Tuesday, December 18, 2012
Thursday, December 13, 2012
Tuesday, December 11, 2012
नग्मानिगार इब्राहिम अश्क से एक छोटी सी गुफ्तगू
रूमानी ज़ुबान के एक स्कूल हैं दिलीप साहब
आज दिलीप साहब की यौम-ए-पैदाइश का मुबारक दिन है। 90 साल के मरहले पर खड़े दिलीप साहब के बेमिसाल वजूद के वैसे तो बहुत सारे पहलू हैं। लेकिन उनमें से कुछ पहलू ऐसे हैं जिनके बारे में ये दुनिया बहुत कम जानती है। उन्हीं में से कुछ के बारे में वसीम अकरम को तफ्सील से बता रहे हैं बालीवुड के मशहूर नग्मानिगार इब्राहिम अश्क...
उर्दू एक शीरीं जबान है। एक ऐसी ज़बान जिसकी तासीर बहुत मीठी होती है। जाहिर है, जब ऐसी जबान किसी शख्सीयत का हिस्सा बनती है, तो वह शख्सीयत महज एक फनकाराना शख्सीयत भर नहीं रहती, बल्कि उसकी जिंदगी का वजूद "कम्प्लिटनेस" का एक पैमाना बन जाता है। इसी पैमाने की तर्जुमानी करते हैं मशहूर अदाकार दिलीप कुमार साहब।
दिलीप साहब को उर्दू जबान से बेपनाह मुहब्बत है। वे जब किसी महफिल का हिस्सा बनते हैं और अपनी मुबारक जबान से लोगों से मुखातिब होते हैं, तो पूरी महफिल इस शिद्दत-ओ-एहतराम से उनको सुनती है, मानो सुनने में अगर एक भी लफ्ज छूट गया तो उसकी जिंदगी से एक वक्फा कम हो जायेगा। यही वजह है कि एक जमाने में उनके दीवानों में पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, प्रकाश चंद्र शेट्टी जैसी बडी सियासी शख्सीयतें भी शामिल रही हैं।
दिलीप साहब की इस शख्सीयत को समझने के लिए जरा पीछे जाकर तवारीख के कुछ सफहों पर नजर डालना जरूरी है, कि आखिर इस बेमिसाल वजूद की जड़ें क्या कहती हैं। दरअसल, दिलीप साहब का त'अल्लुक पाकिस्तान के पेशावर से है और उनका नाम मुहम्मद यूसुफ खान है। एक अरसा पहले मुंबई में आ बसे उनके वालिद का फलों का कारोबार था। उनकी परवरिश पूरी तरह से पेशावरी माहौल में हुई थी। दिलीप साहब भी कभी-कभार फलों के कारोबार को संभाला करते थे। लेकिन उनके अंदर एक फनकार उनसे गुफ्तगू करता था। तब के जमाने में मुंबई में कई थिएटर चलते थे, जहां ड्रामों में लोगों की बहुत जरूरत पड़ती थी। एक बहुत मशहूर थिएटर था "पारसी थिएटर", जहां सोहराब मोदी और आगा हश्र कश्मीरी के ड्रामे हुआ करते थे। इन ड्रामों की जबान उर्दू हुआ करती थी। आगे चलकर इन्हीं ड्रामों पर फिल्में बननी शुरू हुईं और यहीं से शुरू हुआ दिलीप साहब की फनकारी का सिलसिला। वैसे तो बतौर हीरो उनकी पहली फिल्म थी "ज्वार भाटा", जो चल नहीं पायी। लेकिन उन्होंने जब फिल्म "शहीद" में सरदार भगत सिंह का किरदार निभाया, तब तक उनके वालिद साहब को यह बात नहीं मालूम थी कि उनका बेटा एक अदाकार बन गया है। शहीद में दिलीप साहब के मरने का सीन देखकर उन्हें बड़ा दुख हुआ। लेकिन जैसे-जैसे दिलीप साहब की मकबूलियत बढ़ी, वालिद की नाराजगी कुछ कम हो गयी।
तब के ड्रामों में कलाकार पुरजोर आवाज में चीख-चीख कर डायलाग बोला करते थे। क्योंकि दूर बैठे दर्शकों तक आवाज पहुंचाने की जिम्मेदारी होती थी। यही चलन फिल्मों में भी आया, लेकिन जब दिलीप साहब आये तो उन्होंने इस चलन को तोड़ दिया और बहुत नर्म लब-ओ-लहजे में, बहुत धीरे से रूमानी डायलाग बोलने की एक नयी रवायात कायम की, जो आज भी न सिर्फ जिंदा है, बल्कि इस अदायागी को बाकायदा एक मकबूलियत हासिल है। रूमानी ज़बान की यह रवायात एक स्कूल बन गयी, जिससे मुतास्सिर होने वालों में अमिताभ बच्चन, नसीरुद्दीन शाह, संजीव कुमार और इनके बाद की पीढ़ी शामिल है। यह दिलीप साहब की उर्दू ज़बान से मुहब्बत ही थी, जो शीरीं जबान को रूमानी अंदाज में जीने के कायल थे। दिलीप साहब के जमाने में जो फिल्में लिखा करते थे, वे सब उर्दूदां थे और दुनिया की तमाम 'क्लासिक लिटरेचर' यानि आलमी अदब को जानने वाले हुआ करते थे। इसका उन पर बहुत असर हुआ। शुरू में तो नहीं, लेकिन अपनी मकबूलियत के बाद वे स्क्रिप्ट में कई बार तब्दीलियां करवाते थे, जब तक कि उस फिल्म इस्तेमाल उर्दू लफ्ज़ पूरी शिद्दत से उनके दिल में नहीं उतर जाते थे। आज भी बालीवुड यह एहसान मानता है की दिलीप साहब ने ही इंडस्ट्री को डायलाग बोलने की एक उम्दा रवायत दी।
