Sunday, July 15, 2012

किसान

पांव में तेज दर्द है
और फटी बिवाई से खून झांक रहा है
पूरा बदन 
थकन के बोझ से दबा हुआ है
घुटने यूं रूठे हैं
कि अब उठने नहीं देंगे
मगर फिर भी 
उठना तो पड़ेगा
सूरज उगाने की
जिम्मेदारी जो ले रखी है मैने...

यह किसी आफिस की मुलाजिमत नहीं
जो दरवाजे पर छुट्टी का बोर्ड लगाकर
झूठी बीमारी के बहाने
घर पर आराम फरमाए,
पानी सरक गया तो तो न जाने 
कितने दिनों के बाद लौटेगा
और ऐसे इंतजारों में
फसलें गुजर जाया करती हैं...

पेट को रोज
दो वक्त की तन्ख्वाह चाहिए
यह किसी महकमे का नौकर नहीं
जो महीनों की तन्ख्वाह न पाकर भी
अपना काम करता रहता है...

मुंह अंधेरे से लेकर
शाम तक के सारे लम्हों से होकर
धीरे-धीरे कई रोज में 
पकता है एक दाना... 

2 comments:

  1. प्रिय भाई वसीम,
    अच्छी कविता है,लकिन एक बात कहूँ, किसान की यह हाड तोड़ म्हणत केवल अपने पेट के लिये नहीं होती, वह समाज भर की भूख का इंतजाम करता है. अगर अनाज खाया जाना है तो कोई न कोई अनाज उगायेगा भी और वह किसान है. किसी कविता में उसके इस बड़े दायित्व को ध्वनित करो, केवल उसकी कठिनाइयाँ कहना उसकी कुल महानता को अनदेखा करना है.. सोचना.

    अशोक गुप्ता

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