Thursday, December 15, 2011

गुलज़ार से बातचीत का एक टुकड़ा


एक रवायत का नाम है देवानंद  गुलज़ार 

          देव साहब का इस दुनिया से जाना, एक दुनिया का जाना है। देव और उनकी फिल्मों के बारे में बहुत से लोगों ने बहुत कुछ कहा है। मैं सिर्फ देव साहब के वजूद की बात करूंगा। देव साहब को देखना, उनसे मिलना, उनकी बात करना, ऐसा ही है जैसे उन्हें जीना। जीना भी ऐसे के जैसे शोखियों की सारी हदें उनके वजूद तक जाकर खत्म हो जाती हैं। रवायतों की हाजत उन्हें कभी नहीं रही। हां जब भी वो किसी चीज की हाजत करते थे, वह रवायत जरूर बन जाती थी। बालीवुड में बेमिसाल वजूद के एक अकेले शाहकार थे देव साब। गालिब की शोख, लुत्फ अंदोज मिसरों की तरह थी उनकी अदाकारी, गोया वो हंसें तो मुहब्बत शुरू हो और अगर गमगीन हों तो सबके जेहनो दिल में दर्द की इंतेहाई सूरत नजर आ जाये। फिर तो उस गम के आलम में दिन तो ढल जाता है, लेकिन रात का गुजरना मुश्किल हो जाता है। सरमस्ती, बेबाकी, लुत्फ अंदाजी जैसी चीजें तो उनकी अदाकारी के ऐसे वक्फे थे, जिसे वे जब चाहे जैसे चाहते थे परदे पर उतार देते थे। हालांकि एक आलम आया था जब उन्हें सुरैया से मुहब्बत हुई थी। उस वक्त तो ऐसा लगा था कि देव साहब अपनी शोखियां खो बैठेंगे, लेकिन जिंदगी से भरपूर, हमेशा जवां दिल और हर दिल अजीज देवानंद ने हकीकत की जिंदगी को हकीकत ही रहने दिया और परदे की जिंदगी को परदे पर। इंसान के अंदर जब मुहब्बत अपना घर बना ले तो उसका दिल शायद ही कभी टूटता है। देवानंद भी उसी मुहब्बत का एक नाम है, जिसके पहलू में ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ की इमेज अभी भी बरकार है। आखिरी वक्त भी देव साहब को देखकर यही लगता था कि कलाकार इस दुनिया से विदा होते वक्त अपना जिस्म छोड़ जाते हैं, लेकिन उनकी रूह यहीं रह जाती है। बालीवुड को राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की तिकड़ी की वजह से भी याद किया जायेगा। इन तीनों को अपना अभिनय का अजूबा अंदाज था और जीने का भी। तीनों एक दूसरे से जुदा, पर कितने करीब लगते थे तीनों। लगता था एक से जो छूट गया वह दूसरे ने पकड़ लिया है और दूसरे से जो बचा वह तीसरे ने। उनमें से जब भी किसी एक की बात चलेगी तो बाकी दोनों का जिक्र निश्चित रूप से आएगा। अगर मैं ये कहूं तो ये गल्त न होगा कि उनमें से कोई भी एक बाकी दोनों के बिना अधूरा था। उनकी सार्थकता साथ होने में थी। शायद इसीलिए कुदरत ने उन्हें एक ही वक्त नवाजा था। इन तीनों में  बुनियादी फर्क की बात करें तो राज कपूर और दिलीप कुमार की सिनेमेटिक इमेज पर उम्र की धूल जमा हुई सी लगती है, लेकिन देवानंद उम्र के आखिरी पड़ाव में भी वैसे थे जैसे अभी-अभी गाये चले जा रहे हों कि... मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया। 
       वाकई इस सदाबहार और जवां दिल अदाकार के लिए उम्र कभी आड़े नहीं आयी। अगर जिंदगी जीने के जज़्बे और रोमांटिक सलीके की जब भी बात आयेगी, देव साहब हमारे बीच गाते-मुस्कुराते नजर आ जायेंगे..... है अपना दिल तो आवारा, न जाने किसपे आयेगा.... और बहुत मुमकिन है कि वहीं से एक और दास्तान-ए-मुहब्बत शुरू हो जाये और हम एक और मिसाल के वजूद में खुद को ढूंढते नजर आयें। शुक्रिया देव साहब। हमें हमारा वजूद याद दिलाने के लिए। अगर आप दिलीप साहब और राजकपूर ना होते तो फिल्मी दुनिया की तस्वीर आज वैसी ना होती जैसी है! 

3 comments:

  1. देव साहेब को भुलाना नामुमकिन हैं आभार

    ReplyDelete
  2. बहुत शानदार लिखा है, गुलज़ार साहब ने. देव आनंद का व्यक्तित्व था ही ऐसा कि उसे शायराना गद्य में ही बयान किया जा सकता है.

    ReplyDelete