उर्दू की मेयारी शायरी के मुरीद दिलीप साहब को पढ़ने का बहुत शौक रहा है। खास तौर से ग़ज़लों और नज्मों को वे खूब पढ़ते हैं। उनके लिखने के बारे में तो कोई इल्म नहीं है, लेकिन उनकी जुबान से शे'र को सुनकर ऐसा लगता है कि वह शे'र किसी और का नहीं, बल्कि खुद उन्हीं का लिखा हुआ है। यह बहुत बड़ी फनकारी है कि किसी के अशआर को अपनी जुबां पर लाकर उसे अपना बना लिया जाये। यही नहीं दिलीप साहब को तकरीबन आठ से दस जबानें आती हैं। यह मिसाल ही है कि उन्हें किसी जबान को सीखने के लिए बहुत ज़रा सा ही वक्त लगता है। वे जहां भी जाते हैं, वहां के लोगों से कुछ ही देर की गुफ्तगू में उनकी ही जबान में बात करने लगते हैं।
एक वाकया मुझे याद है। मेरी ग़ज़लों के एल्बम, जिसे तलत अज़ीज़ ने गाया था, की लांचिंग के मौके पर वे आये थे। उन्हीं के हाथों से उस एल्बम की लांचिंग थी। जब दिलीप साहब ने माइक हाथ में लिया और कहा- "मेरे मोहतरम, बुजुर्ग व दोस्तों, ख्वातीन-ओ-हजरात, आदाब!" तो सारी महफिल एकदम खामोश हो गयी और ऐसा पुरसुकून मंजर ठहर गया गोया अब उनकी जबान से खूबसूरत लफ्जों की बारिश होने वाली है। उन्होंने जब आगे बोलना शुरू किया, तो उर्दू ग़ज़ल की तवारीख कुछ ऐसे बयान फरमाई, गोया कोई प्रोपेफसर अपनी क्लास में खड़ा लेक्चर दे रहा हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि दिलीप साहब किसी जबान को सिर्फ पढ़ते नहीं थे, बल्कि उसे अपने दिल में उतार लेते थे। एक बार लंदन के रायल अल्बर्ट हाल में लता जी के प्रोग्राम का आगाज करने के लिए उन्हें बुलाया गया था। उस प्रोग्राम की रिकार्डिंग को आज भी रिवाइंड करके सुना जाता है। उनकी आवाज़ और ज़बान का जादू ही है कि जब वे किसी महफिल या प्रोग्राम की सदारत करते थे, तो उसकी जान बन जाते थे। शायरी को समझना और वक्त की नजाकत को देख उसका बेहतरीन इस्तेमाल करना बहुत बड़ी बात है। यह एक ऐसा फन है, जो शायर न होते हुए भी उनको एक शायर से ज्यादा मकबूल बनाता है। यही वजह है कि दिलीप साहब जब भी कोई शेर पढ़ते हैं, तो वे उस वक्त और मौजू को ताजगी बख्श देते हैं। उनकी जबान से आज तक कहीं भी सस्ती शायरी नहीं सुनी गयी है। वे बेहद दिलकश और पुरअसर अंदाज़ में शेर पढ़ते हैं।
अरसा पहले जब मैं दिल्ली से निकलने वाली "शमा" मैगजीन में था, उस वक्त मुंबई से उनके खत आते थे। आपको यकीन नहीं होगा कि वे खत किसी कंपनी से बनी कलम से नहीं, बल्कि अपने हाथों से बनायी गयी बरू की लकड़ी की कलम को स्याही में डुबो कर उर्दू में ही लिखते थे। उनकी लिखावट ऐसी होती थी, गोया कैलीग्राफी की गयी हो। यह वही शख्स कर सकता है, जिसे ज़बान से बेपनाह मुहब्बत हो। दिलीप साहब का वजूद तमाम उर्दूदानों के लिए किसी कीमती सरमाये से कम नहीं।
आज दिलीप साहब की यौम-ए-पैदाइश का मुबारक दिन है। 90 साल के मरहले पर खड़े दिलीप साहब के बेमिसाल वजूद के वैसे तो बहुत सारे पहलू हैं। लेकिन उनमें से कुछ पहलू ऐसे हैं जिनके बारे में ये दुनिया बहुत कम जानती है। उन्हीं में से कुछ के बारे में वसीम अकरम को तफ्सील से बता रहे हैं बालीवुड के मशहूर नग्मानिगार इब्राहिम अश्क...
