Friday, July 29, 2011

वजूद बचाने की जद्दो जहद

          शहर, एक ऐसे जीवन की कल्पना है जिसमें दुनिया की तमाम ऐशो आराम की चीजों से लेकर इंसान की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का हर एक साधन मौजूद होता है. और शायद्  यही  शहर और उसकी दूर के ढोल सुहावन लगने वाली खूबसूरत जिंदगी ने जरूरतमंदों के लिए एक ऐसा सपना गढा जिसने गांवों से पलायन जैसी विभिषिका को जन्म दिया. उसी सपने ने गंवई लोगों की बेरोजगारी को रोजगार का झांसा दिया, जिसकी  जद में आकर वे शहर तो चले आये, लेकिन यहाँ आने के बाद न तो अपने गांव के रहे और न ही शहर के. रोजगार की तलाश ने गरीबों के मासूम सपनों को ऊंची-ऊंची गगनचुम्बी इमारतों के बीच कहीं गुम कर दिया और वे गुमनामी के अंधेरे में अपने वजूद को बचाये रखने के लिए हर वह काम करने को मजबूर हो गये जो शायद्  उन्होंने भी कभी सोचा नहीं था. आज उनके यही न सोच पाने के कारण ही शहरों में इनका आगमन बढता गया और झुग्गी झोपड़ियों का जन्म हुआ.
Delhi Slums
         सुबह साढे नौ बजने का वक्त था. दिल्ली के पटपडगंज विधानसभा क्षेत्र् के नेहरू कैम्प  कालोनी के पास एक झुग्गी बस्ती मौजूद है. इस झुग्गी में तकरीबन 40 से 50 परिवार रहते हैं. झुग्गी में रहने वाले वे गरीब सुबह काम पर जाने की तैयारी में थे. औरतें घर से बाहर ही उनके लिए ईंट के चुल्हे पर या तो नाश्ता बना रही थीं या फिर रात के बचे खाने को गर्म कर रही थीं. सभी झुग्गी झोपड़ियाँ प्लास्टिक से बनी थीं इसलिए उसमें खाना बनाना खतरे से खाली नहीं था. अब जहां खाना बनाने तक की जगह न हो वहां ट्वाय्लेट-बाथरूम की बात बहुत बेमाने लगती है. ऐसे माहौल में पैदा हुए बच्चे, जहां झुग्गी झोपड़ी के बाहर ही औरतों को नहाना पडता है, किस तहजीब के वारिस होंगे, ये  सोच पाना बहुत मुश्किल है. जहां कहीं भी निगाह पडती थी, हर तरफ जिंदगी को जीने के लिए एक जद्दो-जहद नजर आ रही थी. इसी तरह की जद्दो-जहद के बीच वहीं आसपास नंगधडंग बच्चे ना जाने कौन सा खेल खेल रहे थे और रह-रह कर भद्दी गालियां देते हुए एक दूसरे से लड रहे थे. रात को शराब पीकर सोने वाले कुछ लोग ऐसे भी थे जो अभी तक नशे में थे और गालियां  दिये जा रहे थे. तमाम शहरी विकास को मुंह चिढाती गटर के ऊपर पडी उस बस्ती की तस्वीर को देखकर ऐसा लगने लगा जैसे हम उस सदी में जी रहे हैं जिसमें लोग य्ह नहीं जानते कि विकास क्या होता है. पीने के पानी के नाम पर सरकारी नलों से बहता पानी तो है, लेकिन उसके रख-रखाव की व्यवस्था देखकर ऐसा लगा कि शायद् शहरों में बीमारियां ऐसी जगहों से पैदा होती हैं. बारिश का मौसम है. दिल्ली में अगर फुहारे भी पडते हैं तो सडकों पानी भर जाता है और बेशुमार गाडियों से जाम लग जाता है. ऐसे में य्ह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि बरसात होने पर वे लोग कैसे अपने घरों में रह पाते होगे. जिनके चुल्हे घर के बाहर है बारिश में उनको खाना कैसे मिलता होगा. इस भयावह तसवीर से एक चीज तो साफ है कि गांव में भले रोजगार न हो, लेकिन दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए इस कदर की जिल्लती भरी जिंदगी से होकर नहीं गुजरना पडता है. बीमार होने पर इलाज के लिए वे सरकारी अस्पतालों का सहारा लेते हैं, लेकिन वहां भी उन्हें भर्ती के लिए कई परेशानियों का सामना करना पडता है. मसलन झुग्गी बस्ती में रहने वाले बहुत कम लोगों के पास पहचान पत्र् है, जिसके अभाव में उनके ऊपर भारतीय् होने के पहचान का भी संकट मंडराता रहता है. एक और सबसे बडी समस्या यह है कि दूसरी जगहों के खूंखार अपराधी अपनी पहचान छुपाने और पुलिस से बचने के लिए इन झुग्गी बस्तियों में आकर रहने लगते हैं. कुल मिलाकर झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों की जिंदगी कई विसंगतियों से भरी हुई है.
