दुनिया के किसी भी मुल्क में जहां धर्म आधारित राजनीति की दोहरी व्यवस्था है वहां धर्म के नाम पर उदारवादी सोच के लोगों या नीतियों का विरोध करने वाले लोगों की हत्या या उनकी मौत की सजा मुकर्रर करना एक आम बात सी होती है. फिर अगर बात पाकिस्तान की हो तो कोई अचंभे वाली बात नहीं है कि वहां सलमान तासीर की हत्या क्यों हुई. पाकिस्तान एक लोकतांत्रिक मुल्क जरूर है, लेकिन उसकी कुछ राजनैतिक नीतियां धर्म आधारित हैं. आज तक वहां जितनी भी हत्याएं हुई हैं, उनके पीछे राजनीतिक कारण कम और धार्मिक कारण ज्यादा रहे हैं. धार्मिक कानून को मानने वाले मुल्कों में तरक्कीपसंद लोगों के लिए अपनी बात कह पाना बहुत मुश्किल होता है. उनकी प्रोग्रेसिव सोच को या तो दबा दिया जाता है या लोगों के बीच पहुंचने से पहले ही उनकी हत्या कर दी जाती है. ऐसी हत्य्ओं के लिए पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के और भी कई मुल्क हैं, जहां प्रोग्रेसिव सोच के लोगों की हत्याएं होती रहती हैं. पाकिस्तान के इतिहास पर एक नजर डालें, तो पंजाब प्रांत के गर्वनर सलमान तासीर और अल्पसंख्यक मंत्री शाहबाज़ भट्टी की हत्या से पहले जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो और लियाकत खान जैसे नेताओं की हत्या में कहीं न कहीं धार्मिक कट्टरता शामिल थी. गौरतलब है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून के तहत पाकिस्तानी ईसाई महिला आसिया बीबी के पक्ष में बोलने के कारण हत्या कर दी गयी. पाकिस्तान में आसिया बीबी को ईशनिंदा कानून के तहत मौत की सजा सुनायी जा चुकी है और वे जेल में हैं. ऐसा कहना कि ईशनिंदा (पैगम्बर मुहम्मद या इस्लाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करना) करने पर इसलाम में मौत की सजा का फरमान दिया गया है, तो यह गलत है और बेबुनियाद है.
ईष निंदा कानून क्या है, इसे जानने के लिए इतिहास के पन्नों में झांकने की जरूरत है. इसलामी तारीख के मुताबिक ईशनिंदा कानून पहली बार अब्बासी काल में आया. सन ७५॰ में दुनिया के कई मुल्कों जैसे उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिंध और मध्य एशिया में अब्बासी वंश का कब्जा था. अब्बासियों के ही राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ. अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे. मुस्लिम दुनिया बहुत तेजी से विश्व का बौद्धिक केंद्र बनने लगी और उस दौरान मुसलमान और मुसलिम शासक राजनीतिक उच्चता के शिखर पर थे. उनके सत्ता के इस गुरूर ने ईशनिंदा जैसे कानून को जन्म दिया. यह एक नयी कानूनी इजाद थी, जिसे र्कुआन और हदीस दोनों इनकार करते हैं. मतलब यह कि र्कुआन या हदीस में कही गयी बात को तोड-मरोड कर या गलत व्याख्या कर कोई नया कानून बनाने की इजाजत इसलाम में नहीं है. इसलिए पाकिस्तान को भी चाहिए कि इस कानून को फौरन खत्म करे, क्योंकि यह वही ईशनिंदा कानून है जिसे अब्बासियों ने इजाद की थी. ईशनिंदा लोगों को मिली अभिव्यक्ति की आजादी का गलत इस्तेमाल है और इसके लिए कोई कानूनी सजा मुकर्रर नहीं है. अगर कोई शख्स किसी को चोट पहुंचाता है या शारीरिक रूप से नुकसान पहुचाता है, तो उस पर सजा का मामला बनता है, लेकिन वह भी मौत की सजा का नहीं. अगर कोई ईशनिंदा करता है, तो उस पर तो कोई कानूनी सजा का मामला ही नहीं बनता, क्योंकि वह उसकी मानसिक सोच का मामला है. इस ऐतबार से हम किसी को ऐसा करने पर सजा कैसे दे सकते हैं? इस तरह का कानून इस्लाम में कहीं नहीं है. यह कानून इस्लाम के खिलाफ है. पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून जनरल जियाउल हक के शासनकाल में लागू किया गया था. हदीस के जमाने के बाद यानी पैगम्बर मुहम्मद के बाद के जमाने में अरब में कुछ ऐसे शासक हुए, जिन्होंने इस्लामीकरण के नाम पर कुरआन और हदीस की गलत व्याख्या की और मनमाने ढंग से तरह-तरह के कई कानून बनाए , जिन्हें ’फोकहा‘ कहा गया. आज इसको मानने वालों की पूरी दुनिया में एक लंबी फेहरिस्त है, जिसके परिणाम स्वरूप लोगों की हत्याएं होती रही हैं. और जबतक इस कानून को खत्म नहीं किया गया तबतक ऐसा होता रहेगा.