Ibrahim Ashk |
दिलीप साहब को उर्दू जबान से बेपनाह मुहब्बत है। वे जब किसी महफिल का हिस्सा बनते हैं और अपनी मुबारक जबान से लोगों से मुखातिब होते हैं, तो पूरी महफिल इस शिद्दत-ओ-एहतराम से उनको सुनती है, मानो सुनने में अगर एक भी लफ्ज छूट गया तो उसकी जिंदगी से एक वक्फा कम हो जायेगा। यही वजह है कि एक जमाने में उनके दीवानों में पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, प्रकाश चंद्र शेट्टी जैसी बडी सियासी शख्सीयतें भी शामिल रही हैं।
Dilip Kumar |
तब के ड्रामों में कलाकार पुरजोर आवाज में चीख-चीख कर डायलाग बोला करते थे। क्योंकि दूर बैठे दर्शकों तक आवाज पहुंचाने की जिम्मेदारी होती थी। यही चलन फिल्मों में भी आया, लेकिन जब दिलीप साहब आये तो उन्होंने इस चलन को तोड़ दिया और बहुत नर्म लब-ओ-लहजे में, बहुत धीरे से रूमानी डायलाग बोलने की एक नयी रवायात कायम की, जो आज भी न सिर्फ जिंदा है, बल्कि इस अदायागी को बाकायदा एक मकबूलियत हासिल है। रूमानी ज़बान की यह रवायात एक स्कूल बन गयी, जिससे मुतास्सिर होने वालों में अमिताभ बच्चन, नसीरुद्दीन शाह, संजीव कुमार और इनके बाद की पीढ़ी शामिल है। यह दिलीप साहब की उर्दू ज़बान से मुहब्बत ही थी, जो शीरीं जबान को रूमानी अंदाज में जीने के कायल थे। दिलीप साहब के जमाने में जो फिल्में लिखा करते थे, वे सब उर्दूदां थे और दुनिया की तमाम 'क्लासिक लिटरेचर' यानि आलमी अदब को जानने वाले हुआ करते थे। इसका उन पर बहुत असर हुआ। शुरू में तो नहीं, लेकिन अपनी मकबूलियत के बाद वे स्क्रिप्ट में कई बार तब्दीलियां करवाते थे, जब तक कि उस फिल्म इस्तेमाल उर्दू लफ्ज़ पूरी शिद्दत से उनके दिल में नहीं उतर जाते थे। आज भी बालीवुड यह एहसान मानता है की दिलीप साहब ने ही इंडस्ट्री को डायलाग बोलने की एक उम्दा रवायत दी।
उर्दू की मेयारी शायरी के मुरीद दिलीप साहब को पढ़ने का बहुत शौक रहा है। खास तौर से ग़ज़लों और नज्मों को वे खूब पढ़ते हैं। उनके लिखने के बारे में तो कोई इल्म नहीं है, लेकिन उनकी जुबान से शे'र को सुनकर ऐसा लगता है कि वह शे'र किसी और का नहीं, बल्कि खुद उन्हीं का लिखा हुआ है। यह बहुत बड़ी फनकारी है कि किसी के अशआर को अपनी जुबां पर लाकर उसे अपना बना लिया जाये। यही नहीं दिलीप साहब को तकरीबन आठ से दस जबानें आती हैं। यह मिसाल ही है कि उन्हें किसी जबान को सीखने के लिए बहुत ज़रा सा ही वक्त लगता है। वे जहां भी जाते हैं, वहां के लोगों से कुछ ही देर की गुफ्तगू में उनकी ही जबान में बात करने लगते हैं।
एक वाकया मुझे याद है। मेरी ग़ज़लों के एल्बम, जिसे तलत अज़ीज़ ने गाया था, की लांचिंग के मौके पर वे आये थे। उन्हीं के हाथों से उस एल्बम की लांचिंग थी। जब दिलीप साहब ने माइक हाथ में लिया और कहा- "मेरे मोहतरम, बुजुर्ग व दोस्तों, ख्वातीन-ओ-हजरात, आदाब!" तो सारी महफिल एकदम खामोश हो गयी और ऐसा पुरसुकून मंजर ठहर गया गोया अब उनकी जबान से खूबसूरत लफ्जों की बारिश होने वाली है। उन्होंने जब आगे बोलना शुरू किया, तो उर्दू ग़ज़ल की तवारीख कुछ ऐसे बयान फरमाई, गोया कोई प्रोपेफसर अपनी क्लास में खड़ा लेक्चर दे रहा हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि दिलीप साहब किसी जबान को सिर्फ पढ़ते नहीं थे, बल्कि उसे अपने दिल में उतार लेते थे। एक बार लंदन के रायल अल्बर्ट हाल में लता जी के प्रोग्राम का आगाज करने के लिए उन्हें बुलाया गया था। उस प्रोग्राम की रिकार्डिंग को आज भी रिवाइंड करके सुना जाता है। उनकी आवाज़ और ज़बान का जादू ही है कि जब वे किसी महफिल या प्रोग्राम की सदारत करते थे, तो उसकी जान बन जाते थे। शायरी को समझना और वक्त की नजाकत को देख उसका बेहतरीन इस्तेमाल करना बहुत बड़ी बात है। यह एक ऐसा फन है, जो शायर न होते हुए भी उनको एक शायर से ज्यादा मकबूल बनाता है। यही वजह है कि दिलीप साहब जब भी कोई शेर पढ़ते हैं, तो वे उस वक्त और मौजू को ताजगी बख्श देते हैं। उनकी जबान से आज तक कहीं भी सस्ती शायरी नहीं सुनी गयी है। वे बेहद दिलकश और पुरअसर अंदाज़ में शेर पढ़ते हैं।
अरसा पहले जब मैं दिल्ली से निकलने वाली "शमा" मैगजीन में था, उस वक्त मुंबई से उनके खत आते थे। आपको यकीन नहीं होगा कि वे खत किसी कंपनी से बनी कलम से नहीं, बल्कि अपने हाथों से बनायी गयी बरू की लकड़ी की कलम को स्याही में डुबो कर उर्दू में ही लिखते थे। उनकी लिखावट ऐसी होती थी, गोया कैलीग्राफी की गयी हो। यह वही शख्स कर सकता है, जिसे ज़बान से बेपनाह मुहब्बत हो। दिलीप साहब का वजूद तमाम उर्दूदानों के लिए किसी कीमती सरमाये से कम नहीं।
Tuesday, November 6, 2012
Wednesday, October 31, 2012
Tuesday, October 9, 2012
Saturday, October 6, 2012
Wednesday, October 3, 2012
Saturday, September 22, 2012
Saturday, September 8, 2012
Monday, September 3, 2012
Saturday, August 11, 2012
Monday, August 6, 2012
Saturday, July 28, 2012
Sunday, July 15, 2012
किसान
पांव में तेज दर्द है
और फटी बिवाई से खून झांक रहा है
पूरा बदन
थकन के बोझ से दबा हुआ है
घुटने यूं रूठे हैं
कि अब उठने नहीं देंगे
मगर फिर भी
उठना तो पड़ेगा
सूरज उगाने की
जिम्मेदारी जो ले रखी है मैने...