          वहां लोगों से बात करने पर पता चला कि उस बस्ती में बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के उन क्षेत्रों के लोग आकर बसे थे जो आज भी विकास से वंचित हैं. वहां मजदूरी करने, रिक्शा चलाने, चाय्-पानी की दुकानदारी करने, आटो चलाने या फिर कालोनियों में गार्ड की नौकरी करने के साथ-साथ हर वह काम करने वाले लोग रहते थे जिसे मजबूरी का नाम दिया जाता है. बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि उस बस्ती का एक प्रधान भी है, जिनका नाम अशोक सिंह था. अशोक बिहार के बाका जिले के निवासी हैं जो आज से तकरीबन 10 साल पहले नौकरी की तलाश में दिल्ली आये थे. आजकल अशोक घरों की रंगाई-पुताई का ठीका लेते हैं और अपनी ही बस्ती से मजदूरों को इकट्ठा कर काम पर ले जाते हैं.
         गांव से पलायन के सवाल पर वे कहते हैं- शहर आने का सबसे बडा कारण है रोजगार. गांव में हमारे लिए काम नहीं है. और इसकी सबसे बडी वजह य्ह है कि हम थोडे कम पढे-लिखे हैं, इसलिए हमको नौकरी तो मिलने से रही और गांव में हम किसी का काम नहीं कर सकते. क्योंकि कल को वह हमारे बच्चों से कहेगा कि तेरा बाप तो मेरे य्हां काम करता था. गांव में मजदूरी करने को लेकर हमारा स्वाभीमान हमारे सामने आ जाता है. हम शहर में आकर नाला साफ कर सकते हैं, लेकिन अब गांव में मजदूरी नहीं कर सकते. अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए दिल्ली आये  थे, लेकिन हम नहीं बना पाये. फिर भी हमें कोई मलाल नहीं है क्योंकि हम अपना स्वाभीमान बचाने में कामयाब रहे.
           बच्चों की शिक्षा व्यवस्था के नाम पर एक सरकारी स्कूल तो था, मगर वहां बच्चों की तादाद बहुत कम थी. झुग्गी के बच्चों के मां-बाप को अपने काम से फुरसत नहीं है और बच्चों को खेलने और झ्गडा-लडाई करने से फुरसत नहीं. दस से बारह घंटे काम करने के बावजूद ज्यादा  से ज्यादा तीन से पांच हजार तक माहवार कमाने वाले और तीन से पांच लोगों का पेट पालने वाले वे गरीब हर रोज प्रशासनिक व्यवस्था का शिकार होते हैं. पास में खडे एक लालाजी नामक बूढे व्यक्ति ने बताया  कि कभी-कभार कुछ लोग गाडी से आते हैं और झुग्गी गिराने की धमकी देकर पैसा मांगते हैं. वे कौन हैं, कहां से आते हैं, हमें नहीं मालूम. मगर उनकी गाडियों में बैठे हथियारबन्दों  को देखकर हम डर जाते हैं और उन्हें पैसे दे देते हैं. पुलिस में हम शिकाय्त भी दर्ज कराते हैं मगर कार्वाही के नाम पर हम खुद ही डांट खाते हैं कि हमने सरकार की जमीन को कब्जा कर रखा है. हमारी कोई नहीं सुनता. हर बार जब भी चुनाव आता है तो नेता हमारे लिए घर बनाने की बात करके वोट मांगते हैं, मगर कितने ही चुनाव बीत गये, हमारी स्थिति आज भी वैसी ही है. 
