो रहे इन अत्याचारों को रोका जा सकता है। और एक जायज़ समाज का निर्माण किया जा सकता है।  

1 comment:

  1. bahut hi sahi mudda uthaya hai wasim sir aur ab in logo ko waqt rhte huye sachet ho jana chahiye nahi to aane wale dino me isse bhi badtar halat ho skte hai aur fir aisa samay bhi aaskta hai ki narkiy jiwan jine k liye mazboor hona padega

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