यह किसी आफिस की मुलाजिमत नहीं
जो दरवाजे पर छुट्टी का बोर्ड लगाकर
झूठी बीमारी के बहाने
घर पर आराम फरमाए,
पानी सरक गया तो तो न जाने
कितने दिनों के बाद लौटेगा
और ऐसे इंतजारों में
फसलें गुजर जाया करती हैं...
पेट को रोज
दो वक्त की तन्ख्वाह चाहिए
यह किसी महकमे का नौकर नहीं
जो महीनों की तन्ख्वाह न पाकर भी
अपना काम करता रहता है...
मुंह अंधेरे से लेकर
शाम तक के सारे लम्हों से होकर
धीरे-धीरे कई रोज में
पकता है एक दाना...
Saturday, July 14, 2012
Saturday, June 30, 2012
Saturday, June 16, 2012
Friday, June 15, 2012
Thursday, June 14, 2012
सूफी गायिका बेग़म आबिदा परवीन से बातचीत का एक टुकड़ा
खिराज-ए-अकीदत - शहंशाह-ए-गजल मेहदी हसन
18 जुलाई, 1927- 13 जून, 2012
कायनात ने खो दिया सुरों का नूर-ए-मुजस्सम
Mehdi Hasan & Abida Parveen |
बेहद अफसोस है कि जनाब मेहदी हसन साहब इस दुनिया से रुखसत हो गये. आज सारा आलम सोगवार सा बैठा उनके जनाजे को ऐसे देख रहा है जैसे वे अभी अपनी गहरी नींद से बेदार होंगे और फरमायेंगे, जरा मेरा हारमोनियम लाना, एक सुर खटक रहा है... मगर काश ऐसा होता. इसी एहसास को शिद्दत से महसूस करते हुए और चश्म-ए-नम से सराबोर हुईं मशहूर-ओ-मआरूफ सूफी गायिका आबिदा परवीन से जब मैंने बात की तो लग्जिशी जुबान में उन्होंने अपने दर्द को कुछ यूं बयान किया...
शहंशाह-ए-गजल जनाब मेहदी हसन का इस दुनिया से जाना महज एक इंसानी हयात का जाना नहीं है, बल्कि पूरी कायनात से एक ऐसी रूह का जाना है जो मौसिकी के लिए एक नूर-ए-मुजस्सम थे. अल्लाह उनकी रूह को जन्नत में आला से आला मुकाम अता फरमाए. आज पूरी कायनात ने जो खोया है, मैं समझती हूं कि शायद इससे पहले फन की किसी दुनिया ने कोई भी ऐसी नायाब चीज नहीं खोयी होगी. वे इस दुनिया के तमाम गुलोकारों से बहुत अलग थे. गजल व नज्म को गाने के लिए जिस मिजाज की जरूरत होती है, वे उसी मिजाज को शिद्दत से जीते थे. उनकी आवाज को सुनकर ही हमें ये एहसास होने लगता है कि वह गजल यह नज्म अब सिर्फ गजल एक नज्म नहीं रह गयी, बल्कि उसने अपनी रूहानियत को जी लिया. गजलें और नज्में उनकी जुबान पर उतरने के लिए अपने वजूद को पाने के लिए बेकरार रहा करती थीं.