इस्लाम के हवाले से यह बात कही गयी है कि अगर कोई पैगम्बर मुहम्मद साहब या इसलाम के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है, तो यह उसकी नासमझी है. मुसलमान विद्वानों को चाहिए कि उस शख्स को समझाएं और इस्लाम की अच्छी बातों को उसके जेहन में उतारने की कोशिश करें. बजाय इसके कि उसकी मौत का फरमान जारी कर दें. पैगम्बर मुहम्मद के बारे में या इस्लाम के बारे में अगर कोई किसी भी तरह की टिप्पणी करता है, यह उसकी जातीय सोच का मामला है जिसके लिए उस पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ऐसे घृणित काम के लिए उसे सजा या माफी सिर्फ अल्लाह ही दे सकता है, इंसान नहीं. इस पूरे मसले के मद्देनजर इस्लामी तारीख का एक वाक्या बयान करना मुनासिब होगा. पैगम्बर मुहम्मद जब रास्ते से गुजरते थे तो उनके दुश्मन उनको और इस्लाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करते थे. सहाबा किराम यानी मुहम्मद साहब के साथी गुस्सा होकर कहते थे कि हुजूर, अगर आप इजाजत दें तो हम उनको सबक सिखाएं. लेकिन पैगम्बर मुहम्मद ने उन्हें मना करते हुए अपने सहाबी साबित अल अंसारी से कहा कि उनके अंदर समझ की कमी है. मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि अल्लाह उन्हें अच्छी हिदायत दे. पैगम्बर मुहम्मद ने उनके खिलाफ किसी भी तरह की सजा से इनकार कर दिया. इस्लाम हमेशा किसी मसले की जड तक जाकर कोई फैसला देने की बात करता है. र्कुआन में आया है- ’किसी भी मसले के पीछे के कारणों को ढूंढकर लोगों को समझाने की कोशिश करनी चाहिए. फौरन उनकी आलोचना नहीं करना चाहिए जो अल्लाह के अलावा किसी और की प्रार्थना करते हैं’’. यहां तक कि र्कुआन में यह भी आया है कि अल्लाह का फरमान है कि अगर कोई किसी दूसरे ईष्वर की पूजा करता है तो उसकी आलोचना और उसके ईश्वर की आलोचना मत करो, नहीं तो वो तुम्हारे ईश्वर की आलोचना करेंगे.
इस्लाम में किसी शख्स की सजा को लेकर बहुत गहराई से बताया गया है. इस्लाम सिर्फ हत्या के मामले में ही सजा की इजाजत देता है. इसके अलावा किसी भी तरह के अपराध के लिए इसलाम में कहीं भी मौत या मौत जैसी सजा मुकर्रर नहीं है. अगर कहीं ऐसा होता है तो एस मुल्क की सरकार को चाहिए कि पहले वो इसलाम को समझने की कोशिश करे, फिर कोई सजा का प्रावधान बनाए और वो सजा भी मौत की नहीं होनी चाहिए. इसलाम तो साफ-साफ कहता है कि अगर किसी ने कोई अपराध किया है तो उसको सजा कोर्ट से ही दी जानी चाहिए और वह भी जूर्म साबित हो जाने के बाद. कोई भी आम नागरिक ऐसा नहीं कर सकता, जैसा कि सलमान तासीर की हत्या मुमताज कादरी ने किया. ऐसे लोग इस्लाम को अच्छी तरह नहीं समझे होते हैं.