          बातचीत के बीच हमने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की उस नीति का जिक्र किया जिसके तहत शहरी गरीबों के लिए आवास योजना की बात चल रही है. इस पर अशोक का कहना था कि यह हमारी बस्तियों को हटाने की एक साजिश लगती है. कुछ दिनों पहले तक हमारे पास राशन कार्ड था जिस पर सरकार से कुछ सस्था अनाज मिल जाता था, लेकिन अब पुनर्नवीकरण करने के नाम पर 15 से 20 प्रतिशत लोगों का राशन कार्ड निरस्त कर दिया गया. पहले महीने में मिट्टी का तेल 20 लीटर तक मिलता था, लेकिन अब घटकर 5 से 10 लीटर हो गया  है. जब जीवन की तमाम बुनियादी चीजों में धीरे-धीरे कटौती की जा रही है तब हम सरकार से कैसे उम्मीद करें कि वह हमारे लिए आवास योजना लाएगी. हम तो सरकार से इतना कहते हैं कि हम जहां काम कर रहे हैं, वहां से तीन किमी के दायरे में हमारे लिए जमीन मुहैया करा दे तो हम खुद ही अपना घर बना लेगें. हम जो कुछ कमाते हैं उसमें से बचत भी करते हैं, लेकिन घर इसलिए नहीं बनवाते कि ना जाने कब सरकारी फरमान आ जाय्ो और हमारे घर गिरा दिये  जाएँ. य्ाह एक ऐसी समस्या है जिससे सरकार निजात भी पा सकती है और शहर भी खूबसूरत हो सकता है. लेकिन, जिस तरह हमारी अनदेखी की जाती है, उससे य्ाही लगता है कि सरकार सिर्फ नीतियां बनाना जानती है, उनको लागू करना नहीं. 
           अशोक का मानना है कि हालांकि मनरेगा के बाद गांवों से लोगों का पलायन कुछ कम हुआ है, लेकिन जो लोग मजबूरी का शिकार होकर शहर की झुग्गियों में रहने लगे हैं उनके लिए वापस लौटना थोडा मुश्किल है. इसके कारणों के लिए वे तर्क देते हैं कि शहरों में कई तरह के काम होते हैं. लेकिन मनरेगा में वैसा कोई काम नहीं होता जिसे हम शहर से वहां जाकर कर सकें. शहरों में काम करने का संस्कार गांवो जैसा नहीं है और न ही गांवों में काम करने का संस्कार शहरों जैसा है.
         झुग्गी झोपड़ियों की समस्याओं के प्रति शहरी प्रशासन और नगरपालिका की शून्यता जगजाहिर है. ऐसे में सवाल य्ाह उठता है कि अगर सरकार इन शहरी गरीबों के लिए कोई नीति बनाती भी है तो इसका फाय्दा कैसे उन तक पहुंगा. इस तरह की आशंका सिर्फ हमें ही नहीं, बल्कि उस झुग्गी बस्ती में मौजूद हर उस आदमी की निगाहों में एकदम साफ झ्लक रहा था. दूसरी तरफ उनमें एक उदासीनता का भाव भी स्पष्ट नजर आ रहा था कि सरकार चाहे जो नीति बनाये हमारी हालत सुधरने वाली नहीं है, क्योंकि संसद में बैठे ज़्यादातर नेता भ्रष्ट हैं.

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