कम से कम मेरे लिए तो यह कहना बहुत ही मुश्किल है कि उनके बाद गजल की इस रूहानी विरासत को कोई संभाल पायेगा नहीं, महज जिंदा रखने की रवायत तो दूर की बात है. गजल और मौसिकी को लेकर उनके अंदर जो सलाहियत थी, जो कैफियत थी, वह दुनियावी नहीं थी, बल्कि हकीकी थी. गजल के हर एक शे‘र और शे‘र के हर एक लफ्ज को वो अपनी जुबान नहीं, बल्कि अपनी रूह दे देते थे, जिसे सुनने के बाद शायारी और शायर की कैफियत का अंदाजा लगाना आसान हो जाता है. मेहदी साहब की यही वह सबसे मखसूस सलाहियत थी, जिसे महसूस कर मशहूर शायर फैज अहमद फैज ने अपनी गजल-गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले... को उनके नाम करते हुए कहा था, 'इसके मुगन्नी (गायक) भी आप, मौसिकार (संगीतकार) भी आप और इसके शायर भी आप ही हैं.‘
मुझे उनकी हर मुलाकात का एक-एक रूहानी मंजर बाकायदा ऐसे याद है जैसे कि एक बच्चा अपना सबक याद रखता है. वे जब भी मिलते थे, सिवाय मौसिकी यानि संगीत के किसी और मसले पर बात ही नहीं करते थे. मुख्तलिफ शायरों की सादा-मिजाज गजलों को भी वे अपनी जुबान देकर उसे बाकमाल नग्मगी में तब्दील कर देते थे. ऐसा इसलिए, क्योंकि वे गजलों को गाने से पहले खूब रियाज़ करते थे. दिन-दिन भर हारमोनियम लिए बैठे रहते थे और एक ही गजल को मुख्तलिफ रागों पर कसा करते थे. गजलों के जरिये रूह में उतरने की वो कूवत सिर्फ मेहदी साहब में ही थी. परवीन शाकिर की गजल- कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की... को गाते हुए वे खुद भी इतने शनास हो जाते थे कि प्रोग्राम पूरी तरह से खुश्बूजदा हो जाता था. रंजिश ही सही... तो उनका माइलस्टोन ही है. मीर की गजल- ये धुआं कहां से उठता है को गाते हुए वे पूरे माहौल को शादमानी के ऐसे आलम में लेकर चले जाते थे, जिसे अब कहीं पर तलाश करना बहुत ही मुश्किल है. गजल सुनने-सुनाने का अब वैसा मंजर शायद ही मिले. जिंदगी के आखिरी वक्त तक अपने सीने में बंटवारे का दर्द समेटे रहे और उफ तक न किया. ऐसा खुदा की सल्तनत का एक नायाब इंसान ही कर सकता है. उनको दिल से जज्बाती खिराज-ए-अकीदत. अल्लाह उनकी रूह को जन्नत बख्शे... आमीन...!
Tuesday, May 29, 2012
Saturday, May 26, 2012
Monday, May 14, 2012
Saturday, April 28, 2012
Saturday, April 21, 2012
Saturday, April 14, 2012
प्रेमचंद की कहानियों में बदलाव
यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि प्रेमचंद ने अपनी आखिरी कहानी ‘कफन’ मूलतः उर्दू में लिखी थी और हिंदी में इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ था। लेकिन अनुवाद के दौरान कफन की कहानी में बदलाव आ गया। दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया की पाक्षिक पत्रिका ‘जौहर’ के अप्रैल, 2012 अंक के एक लेख में प्रेमचंद की आखिरी कहानी ‘कफन’ के हिंदी रूपांतरण के बारे में कहा गया है कि यह मूल कहानी से कुछ अलग है। आज से तकरीबन आठ साल पहले जामिया में हिंदी के प्रोफेसर अब्दुल बिस्मिल्ला ने यह बात सामने लायी थी और अपने लेखों के जरिये कफन के मूल कथानक से छेड़छाड़, शाब्दिक बदलाव और वाक्य विन्यास में बदलाव की बात की थी। अब्दुल बिस्मिल्ला कहते हैं- ‘दरअसल, कई साल पहले जब मुझे इस बात की जानकारी हुई, तो सबसे पहले मैंने जामिया की लाइब्रेरी से वह मूल पांडुलिपि निकलवायी। उसको पढ़ने के बाद मैंने पाया कि मौजूदा वक्त में लगातार छप रही कहानी ‘कफन’ अपनी मूल पांडुलिपि से कुछ अलग है। तब मैंने इसके बारे में और ज्यादा जानकारी इकट्ठा करने के बाद कई लेख लिखे। दोनों में फर्क वाक्य विन्यास और उर्दू शब्दों के हिंदी अर्थ के रूप में है और कहीं-कहीं अनावश्यक शब्दों को भी जोड़ दिया गया है, जिससे उसके भाव में फर्क नजर आता है।’
गौरतलब है कि प्रेमचंद ने ‘कफन’ कहानी को 1935 में अपने जामिया प्रवास के दौरान जामिया की तात्कालिक पत्रिका ‘रिसाला जामिया’ के लिए लिखा था। रिसाला जामिया-दिसंबर, 1935 में मूल रूप से उर्दू में प्रकाशित कहानी ‘कफन’ हिंदी में पहली बार अप्रैल, 1936 में ‘चांद’ नामक पत्रिका में छपी। तब से लेकर आजतक वही हिंदी वाली कहानी ही छपती चली आ रही है। एक से दूसरी भाषा में अनुदित किताबों के बारे में अक्सर यह बात सामने आती रही है कि अनुदित रचना अपनी मूल रचना से कुछ अलग हो जाती है। लेकिन यह समस्या उर्दू और हिंदी जैसी भाषाओँ के लिए नहीं आनी चाहिए, जो एक दूसरे से बेहद करीब ही नहीं, बल्कि सहोदर मानी जाती हैं। ऐसे में प्रेमचंद की रचनाओं में भाषाई अंतर के साथ-साथ कथानक में अंतर आ जाना मौलिकता की दृष्टि से अखरता है।