मुसलमानों के लिए पाक र्कुआन का बड़ा उंचा मर्तबा है. र्कुआन में अल्लाह ने अपने रसूल, पैगम्बर मुहम्मद को हुक्म देते हुए कहा है कि- ’ऐ मुहम्मद! आप लोगों को इस्लाम के बारे में बताइये . आपका काम सिर्फ लोगों को बताना है, क्योंकि आप निगहबान नहीं हैं’’. इससे यह साबित होता है कि ईशनिंदा जैसे जुर्म में भी किसी को मौत की सजा नहीं दी जा सकती. इस्लाम का दायरा बहुत बडा है. इसलाम सजा से पहले किसी शख्स को दीनी बातों के तहत समझाकर उसे दीन की तरफ आने की दावत देने की बात करता है, न कि फौरन सजा की. लोगों के दिमाग में एक धारणा बन गयी है कि कुरआन एक फरमान जारी करने वाली किताब है. यह बहुत ही गलत धारणा है.कुरआन कोई क्रिमिनल कोड यानी अपराध संहिता नहीं है, बल्कि यह तो एक आस्था वाली किताब है. इस्लाम के सारे तर्क और उपदेश स्थितिजन्य कारणों पर आधारित होते हैं, कि कोई मसला क्यों और कैसे हल किया जाना चाहिए. कुरआन सामाजिक और राजनैतिक दायरे को अच्छी तरह बताता है. इसलिए विद्वानों को चाहिए कि लोगों के अंदर कुरआन और इस्लाम की अच्छी समझ पैदा करें.
ईष निंदा कानून क्या है, इसे जानने के लिए इतिहास के पन्नों में झांकने की जरूरत है. इसलामी तारीख के मुताबिक ईशनिंदा कानून पहली बार अब्बासी काल में आया. सन ७५॰ में दुनिया के कई मुल्कों जैसे उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिंध और मध्य एशिया में अब्बासी वंश का कब्जा था. अब्बासियों के ही राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ. अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे. मुस्लिम दुनिया बहुत तेजी से विश्व का बौद्धिक केंद्र बनने लगी और उस दौरान मुसलमान और मुसलिम शासक राजनीतिक उच्चता के शिखर पर थे. उनके सत्ता के इस गुरूर ने ईशनिंदा जैसे कानून को जन्म दिया. यह एक नयी कानूनी इजाद थी, जिसे र्कुआन और हदीस दोनों इनकार करते हैं. मतलब यह कि र्कुआन या हदीस में कही गयी बात को तोड-मरोड कर या गलत व्याख्या कर कोई नया कानून बनाने की इजाजत इसलाम में नहीं है. इसलिए पाकिस्तान को भी चाहिए कि इस कानून को फौरन खत्म करे, क्योंकि यह वही ईशनिंदा कानून है जिसे अब्बासियों ने इजाद की थी. ईशनिंदा लोगों को मिली अभिव्यक्ति की आजादी का गलत इस्तेमाल है और इसके लिए कोई कानूनी सजा मुकर्रर नहीं है. अगर कोई शख्स किसी को चोट पहुंचाता है या शारीरिक रूप से नुकसान पहुचाता है, तो उस पर सजा का मामला बनता है, लेकिन वह भी मौत की सजा का नहीं. अगर कोई ईशनिंदा करता है, तो उस पर तो कोई कानूनी सजा का मामला ही नहीं बनता, क्योंकि वह उसकी मानसिक सोच का मामला है. इस ऐतबार से हम किसी को ऐसा करने पर सजा कैसे दे सकते हैं? इस तरह का कानून इस्लाम में कहीं नहीं है. यह कानून इस्लाम के खिलाफ है. पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून जनरल जियाउल हक के शासनकाल में लागू किया गया था. हदीस के जमाने के बाद यानी पैगम्बर मुहम्मद के बाद के जमाने में अरब में कुछ ऐसे शासक हुए, जिन्होंने इस्लामीकरण के नाम पर कुरआन और हदीस की गलत व्याख्या की और मनमाने ढंग से तरह-तरह के कई कानून बनाए , जिन्हें ’फोकहा‘ कहा गया. आज इसको मानने वालों की पूरी दुनिया में एक लंबी फेहरिस्त है, जिसके परिणाम स्वरूप लोगों की हत्याएं होती रही हैं. और जबतक इस कानून को खत्म नहीं किया गया तबतक ऐसा होता रहेगा.