प्रेमचंद ने अपने लेखन की शुरुआत में उर्दू में कहानियां लिखीं। बाद में वे हिंदी में लिखने लगे। इसकी वजह आर्थिक थी। खुद उन्होंने 1915 में अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को पत्र में लिख- ‘अब हिंदी लिखने का मश्क कर रहा हूं। उर्दू में अब गुजर नहीं।’ कायाकल्प से पहले तक के उनके उपन्यासों की मूल पांडुलिपि उर्दू में ही है। बाद में जब उनकी उर्दू की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद हुआ, तो कहीं-कहीं मौलिकता खोती नजर आयी। हिंदी के वरिष्ठ कथाकार, उपन्यासकार कहते हैं- ‘अनुवादकों ने अनुवाद करते समय कहीं-कहीं वाक्यों में बदलाव कर दिया है, ताकि पाठक प्रेमचंद को पूरी तरह समझ सके।’ हालांकि, अब्दुल बिस्मिल्ला इस बदलाव को गलत मानते हैं और कहते हैं- ‘अनुवाद के समय सिर्फ लिपि पर ध्यान दिया जाना चाहिए, उसकी कहानी पर नहीं। जैसा कि कहानी ‘पूस की रात’ के साथ हुआ। मौजूदा पूस की रात में कहानी का नायक हल्कू पूस की ठंडी रात में सो जाता है और जानवर उसका सारा खेत चर जाते हैं। जबकि मूल कहानी में वह अपने घर जाता है। वहां उसे निराश देखकर उसकी पत्नी कहती है कि अब तुम खेती-बाडी छोड दो। इस पर हल्कू कहता है कि मैं एक किसान हूं, किसानी नहीं छोड़ सकता। मौजूदा कहानी में हल्कू को इस तरह सोते दिखाने के लिए प्रेमचंद की आलोचना भी हुई। अनुवाद किसने किया यह तो नहीं पता, लेकिन प्रेमचंद अपनी कहानियों का अनुवाद खुद कम और अपने मित्रों से ज्यादा करवाया करते थे। उनके एक खास मित्र थे इकबाल बहादुर वर्मा ‘सहर’ जो उनकी कहानियों का अनुवाद किया करते थे। जो भी हो इन अनुवादों ने प्रेमचंद की कहानियों की आत्मा को वैसा नहीं रहने दिया, जैसी कि वे उर्दू में नजर आती हैं।
Thursday, April 12, 2012
Saturday, March 24, 2012
Wednesday, March 14, 2012
चलता, बोलता, गाता साहित्य है सिनेमा
Prabhat Khabar Link
http://www.prabhatkhabar.com/node/138679
बुकशेल्फ में प्रदर्शन के लिए लगी किताबों में लिजेंड्री सत्यजीत रे पर सबसे ज्यादा किताबें मौजूद थीं. क्लासिक सिनेमा की दृष्टि से भारतीय सिनेमा में रे का महत्वपूर्ण स्थान रहा है. जिस तरह से बालीवुड में क्लासिक सिनेमा को अपने साहित्यिक योगदान से गुरु रवींद्र नाथ टैगोर और प्रेमचंद ने प्रभावित किया है, ठीक वैसे ही सत्यजीत रे ने भी किया है. आक्सफोर्ड प्रेस की 'फिल्मिंग फिक्शन-टैगोर, प्रेमचंद एंड रे' नामक किताब को खरीदने और उसकी उपलब्धता के लिए दर्शक मेला व्यवस्थापकों से आग्रह करते नजर आये. सत्यजीत रे की फिल्मी जिंदगी के अनछुए पहलुओं को बयां करती किताब 'स्पीकिंग आफ फिल्म्स' सुधी पाठकों के हाथों में बारहा आ जाती थी. इसी सिलसिले में एक दूसरी किताब 'डीप फोकस-रिफ्लेक्शन आन सिनेमा' में सत्यजीत रे की सिनेमाई कलात्मकता और दूरदर्शिता का जिक्र शामिल है. इसकी भूमिका मशहूर निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल की कलम से है. हिंदी सिनेमा की बात हो और गुरुदत्त का जिक्र न आये, ऐसा कैसे हो सकता है. 'लीजेंड आफ इंडियन सिनेमा-गुरुदत्त' नामक किताब में गुरुदत्त की शख्सियत और अदाकारी की तमाम बारीकियां मौजूद हैं, जिसके लिए उन्हें भारतीय सिनेमा का लिजेंड्री कलाकार माना जाता है. गुरुदत्त की शख्सीयत को हिंदी सिनेमा के कवि के रूप में भी जाना जाता है, जिसे बालीवुड को करीब से देखने वाली लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर ने अपनी किताब में बहुत बारीकी से बयां किया है. ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार, सदाबहार हीरो देवानंद, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और कई फिल्मी हस्तियों के जीवन को दर्शाती किताबें खासा आकर्षित करती रहीं और दर्शक उनसे रूबरू होकर खुशी का एहसास करते रहे.
http://www.prabhatkhabar.com/node/138679
Arriflex 2 C model camera |
कहते हैं कि बेहतर जिंदगी का रास्ता बेहतर किताबों से होकर जाता है, क्योंकि किताबें देशकाल और समाज का आईना होती हैं, जिसमें उसका इतिहास-भूगोल नजर आता है. किताबें अपने पाठकों से संवाद करती हैं. हालांकि, यही किताबें जब सिनेमा के परदे पर उतरती हैं तो ये भी अपने देखने वालों से संवाद ही करती हैं, लेकिन माध्यमों के फर्क के कारण कई दृश्य पाठकों तक हू-ब-हू पहुंच नहीं पाते. सिनेमा की इसी नाकामी में एक तरह से किताबों की कामयाबी छिपी है. सिनेमा में जो छूट जाता है उसे किताबें बयां करती हैं और उससे जुडे अनछुए पहलुओं को हमारे सामने लाती हैं.
इसे इत्तेफाक ही कहा जा सकता है कि इस साल की शुरुआत में हमने दिल्ली के भारत की राजधानी बनने के सौ साल पूरा होने का जश्न मनाया था और अब इसी साल के अंत में हिंदी सिनेमा के भी सौ साल पूरे हो जायेंगे. इस ऐतबार से 2012 हिंदी सिनेमा का शताब्दी वर्ष भी है. इसीलिए इस बार दिल्ली में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित 20वें अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले का थीम ’भारतीय सिनेमा‘ रखा गया था. एशिया के सबसे बड़े प्रदर्शनी स्थल-प्रगति मैदान, दिल्ली में 25 फरवरी से 4 मार्च तक चले इस मेले में भारतीय सिनेमा और सिनेमा पर आयी किताबों की अद्भुत छटा देखने को मिली. भारत में सिनेमा और साहित्य के बीच एक अनूठे संबंध को दर्शाती भारतीय सिनेमा पर तकरीबन 80 प्रकाशकों की हिंदी, अंगरेजी, उर्दू एवं अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में चुनिंदा 400 किताबों का प्रदर्शन किया गया. सिनेमा को केंद्र में रखकर हाल नंबर सात में थीम पवेलियन बनाया गया था, जहां इन किताबों के साथ-साथ सिनेमा संबंधी उपकरण-कैमरा, लाइट, रील, छतरी, प्लेयर, रिकार्ड, ग्रामोफोन और भारतीय फिल्मों के ब्लैक एंड व्हाइट पोस्टरों को सलीके से सजाया गया था. मोबाइल, हैंडी कमरे, लैपटाप और सीडी-डीवीडी के इस दौर के दर्शकों के लिए थीम पवेलियन के वे उपकरण किसी अद्भुत नजारे से कम नहीं थे. दर्शकों के बीच सरगोशियां भी हो रही थीं कि शायद हमारी अगली पीढ़ी इस अद्भुत नजारे से महरूम रहेगी. उन दर्शकों में किताबों के शौकीन विदेशी मेहमान भी शामिल थे. सिनेमा थीम की जानकारी पाकर जर्मनी से आये भारतीय फिल्मों के दीवाने स्टीफेन हाक और कैटी हाक दंपति ने बताया कि, 'भारतीय फिल्मों को देखकर हमने भारतीय सिनेमा यानि बालीवुड के बारे में उतना नहीं जाना, जितना उसके बारे में आयी किताबें पढकर जाना.'
In Book Fair |
सिनेमा पर किताबों की पठनीयता के बीच एक बात बहुत ही काबिलेगौर नजर आयी कि फिल्मी दर्शक जब पाठक बनते हैं, तो वे परदे पर नजर आने वाले नायाकों की अपेक्षा परदे के पीछे के तमाम किरदारों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर एक फिल्म के निर्माण में किन लोगों का कितना योगदान होता है. क्योंकि परदे पर दिखने वाले कलाकारों के बारे में उन्हें ज्यादा जानने की जरूरत नहीं होती. यही वजह है कि रूपा प्रकाशन के स्टाल पर हर वक्त फिल्म सेक्शन में खडे होने की जगह ही नहीं होती थी. धक्का-मुक्की के बीच लोग किताबों को खरीदने के लिए बेताब थे. क्योंकि रूपा ने परदे के पीछे काम करने वाले बालीवुड के लीजेंड निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, गीतकार, गायक, पटकथा लेखक, कैमरामैन और तकनीशियन पर एक सीरीज प्रकाशित की है. इन शख्सीयतों की जिंदगी की ऐसी तसवीर, जिसे फिल्म देखते हुए ढूंढना बहुत मुश्किल है, को रूपा ने इस सीरीज में शामिल कर सिनेमा और साहित्य दोनों की दृष्टि से बहुत ही सराहनीय काम किया है. इसी कड़ी में इस साल उर्दू भाषा से भी कई किताबें आयी, जिनमें सज्जाद राशिद की 'इंडियन सिनेमा' खासी चर्चित रही. अवराक, अदबिस्तान और अर्शिया जैसे उर्दू के नये प्रकाशनों में बालीवुड पर कई किताबें देखने को मिलीं. उर्दू प्रकाशकों का कहना है कि कुछ साल पहले तक वे गजल, नज्म, कहानी और उपन्यासों के अलावा सिनेमा पर किताबें छापने से हिचकते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. उर्दू पाठकों को भी अब सिनेमा पर किताबें पसंद आने लगी हैं. 'जौहर-ए-अदाकारी' और 'उर्दू और बालीवुड' के स्टाक से बाहर होने से इस बात को समझा जा सकता है. उर्दू प्रकाशनों में एक खास बात यह नजर आयी कि वे सिनेमा के अंदर तहजीब और ज़ुबान को लेकर हमेशा संवेदनशील रहते हैं और उनको सजाने-संवारने की आवाज बुलंद करते रहते हैं.
साहित्य एक मौन अभिव्यक्ति है और सिनेमा एक ध्वनित अभिव्यक्ति है. साहित्य जब परदे पर चलता है, बोलता है और गाता है, तब यह सिनेमा बन जाता है. लेकिन यह कोई जरूरी नहीं कि सिनेमा की मौन अभिव्यंजना भी साहित्य बन जाये. सिनेमा की खामोशी का जिक्र हुआ नहीं कि 1931 में बनी पहली फिल्म 'आलम आरा' की तसवीर आंखों में मचल पड़ी. सिनेमा थीम पवेलियन में दाखिल होते ही गेट के ठीक ऊपर लगे फिल्म 'आलम आरा' के उस पोस्टर को देखकर उसकी अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है. भारतीय सिनेमा यानि बालीवुड का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है. ऐसे में जब हम उस तसवीर को देखते हैं तो सौ साल पहले शुरू हुई उस सिनेमाई परंपरा को देखते हैं, जिसके पहलू में क्लासिक फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है. इत्तेफाक देखिये कि उस क्लासिक जीनत को देखने के हम कितने शुक्रगुजार हैं, जिसका मुकाबला आज की अति आधुनिक और तकनीक से लबरेज फिल्म भी नहीं कर पाती.