इस्लाम के हवाले से यह बात कही गयी है कि अगर कोई पैगम्बर मुहम्मद साहब या इसलाम के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है, तो यह उसकी नासमझी है. मुसलमान विद्वानों को चाहिए कि उस शख्स को समझाएं और इस्लाम की अच्छी बातों को उसके जेहन में उतारने की कोशिश करें. बजाय इसके कि उसकी मौत का फरमान जारी कर दें. पैगम्बर मुहम्मद के बारे में या इस्लाम के बारे में अगर कोई किसी भी तरह की टिप्पणी करता है, यह उसकी जातीय सोच का मामला है जिसके लिए उस पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ऐसे घृणित काम के लिए उसे सजा या माफी सिर्फ अल्लाह ही दे सकता है, इंसान नहीं. इस पूरे मसले के मद्देनजर इस्लामी तारीख का एक वाक्या बयान करना मुनासिब होगा. पैगम्बर मुहम्मद जब रास्ते से गुजरते थे तो उनके दुश्मन उनको और इस्लाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करते थे. सहाबा किराम यानी मुहम्मद साहब के साथी गुस्सा होकर कहते थे कि हुजूर, अगर आप इजाजत दें तो हम उनको सबक सिखाएं. लेकिन पैगम्बर मुहम्मद ने उन्हें मना करते हुए अपने सहाबी साबित अल अंसारी से कहा कि उनके अंदर समझ की कमी है. मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि अल्लाह उन्हें अच्छी हिदायत दे. पैगम्बर मुहम्मद ने उनके खिलाफ किसी भी तरह की सजा से इनकार कर दिया. इस्लाम हमेशा किसी मसले की जड तक जाकर कोई फैसला देने की बात करता है. र्कुआन में आया है- ’किसी भी मसले के पीछे के कारणों को ढूंढकर लोगों को समझाने की कोशिश करनी चाहिए. फौरन उनकी आलोचना नहीं करना चाहिए जो अल्लाह के अलावा किसी और की प्रार्थना करते हैं’’. यहां तक कि र्कुआन में यह भी आया है कि अल्लाह का फरमान है कि अगर कोई किसी दूसरे ईष्वर की पूजा करता है तो उसकी आलोचना और उसके ईश्वर की आलोचना मत करो, नहीं तो वो तुम्हारे ईश्वर की आलोचना करेंगे.
इस्लाम में किसी शख्स की सजा को लेकर बहुत गहराई से बताया गया है. इस्लाम सिर्फ हत्या के मामले में ही सजा की इजाजत देता है. इसके अलावा किसी भी तरह के अपराध के लिए इसलाम में कहीं भी मौत या मौत जैसी सजा मुकर्रर नहीं है. अगर कहीं ऐसा होता है तो एस मुल्क की सरकार को चाहिए कि पहले वो इसलाम को समझने की कोशिश करे, फिर कोई सजा का प्रावधान बनाए और वो सजा भी मौत की नहीं होनी चाहिए. इसलाम तो साफ-साफ कहता है कि अगर किसी ने कोई अपराध किया है तो उसको सजा कोर्ट से ही दी जानी चाहिए और वह भी जूर्म साबित हो जाने के बाद. कोई भी आम नागरिक ऐसा नहीं कर सकता, जैसा कि सलमान तासीर की हत्या मुमताज कादरी ने किया. ऐसे लोग इस्लाम को अच्छी तरह नहीं समझे होते हैं.
मुसलमानों के लिए पाक र्कुआन का बड़ा उंचा मर्तबा है. र्कुआन में अल्लाह ने अपने रसूल, पैगम्बर मुहम्मद को हुक्म देते हुए कहा है कि- ’ऐ मुहम्मद! आप लोगों को इस्लाम के बारे में बताइये . आपका काम सिर्फ लोगों को बताना है, क्योंकि आप निगहबान नहीं हैं’’. इससे यह साबित होता है कि ईशनिंदा जैसे जुर्म में भी किसी को मौत की सजा नहीं दी जा सकती. इस्लाम का दायरा बहुत बडा है. इसलाम सजा से पहले किसी शख्स को दीनी बातों के तहत समझाकर उसे दीन की तरफ आने की दावत देने की बात करता है, न कि फौरन सजा की. लोगों के दिमाग में एक धारणा बन गयी है कि कुरआन एक फरमान जारी करने वाली किताब है. यह बहुत ही गलत धारणा है.कुरआन कोई क्रिमिनल कोड यानी अपराध संहिता नहीं है, बल्कि यह तो एक आस्था वाली किताब है. इस्लाम के सारे तर्क और उपदेश स्थितिजन्य कारणों पर आधारित होते हैं, कि कोई मसला क्यों और कैसे हल किया जाना चाहिए. कुरआन सामाजिक और राजनैतिक दायरे को अच्छी तरह बताता है. इसलिए विद्वानों को चाहिए कि लोगों के अंदर कुरआन और इस्लाम की अच्छी समझ पैदा करें.
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