सिनेमा थीम पवेलियन में तीन चीजें बहुत अहम थीं, जिसको लेकर दर्शक खासे उत्साहित रहे. एक तो एरीफ्लेक्स-2सी माडल कैमरा, जिससे तपन सिन्हा, सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और उत्तम कुमार जैसे लिजेंड्री निर्माता-निर्देशकों ने कालजयी फिल्मों का निर्माण किया था. दूसरी खास बात थी, एक दर्जन क्लासिक फिल्मों का प्रदर्शन. उसके साथ ही मेले में हर रोज बालीवुड की हस्तियों की शिरकत भी काबिलेगौर थी. तीसरी चीज थी बाइस्कोप.
बहरहाल, पहले कैमरे की बात करते हैं. इमेज इंडिया फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने इस कैमरे का निर्माण 50 के दशक में किया था. एरीफ्लेक्स-2सी माडल के उस कैमरे में रील की मैगजीन का इस्तेमाल होता था. एक मैगजीन की समयावधि साढ़े चार से पांच मिनट की होती थी. इसे चलाने के लिए 18 वोल्ट की बैटरी का इस्तेमाल होता था, जिससे तकरीबन 10 मैगजीन यानि 40 से 50 मिनट तक की शूटिंग पूरी होती थी. यह वही कैमरा था, जिससे सत्यजीत रे ने 'सिक्किम- डाक्यूमेंट्री, 'सीमाबद्ध्', 'गोपीगाईन', 'जनारण्य' और 'घरे-बाहिरे' जैसी कालजयी फिल्मों की परिकल्पना को सेलुलाइड के परदे पर उतारा था. डिस्को डांसर मिथुन चक्रवर्ती का फिल्मी कॅरियर भी 1976 में इसी कैमरे से शुरू हुआ था. वह फिल्म थी मृणाल सेन की 'मृगया', जिसके लिए मिथुन को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला. उत्तम कुमार की 'सन्यासी', ऋत्विक घटक की 'पुरुलिया छोऊ', तपन सिन्हा की 'हास्पीटल' और 'महतो' आदि फिल्मों के बेहतरीन शाट भी इसी कैमरे से लिये गये थे. हालांकि प्रदर्शन के लिए रखे गये इस कैमरे को दर्शकों के लिए छूना मना था, लेकिन दर्शकों की ख्वाहिशें इस कैमरे को छूने के लिए मचल रही थीं. इसके आस-पास पुरानी बिखरी हुई रील की मैगजीन और उसमें इस्तेमाल किये जानेवाले उपकरणों को तरतीब से सजाया गया था.
60 सीटों वाले उस थिएटर जैसे हाल में मेले के दौरान एक दर्जन फिल्में दिखायी गयीं. इन फिल्मों की सबसे खास बात यह थी कि ये सभी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी थीं. पहले ही दिन 1955 में आयी सत्यजीत रे की फिल्म 'पाथेर पांचाली' का प्रदर्शन किया गया. विभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास 'पाथेर पांचाली' पर बनी यह फिल्म भारतीय सिनेमा की एक क्लासिक फिल्म है. दूसरे दिन 1962 में प्रदर्शित फिल्म 'साहिब बीबी और गुलाम', विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित थी. 1905 में छपे मिर्जा हादी रुसवा के उपन्यास 'उमराव जान अदा' पर 1981 में मुजफ्फर अली ने 'उमराव जान' बनायी. यह फिल्म लखनवी तहजीब को नायाब तरीके से बयां करती है. इसके गीत आज भी संगीत प्रेमियों की जुबान पर मकबूलियत पाते हैं. इसके बाद के एल सहगल अभिनीत फिल्म 'देवदास' का भी प्रदर्शन किया गया. आरके नारायण की कहानियों पर बने धारावाहिक 'मालगुडी डेज' को भी दिखाया गया, जिसमें प्रख्यात रचनाकार गिरीश कर्नाड ने भी भूमिका निभायी थी. इसी सिलसिले में फिल्म 'सूरज का सातवां घोडा', 'माटी माय', 'चारूलता', 'उसकी रोटी' और 'अतिथि' आदि फिल्मों ने भी दर्शकों के बीच अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करायी. साथ ही तरक्की पसंद शायरी को मकबूलियत दिलाने वाले शायर और बालीवुड के गीतकार साहिर लुधियानवी की 91वीं जयंती पर 'साहिर लुधियानवी की याद में' नामक कार्यक्रम का आयोजन भी हुआ और उन पर एक डाक्यूमेंट्री भी दिखायी गयी. उस दौरान साहिर की किताब 'तल्खियां' की कुछ नज़्मे पढ़ी और गायी गयी. शेर-ओ-शायारी के उस कार्यक्रम में किसी मुशायरे की सी कशिश महसूस करते हुए दर्शक तालियों से दाद और नवाजिश भेज रहे थे. मेले की थीम सिनेमा होने से इस बार दर्शकों की संख्या में 2010 के मुकाबले इजाफा दर्ज किया गया, जिसकी बदौलत यह मेला बहुत ही कामयाब रहा.
Sunday, March 11, 2012
Wednesday, March 7, 2012
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Friday, January 27, 2012
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